The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Saturday, August 16, 2014

To Refresh n Relive

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Like the charm of old letters, old photographs attract. I think it's worth the effort to revisit the album. It helps; it's so very refreshing...
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Shimla at Night:The Nocturnal Glory
The Peeping Moon: Sojah Valley, Kullu
Oodles of Golden Apples
The Mother and Baby
Treepie Posing for a Snap: Ranthambhor National Park
Believe it: It's the Road to Sach Pass
Hum Do, Hamare Ek
Amateur Photography: Aut Tunnel
A Perfect Sunny Valley
Rhododendron: the Flower of Flowers
The Setting Sun
The Lake Garden: Amber Fort
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By
A. N. Nanda
Shimla
16-08-2014
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Saturday, August 09, 2014

शॅार्टकट रास्ते में



शॅार्टकट रास्ते में

कल मैं आर्टराक से कैथोलिक चर्च होते हुए स्कैंडल पॉइंट तक रास्ता तय कर रहा था । शिमला में दूरी कम करने के लिए शॅार्टकट तो बहुत हैं पर सीढ़ी चढ़ने के लिए तैयार रहना चाहिए । फिर भी, अपराह्न के ढाई बज चुके थे और पेट में चूहे कूदने लगे थे, सो घर जल्द पहुँचना था । लिहाजा मैंने चुनौती कबूल की ।

सीढ़ी चढ़ते वक्त मेरी मुलाक़ात अचानक मोटा से हो गई । हाँ, दस साल से कम उम्र का वह लड़का, मोटा, जिसने भीख माँगने का पेशा अपना लिया है । कुछ ख़ास मजबूरी रही होगी, लगा उन्हें पूछा जा सकता है । अंततः इस बहाने सीढ़ी चढ़ने से फूली हुई साँस भी सामान्य हो जाएगी ।

क्या भी पूछता ? मेरे हिसाब से शिमला में भीख माँगने वाले शायद ही हिमाचल से होते हैं । सो मैंने वहीँ से शुरुआत की, ‘आप तो हिमाचल के नहीं लगते हैं।’

वह भी क्या जवाब देता ? प्रश्न के अन्दर उत्तर छिपा हुआ था । फिर भी उसका संक्षिप्त उत्तर रहा, ‘राजस्थान से ।‘

‘तो आप राजस्थान से हैं !’ मैंने उसके जवाब की पुनरावृति की, मेरी अपनी आवाज़ में । स्वर-शैली से ऐसा लगा कि मैं भी राजस्थान को बिलाँग करता हूँ — ऐसा लगा कि मैं उस बालक को तसल्ली दिलाने की कोशिश में जुटा हूँ । सवाल जारी रखते हुए पूछा, ‘क्या नाम हे आपका ?’

‘मोटा’—उसका जवाब फिर भी संक्षिप्त रहा । मेरे मन में क्या है, उसके बारे में जाने बगैर वह निसंकोच होकर जवाब देना शायद ठीक नहीं समझ रहा था । पर मुझे भी कुछ ऐसी तरकीब नहीं मिल रही थी जिससे मैं मोटा को भरोसा दिला सकूँ ।       

‘शिमला में आप कब आये?’

‘अब तीन दिन हो गए हैं ।‘

मेरे और एक प्रश्न ‘शिमला में कहाँ ठहरते हो ?’ के जवाब में उसने कहा, ‘बस स्टैंड में’ ।

‘इससे पहले आप कहाँ थे ?’ प्रश्न पूछते वक्त लग रहा था कि मैं किसी के निजी मामलों में ज़रुरत से ज्यादा दखल दे रहा हूँ । इसके अलावा, अब तक मुझे यह भी तय कर लेना चाहिए था कि आखिर मैं करना क्या चाहता हूँ? मैं जासूसी करने जुटा हुआ हूँ या सहानुभूति जताने?

लेकिन लडके का जवाब पुर्ववत सीधा ही रहा । ‘कालका में,’ उसने यह कह कर प्रश्न का सामना किया ।

मेरे और एक प्रश्न ‘कितने दिन?’ के जवाब में उसने कहा ‘तीन दिन’।

‘उससे पहले?’ और जवाब मिला ‘चंडीगढ़ में’।

मैंने ध्यान से देखा कि मोटा सचमुच मोटा नहीं बल्कि एक दुबला-पतला बालक है । अगर दृष्टिहीन कमलनयन हो सकता है और वातानुकूलित गाड़ी को ग़रीब रथ कह कर पुकारा जा सकता है तो फिर कुपोषणग्रस्त उस बालक का नाम मोटा होने पर किसको शिकायत होती भला ! उसे आज भिक्षावृति नहीं अपनानी पड़ती तो वह स्कूल में ज़रूर किलकारी भरता परंतु आज उसके सामने एक डोंगा रखा हुआ था जिसमें कुछ सिक्के पड़े हुए थे । कुल मिलाकर 15 से 20 रूपए होंगे । अरे हाँ, मुझे उसकी कमाई के बारे में भी जानकारी लेनी थी । इस मुल्क के तमाम लेखक भिखारियों का मजाक उड़ाते हैं । कहते हैं, उनके पास तो ढेरों बैंक बैलेंस हैं । हो सकता है, पर मैंने तय किया आज मैं स्वयं उसका ज़ायज़ा लूँगा ।  इस संबंध में, मेरे और एक प्रश्न के जवाब में मोटा ने सूचना दी कि उसे कल 100 रूपए मिले थे । फिर भी विरोधाभास स्पष्ट था । बालक के अनुसार उसने अब तक सुबह का नास्ता नहीं किया था सिवाय एक कप चाय के । दिन के दो बज चुके थे ।

आखिर सौ रूपए कमाने वाले लड़के ने क्यों सुबह से कुछ नहीं खाया ? उसके साथ उसकी माँ भी थी पर वह थोड़ी दूर जा कर भीख माँगने बैठी थी । उसकी दो बहनों के बारे में मैंने पूछा तक नहीं । क्या भी पूछता ? क्या यह पूछता कि उन लड़कियों की उम्र क्या है ? भिखारिन की बेटियां बालिग़ बन कर क्या-क्या करती होंगी, उसके बारे में गन्दी बातें सोचने पर उतारू हो जाता । और क्या? और कौन-सी सूचना मुझे चाहिए थी? कुछ-एक फालतू सूचनाएँ मिल भी जातीं तो उनका मैं क्या करता ?    

आखिर में मैंने उससे कुछ ऐसा पूछा जिसके जवाब में उसने रटी-रटाई सूचना प्रस्तुत करना मुनासिब न समझा । थोड़ा-सा विद्रोह और थोड़ी-सी महत्वाकांक्षा का मिश्रण थी उसकी प्रतिक्रिया।  

‘आपके पिताजी कहाँ हैं ?’

‘अगर पिताजी होते तो हम थोड़े न भीख माँगते ?’

‘आप यूँ ही भीख माँगा करोगे तो बड़े हो कर क्या करोगे?’ मैंने सवाल किया ।

‘बड़ा हो कर मैं गाड़ी साफ़ करूँगा और लोगों से माँगूँगा ।‘

तब तक मेरी साँस सामान्य हो गई थी और तुरंत मुझे आगे बढ़ना था । सो हम चल पड़े । जाने से पहले मेरे साथियों ने उस भिक्षुक बालक के कटोरे में दो-एक रूपए डाले पर मैं कुछ नहीं दे पाया । उनके सिक्कों से टकरा कर बालक के कटोरे में से आवाज़ निकली और मैंने उसे स्तब्ध हो कर सुना । आह! कितनी सुरीली थी वह आवाज़! कितना मधुर था उसका अनुकंपन! अच्छा नहीं लगा, कुछ दे देना चाहिए था । फिर मैं खुद को तसल्ली देने लगा — मैंने तो इस वर्ष के लिए गरीब बच्चों की पढ़ाई के वास्ते CRY को कुछ दिया है । [ उफ़ ! अब तो मुझे शर्म आनी चाहिए । दान दे कर प्रगट करना तो सरासर पाप है! ]

सोचा, उस बालक ने जो कहा बिलकुल सच है । बाप मरने पर बच्चे भीख माँगते हैं, यानी माँगनी पड़ती है । लोगों के सामने हाथ फैलाने पड़ते हैं, गिड़गिड़ाना पड़ता है । मैंने इसके कई उदाहरण देखे हैं — अपने गाँव में, अपने इर्द-गिर्द । भारत के पूज्य पूर्वतन प्रधानमन्त्री शास्त्रीजी को पैसों के अभाव में उफनती गंगाजी को तैर कर पार करना पडा था — क्योंकि वह माँगने के खिलाफ़ थे । शास्त्रीजी शास्त्रीजी ही थे, सब लोग शास्त्रीजी नहीं बन पाएँगे । परंतु सबको जीना है । मोटे ने ठीक ही कहा था ।

और एक बात । सपने सबको आते हैं । उस भिक्षुक बालक ने भी अपना सपना देख लिया है । बड़ा होकर वह ट्राफिक चौक पर गाड़ी साफ़ करेगा और साथ ही माँगने का काम जारी रखेगा ।

हे भगवान ! आपने उसको ठीक ही सपना दिखाया है । भीख माँगने के साथ-साथ पसीना बहा कर कुछ कमाने की प्रेरणा भी दी है । कहीं आगे चल कर आप उसके स्वप्न को तोड़ने का तो नहीं सोच रहे हैं? ज्यादा भीख कमाने के लालच में उसको अंग कटवाने का शॅार्टकट देने तो नहीं जा रहे हैं !         
                          
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By
A. N. Nanda
Shimla
10-08-2014
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Friday, August 01, 2014

The Aroma Wafts on...


The Aroma Wafts on...


 It is a question that oftentimes bothers me: If I were not the one what I’m now known for or, more precisely, known to my friends as, what else would I have become? A farmer, for all that quiet pleasure I always find at the mere glimpse of an expansive paddy field undulating into sparkling waves in the swishing September breeze? Or a gardener, for all the rapture a sapling sends me into as it grows from strength to strength, from its dainty existence into its fragrant efflorescence? Or a teacher to root out the rote learning that catapulted all the obedient kids of my time into the legendary gold medalists? Or a crusader against poverty, seeing people offering their dilapidated aluminium bowl on pawn for a bowlful of water-rice? Or an entrepreneur, for all my readiness to struggle and suffer and learn and excel? Or a writer trying to identify with the environs and gain insights into the phenomenon called relationship? Or a philosopher bent on unravelling the purpose of existence? Or a priest? A thief? A beggar? What exactly would I have become had I not been pushed into the stream and chosen to swim downstream? Where is my alter ego that has been eluding me for ever?

The other day I met him, my alter ego—I think I met him. I met him in a party, amongst my friends; say among some thirty of us who could assemble for a nostalgic get-together. It was a kind of reunion of all those who passed out from Utkal University, Vani Vihar in the year 1980. Not all of us were present, but the crowd was compatible enough to rekindle my feelings and guide me straight up to my insight where lay the answer to my question.

‘Aha! You Nanda. Do you remember me? I’m the same XYZ that lived upstairs, the room above you in the third floor, while yours was the one in the ground floor?’

‘Well, Well, you’re MNO, I know, you’re living upstairs in the third floor of our Fourth Hostel while I occupied the room in the ground floor, right?’ I faked as if his tone had kindled enough.

‘We’re meeting after forty-three years, you know, after donkey’s years,’ he spouted. I knew we were meeting after thirty-three years. It was an inconsequential arithmetic slip-up on his part, a rounding-off error. And I ignored.

‘Meet my wife…and tell her how I was like forty-three years ago,’ I introduced my wife to him. ‘Meet my most bosom buddy who lived two floors above me, the floors important pupils used to choose to avoid mosquitoes.’

‘Ha-ha!’ No doubt my words made him happy. He was, in fact, important in my view. And he continued to spout, ‘Nanda used to cook excellent dalma and we’re the beneficiaries of its rich smell, day in day out.’ I was happy too, for my friend did exactly as I intended him to do: unknowingly he had opened a PR blitzkrieg to impress my lifelong critic, my wife.

She proved an attentive listener every inch. And she was curious too, to discover what I was like when she had not extended me the benefit of all the sublimating and civilizing strokes that, according to her, I badly needed then. Every saint has a past…and…and a woman is nothing if not a born investigator!

But I was suddenly reminded of my nagging question: ‘If I were not the one what I’m now known for or, more precisely, known to my friends as, what else would I have become?’ I’d have become a cook, or to choose a more glorious word, a chef. Forty-three years ago, thirty-three to be precise, I had enough talent to impress my friend living upstairs merely by the scent of my pan and ladle. Not a joke!

Let me flash back…back…and still back. My first cooking lesson started when I was a thirteen-year old greenhorn. My teacher was my necessity; my stove was one that was of cutting-edge technology then, a sawdust hearth that was to be vigorously stuffed; and a meticulously lit kerosene-smeared plank in the middle shaft-tunnel was to make the surrounding wall of sawdust smoulder and burn. No issue—I had succeeded in a single session even though the sawdust was damp.

This is how I understood how different was salt from sawdust!

Then...then I learnt so many things, all by self-effort. It needs less of labour to make batter out of wheat flour than to knead it into dough—a discovery that helped me to make pancake as tasty as those loaves of fresh bread sold in the streets of Old Delhi during Ramzaan. I became nutrition conscious and added egg to the batter…and the result was marvellous. The pancake bloated like puri swimming on bubbling hot oil. A friend asked me, ‘What’s the name of the recipe?’ and I remember to have replied, ‘Well, it’s Italian Pizza.’ And by the time my friend got the proof of my culinary talent from the aroma of my dalma, it was six long years after I was introduced to the sawdust hearth. No wonder I was experienced then. So skilled I was then and so uninterrupted was my progress since my acquaintance with salt and sawdust that another friend of mine at Rourkela, after savouring the meal I had served him a couple of years thereafter, advised me: ‘I don’t want you to suffer owing to your skill. Your wife is going to make a cook out of you. In order to avoid being a lifelong cook in your own house, you’ve to forget everything. I say this in your interest only. Why don’t you understand, buddy?’

Fast forward…. Somehow I forgot what I learnt so early in life—I won’t blame my friend for that. He had merely discharged his friendly duty, warned me to be careful. Aha! The good old days! Now I am like a precocious school boy turning into a half-witted dullard by the time he reaches his high school. I’m like a marathon runner finishing the last even though as a nine year-old boy he had come on the front-page news running fifty miles at a stretch. But I continue to be an eater, a committed eater of sort: more people are interested in feeding me now than in helping me to refresh my culinary skill. What a change! The wheel has turned a full circle.

But my only satisfaction is that I can still make out salt from sawdust. I have retained at least this much of basics, even to this day. Nobody can forget cycling and swimming: it’s as ingrained as that.

And I’m convinced; I would have become a good cook had I not decided to do hundred other things my way, had I not been pushed into the stream and chosen to swim downstream, the easy way. The other day I met my alter ego—I think I surely met him, thanks to the billowing aroma of dalma my dear old friend is still able to smell after forty-three years have elapsed. Nay, to be precise, it was an aroma that had once wafted up to the third floor of a hostel room some thirty-three years ago.
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By
A N Nanda
Bhubaneswar
01-08-2014
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