शॅार्टकट रास्ते में
शॅार्टकट रास्ते में
कल मैं आर्टराक से कैथोलिक चर्च होते हुए स्कैंडल पॉइंट तक रास्ता तय
कर रहा था । शिमला में दूरी कम करने के लिए शॅार्टकट तो बहुत हैं पर सीढ़ी चढ़ने के
लिए तैयार रहना चाहिए । फिर भी, अपराह्न के ढाई बज चुके थे और पेट में चूहे कूदने
लगे थे, सो घर जल्द पहुँचना था । लिहाजा मैंने चुनौती कबूल की ।
सीढ़ी चढ़ते वक्त मेरी मुलाक़ात अचानक मोटा से हो गई । हाँ, दस साल से कम
उम्र का वह लड़का, मोटा, जिसने भीख माँगने का पेशा अपना लिया है । कुछ ख़ास मजबूरी रही
होगी, लगा उन्हें पूछा जा सकता है । अंततः इस बहाने सीढ़ी चढ़ने से फूली हुई साँस भी
सामान्य हो जाएगी ।
क्या भी पूछता ? मेरे हिसाब से शिमला में भीख माँगने वाले शायद ही
हिमाचल से होते हैं । सो मैंने वहीँ से शुरुआत की, ‘आप तो हिमाचल के नहीं लगते हैं।’
वह भी क्या जवाब देता ? प्रश्न के अन्दर उत्तर छिपा हुआ था । फिर भी उसका
संक्षिप्त उत्तर रहा, ‘राजस्थान से ।‘
‘तो आप राजस्थान से हैं !’ मैंने उसके जवाब की पुनरावृति की, मेरी अपनी आवाज़ में । स्वर-शैली से ऐसा लगा कि मैं भी राजस्थान को बिलाँग करता हूँ — ऐसा लगा
कि मैं उस बालक को तसल्ली दिलाने की कोशिश में जुटा हूँ । सवाल जारी रखते हुए पूछा,
‘क्या नाम हे आपका ?’
‘मोटा’—उसका जवाब फिर भी संक्षिप्त रहा । मेरे मन में क्या है, उसके बारे
में जाने बगैर वह निसंकोच होकर जवाब देना शायद ठीक नहीं समझ रहा था । पर मुझे भी
कुछ ऐसी तरकीब नहीं मिल रही थी जिससे मैं मोटा को भरोसा दिला सकूँ ।
‘शिमला में आप कब आये?’
‘अब तीन दिन हो गए हैं ।‘
मेरे और एक प्रश्न ‘शिमला में कहाँ ठहरते हो ?’ के जवाब में उसने कहा,
‘बस स्टैंड में’ ।
‘इससे पहले आप कहाँ थे ?’ प्रश्न पूछते वक्त लग रहा था कि मैं किसी के
निजी मामलों में ज़रुरत से ज्यादा दखल दे रहा हूँ । इसके अलावा, अब तक मुझे यह भी तय
कर लेना चाहिए था कि आखिर मैं करना क्या चाहता हूँ? मैं जासूसी करने जुटा हुआ हूँ या
सहानुभूति जताने?
लेकिन लडके का जवाब पुर्ववत सीधा ही रहा । ‘कालका में,’ उसने यह कह कर
प्रश्न का सामना किया ।
मेरे और एक प्रश्न ‘कितने दिन?’ के जवाब में उसने कहा ‘तीन दिन’।
‘उससे पहले?’ और जवाब मिला ‘चंडीगढ़ में’।
मैंने ध्यान से देखा कि मोटा सचमुच मोटा नहीं बल्कि एक दुबला-पतला बालक
है । अगर दृष्टिहीन कमलनयन हो सकता है और वातानुकूलित गाड़ी को ग़रीब रथ कह कर
पुकारा जा सकता है तो फिर कुपोषणग्रस्त उस बालक का नाम मोटा होने पर किसको शिकायत
होती भला ! उसे आज भिक्षावृति नहीं अपनानी पड़ती तो वह स्कूल में ज़रूर किलकारी भरता
परंतु आज उसके सामने एक डोंगा रखा हुआ था जिसमें कुछ सिक्के पड़े हुए थे । कुल
मिलाकर 15 से 20 रूपए होंगे । अरे हाँ, मुझे उसकी कमाई के बारे में भी जानकारी
लेनी थी । इस मुल्क के तमाम लेखक भिखारियों का मजाक उड़ाते हैं । कहते हैं, उनके
पास तो ढेरों बैंक बैलेंस हैं । हो सकता है, पर मैंने तय किया आज मैं स्वयं उसका ज़ायज़ा
लूँगा । इस संबंध में, मेरे और एक प्रश्न
के जवाब में मोटा ने सूचना दी कि उसे कल 100 रूपए मिले थे । फिर भी विरोधाभास
स्पष्ट था । बालक के अनुसार उसने अब तक सुबह का नास्ता नहीं किया था सिवाय एक कप चाय
के । दिन के दो बज चुके थे ।
आखिर सौ रूपए कमाने वाले लड़के ने क्यों सुबह से कुछ नहीं खाया ? उसके
साथ उसकी माँ भी थी पर वह थोड़ी दूर जा कर भीख माँगने बैठी थी । उसकी दो बहनों के
बारे में मैंने पूछा तक नहीं । क्या भी पूछता ? क्या यह पूछता कि उन लड़कियों की
उम्र क्या है ? भिखारिन की बेटियां बालिग़ बन कर क्या-क्या करती होंगी, उसके बारे
में गन्दी बातें सोचने पर उतारू हो जाता । और क्या? और कौन-सी सूचना मुझे चाहिए थी?
कुछ-एक फालतू सूचनाएँ मिल भी जातीं तो उनका मैं क्या करता ?
आखिर में मैंने उससे कुछ ऐसा पूछा जिसके जवाब में उसने रटी-रटाई सूचना
प्रस्तुत करना मुनासिब न समझा । थोड़ा-सा विद्रोह और थोड़ी-सी महत्वाकांक्षा का
मिश्रण थी उसकी प्रतिक्रिया।
‘आपके पिताजी कहाँ हैं ?’
‘अगर पिताजी होते तो हम थोड़े न भीख माँगते ?’
‘आप यूँ ही भीख माँगा करोगे तो बड़े हो कर क्या करोगे?’ मैंने सवाल
किया ।
‘बड़ा हो कर मैं गाड़ी साफ़ करूँगा और लोगों से माँगूँगा ।‘
तब तक मेरी साँस सामान्य हो गई थी और तुरंत मुझे आगे बढ़ना था । सो हम
चल पड़े । जाने से पहले मेरे साथियों ने उस भिक्षुक बालक के कटोरे में दो-एक रूपए
डाले पर मैं कुछ नहीं दे पाया । उनके सिक्कों से टकरा कर बालक के कटोरे में से
आवाज़ निकली और मैंने उसे स्तब्ध हो कर सुना । आह! कितनी सुरीली थी वह आवाज़! कितना
मधुर था उसका अनुकंपन! अच्छा नहीं लगा, कुछ दे देना चाहिए था । फिर मैं खुद को
तसल्ली देने लगा — मैंने तो इस वर्ष के लिए गरीब बच्चों की पढ़ाई के वास्ते CRY को
कुछ दिया है । [ उफ़ ! अब तो मुझे शर्म आनी चाहिए । दान दे कर प्रगट करना तो सरासर
पाप है! ]
सोचा, उस बालक ने जो कहा बिलकुल सच है । बाप मरने पर बच्चे भीख माँगते
हैं, यानी माँगनी पड़ती है । लोगों के सामने हाथ फैलाने पड़ते हैं, गिड़गिड़ाना पड़ता
है । मैंने इसके कई उदाहरण देखे हैं — अपने गाँव में, अपने इर्द-गिर्द । भारत के
पूज्य पूर्वतन प्रधानमन्त्री शास्त्रीजी को पैसों के अभाव में उफनती गंगाजी को तैर
कर पार करना पडा था — क्योंकि वह माँगने के खिलाफ़ थे । शास्त्रीजी शास्त्रीजी ही
थे, सब लोग शास्त्रीजी नहीं बन पाएँगे । परंतु सबको जीना है । मोटे ने ठीक ही कहा था
।
और एक बात । सपने सबको आते हैं । उस भिक्षुक बालक ने भी अपना सपना देख
लिया है । बड़ा होकर वह ट्राफिक चौक पर गाड़ी साफ़ करेगा और साथ ही माँगने का काम
जारी रखेगा ।
हे भगवान ! आपने उसको ठीक ही सपना दिखाया है । भीख माँगने के साथ-साथ पसीना
बहा कर कुछ कमाने की प्रेरणा भी दी है । कहीं आगे चल कर आप उसके स्वप्न को तोड़ने
का तो नहीं सोच रहे हैं? ज्यादा भीख कमाने के लालच में उसको अंग कटवाने का शॅार्टकट
देने तो नहीं जा रहे हैं !
By
A. N. Nanda
Shimla
10-08-2014
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Labels: Hindi stories, People n Places, Reflections
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