The Unadorned

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Sunday, May 11, 2014

संकटमोचन तावीज़

संकटमोचन तावीज़
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[For English version of the story visit this link]

अपने दोस्त विशाल को इस प्रकार की गूढ़ जानकारी कहाँ से प्राप्त हुई, यह सोचकर बद्री बहुत हैरान था । आख़िर एक चोर, चोर ही होता है और एक चोर को पकड़ने के लिए उसी का दिमाग़ लेकर सोचना पड़ता है । आज विशाल ने जिस प्रकार मामले को सुलझाया, लगता था कि वह कोई असली चोर से कम नहीं ।

बद्री का जब अपना पर्स खो गया तो उसने इस घटना को एक अपशकुन माना क्योंकि रुपयों के साथ-साथ वह उसमें रखा आशीर्वादवाला तावीज़ भी खो बैठा था। यह तावीज़ बद्री को एक सिद्ध पुरुष ने दिया था जो उसे हर संकट से बचाता था। पिछले दस सालों में वह कितने हादसों से बाल-बाल बचा, कितने झगड़ों से छुटकारा पाया, इसका कोई हिसाब न था । आज उस तावीज़ को खोते ही उसे एक आसन्न ख़तरे का पूर्वाभास-सा होने लगा । पता नहीं, उसके साथ क्या-क्या होने वाला है !

बद्री अब भी समझ नहीं पाया कि उसने अपना पर्स कैसे खो दिया । कल तो वह किसी भीड़-भाड़वाले बाज़ार में गया भी नहीं था । हाँ, वह कल मंदिर गया था जहाँ लोग पूजा-पाठ के लिए कुछ ज़्यादा संख्या में आए थे । फिर भी उसे भीड़ नहीं कहा जा सकता, और मंदिर में आने वाले भक्तों पर तो चोरी का इल्ज़ाम लगाना सरासर ग़लत होगा। मंदिरों में कभी-कभार जूते-चप्पल चोरी हाते हैं--बस उससे ज़्यादा नहीं । तो कैसे अपना पर्स चला गया ?

जब शाम को विशाल घर लौटा तो बद्री ने उसे पर्स के खो जाने की बात बताई । इतना सुनते ही विशाल एक मिनट के लिए ख़ामोश हो गया । लगता था कि वह खुद को कुछ याद दिला रहा था । फिर बोला, 'पर्स के मामले में हम सब को सावधानी बरतनी चाहिए, यहाँ तक एक चोर को भी ।

पिछले दस साल से बद्री और विशाल अपनी दोस्ती निभा रहे थे । उस दिन बद्री, विशाल को टाटानगर रेलवे स्टेशन पर मिला था और वह थी दस साल पहले की बात । तब बद्री था मोटर पार्ट्‌स दुकान में एक मामूली-सा सेल्समैन । उस दिन, रात में वह स्टेशन गया था किसी से मिलने और ट्रेन के आने में देरी थी । प्लेटफ़ॉर्म की बेंच पर बैठे-बैठे ऊब गया था बेचारा । ठीक उसी समय विशाल आकर उसी बेंच पर बैठ गया । थोड़ी देर के बाद दोनों में बातचीत शुरू हो गई । बात से बात निकली और पता नहीं चला कि तीन घंटे कैसे गुज़र गए ।

विशाल तब कुछ कर नहीं रहा था । वह आया था वहाँ नौकरी की तलाश में । टाटानगर में नौकरी मिलती है--यह विश्वास तब अगल-बगल के इलाक़े के लोगों में था । पर विशाल के पास कोई तकनीकी ज्ञान तो था नहीं, जिससे उसे नौकरी ढूँढ़ने में सहूलियत होती । अंत में उसने भी एक छोटी-सी कपड़े की दुकान में सेल्समैन की नौकरी शुरू कर दी । इस दस साल के दौरान उसने कितनों के यहाँ नौकरी की और छोड़ी, उसका तो हिसाब नहीं, पर उसकी बद्री के साथ दोस्ती हमेशा अटूट रही ।

साथ-साथ एक कमरे में रहते थे वे दोनों । एक दिन बद्री खाना बनाता तो दूसरे दिन विशाल । बड़ी सूझबूझ थी उन दोनों में । एक को अगर बुखार लग जाता तो दूसरा उसकी सेवा करता । ऐसी थी उन दोनों की मित्रता ।

अपने दोस्त से सारी बात सुनकर विशाल बोला, 'छोड़ दो यह मनस्ताप और इससे एक सीख लो । चोरी मंदिरों में भी होती है ।

दरअसल, अब तक बद्री अपने दोस्त से नहीं बोला था कि कल वह मंदिर गया था। वह बोला, 'अरे हाँ, मैं तो कल मंदिर गया था, पर तुम्हें कैसे पता चली यह बात ? हो सकता है वहाँ चोरी हुई होगी ।बद्री को अपने सवाल के जवाब की प्रतीक्षा न थी । एक लंबी साँस लेकर वह फिर बोला, 'मैं दुखी नहीं हूँ कि पर्स से दो सौ रुपये चले गए । मैं तो दुखी हूँ...

विशाल को मालूम था कि उसके दोस्त को भाग्य, अपशकुन वग़ैरह चीज़ों में बेहद विश्वास है । अंधविश्वास ने उसे इस क़दर जकड़ लिया था कि वह पूरी बेचैनी से तड़पने लगा । उसे डर था कहीं उसके साथ कोई बड़ा हादसा न हो, या उसको नौकरी से हाथ न धोना पड़े । अगर यह सब कुछ नहीं होता तो उसके माता-पिता भी मर सकते हैं । सिद्ध पुरुष ने ऐसी ही कुछ चेतावनी दे रखी थी उसे । आज इसे टाला नहीं जा सकता ।

'बद्री, तुम इतने अंधविश्वासी क्यों हो ? चलो मैं कुछ करता हूँ,’ विशाल बोला ।

'अब तुम क्या करोगे ? जेबकतरों से पर्स कौन वापस ला सकता है ?’ बद्री ने निराशा की एक आह भरी ।

'अभी भी कुछ हो सकता है । मुझे मालूम है क्या करना,’ विशाल ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा ।

फिर दोनों दोस्त हनुमान मंदिर के बगलवाले डाकघर में जाकर वहाँ के एक कर्मचारी से पूछताछ करने लगे । उससे वे जानना चाहते थे कि क्या उन्हें कोई लाल रंग का पर्स लेटर बक्स में से मिला है ? कर्मचारी बड़े स्वाभाविक ढंग से बोला, 'पर्स, चाभी, पहचान पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस जैसी चीज़ें लेटर बॉक्सों में कभी-कभार मिल तो जाती हैं, पर आज हमें ऐसी कोई चीज़ प्राप्त नहीं हुई है ।

विशाल बद्री को लेकर डाकख़ाने के अंदर गया और वहाँ एक कोने में महीनों से पड़ी हुई चीज़ों पर नज़र डाली । सचमुच उनमें से कोई बद्री का पर्स न था । तो फिर चल पड़े दोनों दोस्त पासवाले एक दूसरे डाक घर की ओर ।

ऐसे तीन-तीन डाकघरों में पूछताछ करने के बाद, बद्री को अपने पर्स के बारे में पता चला । वहाँ के डाकपाल ने पर्स लौटाने के लिए सबूत माँगा । पर्स के अंदर एक संकटमोचन तावीज़ है, यह कहकर बद्री ने डाकपाल को सबूत दिया । डाकपाल ने पर्स खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक तावीज़ था । तावीज़ के साथ-साथ उन्हें एक सौ रुपये का नोट भी मिला ।

'वाह! यह कैसा चोर है जो पर्स में रुपया छोड़ देता है ?’ डाकपाल हँसते-हँसते बोल पड़े।

'डाकपालजी, वह नोट ज़रा-सा फट गया है और दो महीनों से मेरे पर्स में पड़ा हुआ है,’ बद्री ने कहा ।

'मैं जेबकतरों को जानता हूँ । उन्हें असली-नक़ली में फ़र्क़ ज़रूर मालूम रहता है,’ विशाल बोला। उसके होंठों पर एक 'मैं-सबजानता-हूँ’-सी मुस्कान फैल गई ।

बद्री जानता था कि पर्स में पड़ा नोट है बिल्कुल नक़ली । वह उसको कहाँ से मिला वह नहीं कह सकता, पर कैसे मालूम पड़ी यह बात अपने दोस्त को ?

चकित होकर वह विशाल की ओर रहस्यभरी नज़रों से देखता रहा । सोच रहा था, क्या दस साल काफ़ी न थे एक दोस्त को पहचानने के लिए ?
भुबनेश्वर,   दिनांक 05-08-2007





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By
A N Nanda
Shimla
11-05-2014
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1 Comments:

Blogger Free availabledailywebtool said...

Nice Work.

5:22 PM  

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