Poem by a Fluke-III
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Yesterday we all sat together to discuss the charm of translation, its power to take one closer to the other, both living in different ends of the globe. I thought I should take cue from that for my next blog posting. So I started a poem, first composing it in English and then translating the same to Hindi. I enjoyed challenging myself to come up with something that can be shared. Hope my readers would enjoy it too.
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Anarchy in the Sky
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Who says it—
If winter comes can spring be far behind?
Looking at the gloomy March sky
Is it sky or a
black mountain looming overhead?
It threatens to melt down any moment
Into raindrops or hailstones, or the droplets of frozen mix—
What has happened to the celestial controller?
Moving in reverse, its own calendar!
Is February on its way to follow March?
Is it going to snow again?
The ceremony is long concluded and yet—
Sometimes guests do love to overstay
They have no inhibitions, no shame
Look at the poor host and how he’s harassed
Running out his patience he’ll burst into tears
Just now, any moment, at the drop of a hat.
There’s no gainsaying it
Everybody enjoys snatching the other’s right
The clouds are the squatters in the sky,
The disgraced encroachers of public land
It’s their celestial anarchy: might is right.
When some nasty fellows go hyper
The helpless others, the souls vanquished
Begin to co-operate, nodding their heads
If not so, why do winds blow so strong?
And cheer the squatters to be so presumptuous?
No tyrant, not even the great Alexander
Nobody can make his tyranny to last for ever
History flays them and they die of thirst
And, that too, in the midst of a dreary desert.
So very soon the sky will clear
And all will go away, the unwanted guests.
Aha! Here brightens the distant horizon
So take it from me
March will not flounder any more
Hold on and be happy, it’s going to be April,
Before you even call, Oh, My God
Aha! Sooner rather than later.
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गगन में हलचल
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कौन कहता है ऐसा—
अगर सर्दी आ गई तो वसन्त को
आने में देर नहीं ।
देखता हूँ मैं यहाँ मार्च का
काला-कलूटा आसमान
आसमान है या सर पर मंडराता काला
पहाड़ !
किसी भी पल उसका यूँही पिगल
जाना लगता है निश्चित
वर्षा की बूंदें हों या ओलों
के कण, या तो हो बजरियों की बौछार
कुछ भी हो सकता है यहाँ, नहीं
कोई शक की गुंजाईश ।
आसमान के नियंता को आज यह क्या
हो गया ?
देखो ज़रा उसका कैलेंडर कैसे
चलता है पीछे की ओर !
लगता है मार्च के बाद तैयार
बैठा है फरवरी,
दस्तक देने को वह कैसे बेताब
है !
क्या अब भी बर्फ़बारी फिर से
होना बाकी है ?
रस्म ख़त्म हो जाती है,
फिर भी
कभी-कभी, मेहमान ठहर जाते
हैं लम्बे अरसे तक
शर्म, हया, लिहाज़ कुछ भी नहीं
करते वे सब
देखो ज़रा बेचारे मेज़बान को,
कैसा है वह परेशान
अब तो सब्र करना मुश्किल
उसके लिए, रोना ही पड़ेगा उसे
कभी भी, पलक झपकते ही, फौरन
।
नहीं यह कोई अतिशयोक्ति—
दूसरों के हक छिनने में आता
है कितना मज़ा !
आख़िरकार,
अतिक्रमण करने में माहिर हैं ये सब
जितने बादल आसमान में जुटे हैं
अब तक
कलंकित लूटेरे हैं वे सब के
सब
सामुदायिक ज़मीन पर कब्ज़ा
जमाने वाले प्रवंचक
कहते हैं, यह आसमानी
अराजकता है, ज़रा लिक से हट कर,
और कहते हैं, जानते नहीं
तुम, जिसकी लाठी उसका बैल ।
ये सब कुचक्री जब ज्यादती
करने जुट जाते हैं
लाचार, कुचले हुए इंसान सहयोग
देने लगते हैं
क्या यह बयान मेरा नहीं है सच
?
तो फिर क्यों इस क़दर हवा
तेज़ बहती है ?
और कौन करता इन सबका इतना हिमायत ?
कोई भी तानाशाह, चाहे वह
सिकंदर क्यों न हो
तानाशाही कोई टिकने वाली
चीज़ तो नहीं है
तवारीख़ कोसता है उन्हें, और
प्यास से दम तोड़ते हैं वे
निराशाओं के संताप में झुलस कर, निर्जन रेगिस्तान में ।
सो, सब्र करो, जल्द ही साफ़
होगा आसमान
और मैदान छोड़ जाएंगे अब बिन
बुलाए मेहमान ।
वाह! दूर क्षितिज जगमगाने लगा
है आज...
दे सकता हूँ मैं हौसला, कह
सकता हूँ दावे के साथ
समय अब पटरी पर है, मार्च
को भटकने की क्या ज़रुरत ?
देखो, जल्द ही दस्तक देने
वाला है अप्रैल
इससे पहले कि तुम्हें कहना
पड़ेगा, हे रब, बचाओ
बस, देर नहीं यह, खुश हो
जाओ
ज़रा सब्र तो करो, आज नहीं
तो कल ।
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By
A N Nanda
Shimla
29-03-2014
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Labels: Hindi Poems, Muse, Translation
3 Comments:
सर,अनुवाद बहुत सुंदर बन पड़ा है ।मैं हैरान हूं कि आपको"बजरी" और "रब" जैसे लोकभाषाओं के शब्द भी याद हैं!कविता बहुत अर्थपूर्ण है तथा मौसम की आड़ में आपने एक बहुत बड़ा सच सामने रखा है कि"ये सब कुचक्री जब ज़्यादती करने जुट जाते हैं ,लाचार कुचले हुए इंसान सहयोग देने लगते है........"सचमुच अन्याय इसलिए भी बढ़ता है क्योंकि हम उसे सहन करते हैं।हर वस्तु को पनपने और विकसित होने के लिए एक आधार चाहिए और कमज़ोर लोगों की सहनशीलता ही कुचक्र का आधार बन जाती है। इस कठोर सच को आपने काव्यमय कोमल शब्दावली द्वारा उजागर किया है । मूल भाव ज्यों का त्यों अनुवादित होना आपकी श्रेष्ठ रचनाधर्मिता का परिचायक है । आपको सादर साधुवाद!
सुक्रिया राजेश्वरी जी । कविता तथा इसका रूपांतर के बारे में आपकी राय जान कर मैं बेहद प्रसन्न हूँ । "एक साल बाद" में कहीं-कहीं कविता की पंक्तियों का छिडकाव करना पड़ा था और उसके अलाबा मैंने कविता लिखने की कोशिश शायद ही की थी । अब अनुवाद की पूँछ पकड़ कर इस निष्क्रियता की वैतरणी को पार करना पड़ा । बहरहाल इस कविता को लिख पाना मेरे लिए एक सुखदायी अनुभूति रही । धन्यवाद ।
Nice Poem, keep blogging.
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