The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Sunday, May 12, 2024

राज की बात

 राज़ की बात

               एक बार सरिता ने अभिजीत के खान-पान के ढंग को लेकर बड़ी टेढ़ी-सी टिप्पणी की, "ऐसा लगता है, तुम खाते समय नौकरानी का बड़ा ख़्याल रखते हो।''

               अभिजीत अपनी पत्नी की इस अटपटी टिप्पणी से चौंक गए, असमंजस में पड़ गए। उन्हें लगा कि इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं कर ख़ामो रहना अच्छा नहीं होगा। बेहतर होगा कि वे कुछ ऐसा जवाब दें जिससे प्रोत्साहित हो कर सरिता उस अधूरी बात को पूरी कर दे।

               "कैसी बात करती हो, सरिता? मेरी क्या मजाल है कि मैं अपनी बीवी को नौकरानी समझ बैठूँ!'' अभिजीत ने सरिता की ओर एकटक देखा।

               सरिता को अफ़सोस हुआ कि उसके पति उसकी टिप्पणी का आय बिल्कुल नहीं समझ सके। वे इतने बड़े गँवार तो नहीं कि बात समझने में समय लगाते, पर वह उपहास सूक्ष्म दिमाग़ी प्रक्रिया का परिणाम था, सो बग़ैर प्रसंग के वे उसे कैसे समझते?

               दरअसल अभिजीत खाने के समय अपना पूरा ध्यान भोजन पर इस कदर केंद्रित रखते थे मानो वे किसी फ़ौजी आदे पर अमल कर रहे हों या किसी खाने की प्रतियोगिता में शिरकत कर अपने प्लेट में परोसी गई भोजन सामग्रियों के आख़िरी दाने तक निगल रहे हों। कोई ज़रूरी नहीं कि उनकी पत्नी जो भी बना देती, उसे वे परम तृप्ति के साथ ग्रास कर लेते। किसी दिन खाना स्वादिष्ट न बना हो, तो भी अभिजीत बग़ैर परवाह किए थाली चट कर जाते थे। अभिजीत की यह आदत सरिता को बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। खाते वक्त थाली में कुछ शेष रहने देना ख़ानदानी रईसों का लक्षण होता है और पत्तल में सब कुछ ख़त्म कर देना कंगालों का। इसका मतलब यह भी है कि रईस लोग कभी भूख से तड़पते नहीं, कहीं दावत में जाते तो खाते नहीं। मेज़बान के आग्रह पर एक रसगुल्ला उठा भी लें तो उससे रस निचोड़ आधा खाकर छोड़ देते हैं। लगता है, अभिजीत को किसी ने यह नज़ाकत सिखाई नहीं। खाने-पीने की चीज़ों के साथ वे बेढंगा बर्ताव करते थे; आखिरी दाने तक साँस लेना भी भूल जाते। इस प्रकार की आदत से किसी और को फ़ायदा होता हो या नहीं, पर सरिता के हिसाब से नौकरानी को बरतन साफ़ करने में कम कसरत करनी पड़ती होगी। इसलिए उसने बात को घुमाकर उस पेचीदा टिप्पणी के माध्यम से अपने पतिदेव को टोका था। फिर इस प्रकार के वाग्जाल के अंदर घुसकर उसके आय को अभिजीत भला कैसे समझ लेते?

               अब अभिजीत एक कामयाब व्यापारी के रूप में उभर आए थे। समय की माँग को उन्होंने बखूबी समझ लिया था, इसलिए टेंट हाउस का व्यापार चुना। आज का ज़माना पुराने जमाने जैसा नहीं कि लोग शादी के मंडप को आम-नारियल की टहनियों से सजाते या रोनी के लिए कार्बाइड के घोल को पंच लाइट की हाँडी में डालकर आग लगाते। आजकल तो ग़रीब से ग़रीब को भी शादी जैसे अहम आयोजन में बिजली चाहिए; वह सरकारी खंभे से नहीं मिलती तो क्या, एक जेनेरेटर की व्यवस्था होनी ही चाहिए। उसके साथ गाने-बजाने के लिए माइक, पंडाल भी चाहिए। पकवान बनाने के लिए देहात के रसोइयों पर किसी का भरोसा नहीं। सब टेंट हाउस वाले को इंतज़ाम करना है---रसोई बनाने से लेकर परोसने तक। फिर, अभिजीत ऐसा व्यापार क्यों नहीं चुनते? उनके घर के बग़ल में एक छोटा-सा मैदान था, जिसका अतिक्रमण कर मुहल्ले के नौजवानों ने अपना क्लब बना लिया था। वहाँ पर हर साल श्री गणे और देवी सरस्वती की पूजा का आयोजन होता, जिसके लिए अभिजीत उदारता के साथ अर्थ-प्रबंध करते थे। अंततोगत्वा अभिजीत ने नौजवानों को समझा-बुझा कर उस मैदान को अपने कब्जे में ले लिया और उधर शादी का एक काम चलाऊ मंडप बना दिया। उसका नाम रखा चितवन मंडप। उसको किराए पर देकर तथा शादियों में टेंट हाउस के सामानों की आपूर्ति कर अभिजीत अच्छा-खासा पैसा कमाने लगे। अब तो उन्होंने पाँच-पाँच कारें ख़रीद कर टेंट हाउस की बग़ल में ट्रैवल एजेंट की एक इकाई खोल दी। वह व्यापार भी मुनाफ़ा लाने लगा था। सौ बातों की एक बात---व्यापार के लिए बुद्धि, मेहनत तथा किस्मत चाहिए और अभिजीत के पास इन सबकी कोई कमी न थी।

               व्यापार में कामयाबी अभिजीत के लिए सिर्फ़ धन ही नहीं लाई, साथ में एक सुशिक्षिता पत्नी भी। सच में, अभिजीत के भाग्य में एक ऐसी पत्नी लिखी थी जो उनसे काफ़ी ज़्यादा पढ़ी-लिखी होगी। पर यह कैसे संभव हुआ? किसी को अंदाज़ लगाने को कहा जाए तो वह बोलता, "आजकल सब संभव है भई, अगर पास में पैसे हों तो। अभिजीत के पास पैसे थे, सो उनको पढ़ी-लिखी दुल्हन मिलनी कोई बड़ी बात तो थी नहीं।'' लेकिन ऐसा उत्तर इसके लिए सही नहीं बैठेगा क्योंकि शादी के नाम पर जो सब हुआ, वह एकदम अचानक ही था। उस दिन चितवन शादी मंडप में सरिता की शादी किसी प्रवासी भारतीय से होनी थी। दूल्हा अमेरिका में कार्यरत था और शादी के बाद सरिता को साथ लेकर अमेरिका लौट जाता। परंतु औपचारिकताऐं शुरू होने से पहले ही एक परेशान-सी सुंदर युवती चितवन शादी मंडप के पास पहुँची। साथ में दो जन और थे, यानी एक औरत और एक पुरुष। दोनों अधेढ़ उम्र के थे। मंडप के पास पहुँचते ही उस सज्जन ने कहा, "भगवान के लिए यह शादी रोक दीजिए। देखो, यह ख़्स दूसरी शादी करने जा रहा है और आप लोग धोखे में हैं। सबसे पहले न्यायालय से तलाक़ मंज़ूर करवा कर पहली शादी को निरस्त किया जाना चाहिए, तभी दूसरी शादी वैध मानी जाएगी। इसने पहले मेरी बेटी से शादी की है,'' ऐसा कहकर उन्होंने शादी के काग़ज़ात तथा एलबम से कई फ़ोटो दिखाए। सचमुच, दूल्हा धोखाधड़ी करने जा रहा था जिसका पर्दाफा ऐन वक्त पर हो गया, वर्ना सरिता की ज़िंदगी में सर्वना होना ही लिखा था।

               सरिता के सामने और एक समस्या खड़ी हो गई। अब उससे शादी कौन करता? विवाह कोई गुड्डे-गुड्डियों का खेल तो नहीं कि कोई नया गुड्डा लाकर उससे शादी करा दी जाए! फिर भी होनी को कुछ और मंजूर था। वहीं किसी ने अभिजीत का प्रस्ताव दिया और एक ही घंटे के अंदर सब तय हो गया, निहायत नाटकीय ढंग से।

               वह तो ऐसा हुआ मानो एक लॉटरी बेचने वाले को बाक़ी पड़े टिकटों में से करोड़ों की लॉटरी ऐसे ही लग गई हो!

               इस प्रकार सरिता अभिजीत के जीवन में आई। अपने साथ वह बहुत-सी चीज़ें लाई थी, जैसे खूबसूरती, विद्या-बुद्धि, ढेर सारे सपने....और किंचित् घमंड। अभिजीत ख़ु थे सरिता को पाकर---नारी-सुलभ अभिमान को झेल लेना कोई बड़ी बात तो न थी। आख़िर ज़्यादा पढ़ी-लिखी नारी के सामने थोड़ी-सी गौणता स्वीकारने में क्या हर्ज़? दूसरी तरफ़, सरिता के सामने यह एक बड़ी चुनौती थी---उसे अपने पतिदेव को सुधारना था यानी एक भोले-भाले गँवार से एक सभ्य आधुनिक इंसान। वह अपने काम में लग गई---बात-बात पर टोकने लगी और देखते-देखते रोकना-टोकना उसकी आदत-सी बन गई। उसके पतिदेव क्या पहनेंगे, क्या खाएँगे, टी. वी. पर क्या देखेंगे, कहाँ घूमने जाएँगे---अगर पत्नी ये सब निर्णय ले लेती तो अभिजीत को भला क्यों आपत्ति होती? वे अपना रहन-सहन अपनी पत्नी की सलाह पर बदलने लगे। बाल सँवारने में ज़्यादा वक़्त बर्बाद न हो, इसलिए अभिजीत अपने बाल पीछे की ओर कंघी करते थे। सरिता को यह पसंद न था। सो, अभिजीत ने बार्इं तरफ़ माँग निकालना आरम्भ कर दिया। वे बग़ैर नहाए खाते नहीं थे, पर सरिता कुछ और सोचती थी। सरिता यह चाहती थी कि उसके पतिदेव सुबह बग़ैर मंजन किए चाय पी लें, अख़बार के दो पन्ने पढ़ें, फिर बिस्तर छोड़ें। ऐसा करने से स्टाइल से दिन शुरू होता है। फिर अभिजीत को ये सब करना पड़ा। देखते ही देखते उन्होंने पूरा बाज़ू वाला शार्ट छोड़कर हाफ़ शार्ट पहनना अपनी आदतों में शुमार कर लिया। बदन पर तेज़ महक वाला डिओडरंट स्प्रे करना आरंभ कर दिया। घर पर लूँगी पहनना छोड़ दिया तथा ड्रेसिंग गाउन, बाथरोब जैसे कई नए पहनावे को अपना लिया। यह सब करने में अभिजीत को कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं हुई, पर जब सरिता ने उसे ग्रहरत्न वाली अँगूठियों को निकालने को कहा तो उन्हें प्रतिरोध करने की इच्छा ज़रूर हुई।    

               "मेरे यह सब पहनने से किसको क्या फ़र्क़ पड़ने वाला, सरिता?'' अभिजीत ने पूछा।

               "हाँ, इससे ज़रूर फ़र्क़ पड़ता है और मुझको। आपको शायद मालूम नहीं कि इन्हें देख मुझे कैसा सरदर्द हो जाता है। उफ़, आठ अंगुलियों में नौ-नौ अँगूठियाँ---मैं इन्हें कैसे बर्दाशत करूँ जी? एक लोहे की बनी तो एक ताँबे की, एक शंख की तो एक चाँदी की,'' ऐसे सरिता मुस्करा तो रही थी, पर उसके चेहरे पर नाराज़गी स्पष्ट रूप से झलक जाती थी।

               आख़िर में अभिजीत को ये सब गंगाजी में प्रवाहित कर देना पड़ा। फिर उनके लिए प्लेटिनम की एक महँगी अँगूठी ख़रीदी गई जिस पर हीरे जड़े हुए थे। अभिजीत को वह पहने हुए देख सरिता ख़ु हो गई और बोली, "अब मानो सब ग्रह टल गए। अगर र्इंट-पत्थरों से अंतरिक्ष की लड़ाई जीती जाती तो इंसान को सैटेलाइट नहीं बनाना पड़ता, समझे।''

               यह सब सुनकर अभिजीत ने मन ही मन सोचा कि उनकी पढ़ी-लिखी पत्नी आधुनिक ख़यालात की है जिसकी वैज्ञानिक चेतना के सामने उनकी दक़ियानूसी चाल-चलन और नहीं चलने वाली। फिर भी, एक पत्नी को इस हद तक नहीं जाना चाहिए। जब उसने पीछे पड़कर अभिजीत की मूँछें कटवा दी तो अभिजीत को पुनः प्रतिवाद करने का मन हुआ। उन्हें मूँछें अच्छी लगती थीं; कहते हैं न मर्दानगी मूँछों से दूर नहीं रहती! उनके जीवन में सरिता के आने से पहले मूँछें आई थीं। क्या सरिता के आने का मतलब यह है कि अभिजीत को अपने अतीत के सारे निशान मिटाने होंगे? आख़िर वह चाहती है क्या? अभिजीत के माता-पिता नहीं थे। अगर वे ज़िंदा होते तो सरिता क्या करती? क्या किसी दिन सरिता के कहने पर वे अपने पुराने ख़यालात के माता-पिता को भी घर से निकाल देते?

               आख़िर में ये सब मामूली नोक-झोंक ही थे; सरिता और अभिजीत कई मामले में अच्छे पति-पत्नी बने। लोगों को इसका राज़ पता नहीं था। सरिता को अपने पति को सुधारना था, साथ ही उसे मालूम था कि पतिदेव को कैसे ख़ु रखना होता है। केवल समय पर अच्छा खाना खिलाकर नहीं, बल्कि उनके अंदरूनी चाहतों को पहचान कर भी। सरिता जानती थी कि उसके पतिदेव खुद को हीन समझते हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी पत्नी जैसी एम. ए. की डिग्री नहीं ली थी। उन्हें तो अँग्रेज़ी अच्छी तरह बोलना भी नहीं आता था। कॉलेज की पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी, क्योंकि उनको जल्द से जल्द किसी काम पर लगना था। पैसों की क़िल्लत ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया था। यह सब जानकर सरिता अपने पति के ज़ख़्मों पर मरहमपट्टी चढ़ाती थी।

               किसी समस्या पर अभिजीत अपनी बीवी से सलाह-मविरा करने आते तो सरिता ज़रूर स्वागत करती, पर समय-समय पर अपने पतिदेव को ऐसा भी महसूस करने देती कि इन सब मामले में अभिजीत के विचार भी माक़ूल हैं।

               "मुझे थोड़े न यह बात मालूम है। मैंने तो किताबों को रटकर इम्तहान पास किया, आपकी तरह कठिन परिस्थितियों को झेलकर नहीं,'' सरिता की यह बात उसकी अपनी शिक्षित छवि पर थोड़ी देर के लिए सच्चाई की रोनी डाल देती।

               और यह सुनकर अभिजीत ख़ु होते।

               कभी-कभी सरिता कुछ ऐसे बोलती, "मुझे ग़लत न समझिएगा तो मैं एक बात कहना चाहती हूँ।'' अभिजीत उत्सुक होते और सरिता फिर बोलती, "आप अगर पढ़ाई चालू रखते तो ज़रूर आगे बढ़ते, आई. ए. एस. का इम्तहान पास कर लेते।'' अभिजीत र्मा जाते। एक पल के लिए भी नहीं सोच पाते कि सरिता ने उनका मज़ाक तो नहीं उड़ाया?

               पता नहीं सरिता ने कैसे भाँप लिया था कि अभिजीत को अपनी पत्नी के मुँह से तारीफ़ के दो ब्द सुनना अच्छा लगता है। जैसे भी हो, वह अपने पतिदेव को ख़ु रखने के लिए इस तरक़ीब को बख़ूबी इस्तेमाल करने लगी, यानी इमोनल एक्सप्लॉएटेन! पहले अभिजीत को अपनी संघर्षमय जीवन-गाथा सरिता को सुनाने का ख़ूब मन करता था। आख़िर, यह बात अपनी पढ़ी-लिखी पत्नी को न सुनाए तो क्या टेंट हाउस में माइक लगाकर इसका रिकार्ड बजाए? एकाध बार उन्होंने सुनाना शुरू भी किया, पर सरिता ने टोक दिया। "आज आपकी हैसियत यह कहती है कि आप अपने अतीत को भुला दें। अतीत के संघर्षों की कहानी कहने के बजाय आप बोलें कि आप ख़ानदानी रईस हैं। ऐसा कहने से आपको इज़्ज़त नसीब होगी, समझे।'' फिर अभिजीत अपनी अतीत की व्यथा एक संवेदनहीन औरत को सुनाने की हिम्मत नहीं कर सके। सिर्फ़ प्रतीक्षा में रहते थे कि सरिता कब मेहरबान होकर पूछेगी, "आपको बचपन में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था न?'' अभिजीत से किसी उत्तर की अपेक्षा किए बग़ैर फिर बोलेगी, "हम अपने बच्चे को ऐसी कठिनाइयाँ नहीं झेलने देंगे। उन्हें तो हम इंटरनैनल स्कूल में पढ़ाएँगे।''

               उस दिन सरिता का मिज़ाज बड़ा ख़ुगवार था। पता नहीं क्यों, वह अभिजीत की प्रशंसा करती ही जा रही थी और उसे सुनकर वे लजाते रहे। उस  समय वे एक कामयाब व्यापारी; बुद्धिमान इंसान, जानकार ख़्स, आकर्षक नौजवान, उदारचित्त पति, पता नहीं क्या-क्या बन गए थे। सब हुआ सरिता की बदौलत, यानी सरिता के अनुसार। उन्हें लगा कि समय उपयुक्त है जब वे अपनी पत्नी को एक राज़ बता दें। हाँ, अभिजीत के हिसाब से उसकी सूचना सरिता को होनी चाहिए और जितना जल्द हो सके, वह उनके लिए अच्छा ही होगा। बार-बार उनके खान-पान के तौर-तरीकों को लेकर खिंचाई करना अब सरिता की आदत-सी बन गई है और अब उसे यह तुरंत बंद करना चाहिए। अपनी करतूतों पर अफ़सोस ज़ाहिर करना चाहिए।

               अभिजीत को उस घटना की याद आई जो बीस साल पहले उनके साथ घटी थी। असल में, उस घटना के बारे में और भी एक ख़्स जानता है, पर पता नहीं इन बीस सालों के दर्मियान उसने उसे याद रखा होगा या नहीं। उस दिन अभिजीत भूखे पेट स्कूल गया था। उन दिनों स्कूल में मध्याह्न-भोजन का प्रावधान न था। अभिजीत का मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लग रहा था; वह तो आया था स्कूल के बग़ीचे से कच्ची भिंडी तोड़ कर अपनी भूख मिटाने, पर वहाँ आकर देखा कि स्कूल के प्रधान शिक्षक ने पहले ही सारी सब्ज़ियाँ तोड़वा ली हैं। फिर उसे पता चला कि उस दिन जल्द छुट्टी हो जाएगी, क्योंकि स्कूल में प्रबंधन कमेटी की बैठक होने वाली थी। उसमें शिरकत करने आए सदस्यों को नाश्ते दिए जाएँगे। यह ख़बर सुनते ही बेचारे भुक्खड़ अभिजीत ने आगे की अपनी योजना तय कर ली।

               वह छुट्टी के बाद घर नहीं गया। वहाँ जाता भी क्यों? क्या घर में उसे नाश्ता मिल जाता? स्कूल में फिर भी कुछ मिलने की आशा थी। कमेटी की बैठक चली और वहाँ स्कूल के बरामदे से पूड़ी और आलू की भुजिया की महक दूर-दूर तक फैलने लगी। अभिजीत के मुँह में पानी आ गया और वह रसोई के नज़दीक गया। बैठक में प्रधान शिक्षक भी भाग ले रहे थे और बीच-बीच में आकर रसोई में चल रहे कार्यों की देख-रेख कर रहे थे। इतने में अभिजीत प्रधान शिक्षक के सामने आ गया।

               "स्कूल तो कब का बंद हो गया और तुम यहाँ क्या कर रहे हो, अभि?'' प्रधान शिक्षक के  पूछने का ढंग ज़रा रूखा था।

               "ऐसे ही घूम रहा था, सर,'' अभिजीत ने उत्तर दिया।

               "तो फिर रुक जाओ। इन लोगों के खाने के बाद प्लेट धोना। आज इस काम के लिए जिसको बुलाया गया था, अब तक उसकी कोई ख़बर नहीं,'' प्रधान शिक्षक ने कहा।

               अभिजीत मन ही मन ख़ु हुआ कि उस काम के लिए उसे नाश्ता मिलेगा। वह हलवाई के पास गया। हलवाई पूड़ी छान रहा था और बोलता भी था। "इतने लोगों के लिए बस इतना-सा आटा! मैं तो अकेला इसका आधा खा सकता हूँ!'' अभिजीत ने देखा, बात तो सही है। बैठक में शिरकत करने वालों की संख्या तीस के आसपास होगी, पर पूड़ी बनेगी पच्चीस या मुश्किल से तीस। क्या कुछ लोग आधी पूड़ी खाएँगे?

               अब अभिजीत का नाश्ता मिलने की आशा क्षीण होने लगी। उसे तमाम लोगों के जूठे प्लेट धोने पड़ेंगे और बदले में खाने को कुछ भी नहीं मिलेगा। इससे तो बेहतर होता कि वह पेड़ से कच्ची इमली तोड़ कर खाता! का, अब वह भाग पाता! भागना अब नामुमकिन था, अगर वह ऐसा करे तो प्रधान शिक्षक नाराज़ होंगे और कल उसकी पिटाई होगी।

               कुछ देर अवश्य हुई, पर आख़िर में वह आदमी प्लेट धोने के लिए आ पहुँचा, जिसे काम के लिए बयाना दिया गया था। ग्रामीणों के लिए वक़्त का पावंद होना ज़रूरी नहीं; वे लोग तो इस मामले में सूरज भगवान को भी पछाड़ देते हैं। अब अभिजीत के लिए काम नहीं। उसका मतलब प्रधान शिक्षक आकर अभिजीत को बोलने ही वाले थे, "अभिजीत, अब तुम्हारे लिए कोई काम नहीं। सो, तुम घर लौट जाओ।'' और इस प्रकार उसकी नाश्ता करने की आशा बिल्कुल व्यर्थ जाएगी।

               फिर भी अभिजीत वहाँ रुक गया। जब तक प्रधान शिक्षक उसे चले जाने के लिए नहीं कहते, अभिजीत ने वहाँ रुकने का तय कर लिया।

               बैठक ख़त्म हुई और सारे सदस्य अपने-अपने पत्तल में से पूड़ी लेकर खाने लगे। कुछ सदस्य तो ख़ास ओहदे के थे, उन्हें नाश्ते प्लेट में परोसे गए। इतनी कम चीज़ को वे लोग कितनी देर तक खाते? जल्द ही लोगों ने अपने-अपने प्लेटों को नीचे रख दिया।

               अभिजीत देखता रहा---सारे के सारे प्लेट ख़ाली और वहाँ रसोई में पूड़ियाँ भी ख़त्म हो गई थीं। हलवाई ने कुछ पूड़ियाँ छुपा रखी थीं, पर उनमें से अभिजीत को कुछ नहीं मिलने वाला था। सो उसे जो भी खाना है, इन लोगों के जूठे प्लेट से लेकर ही खाना है। सब तो अपने-अपने प्लेट चट कर गए थे, फिर अभिजीत को मिलता भी क्या? और वह ताकता रहा कि शेष दो सदस्य कब अपना-अपना प्लेट नीचे रखेंगे। इतने में एक ने अपना प्लेट रख दिया। उन्होंने अपनी पूड़ी तो खा ली, पर आलू की भुजिया छोड़ दी थी। शायद वे डाइविटिस रोग से ग्रसित थे। अभिजीत ख़ु हो गया। तुरंत उस प्लेट को उठा लिया और स्कूल के पिछवाड़े जाकर उस जूठे प्लेट से आलू खाने पर उतारू हो गया।

               उधर प्लेटों की गिनती में एक कम पाने पर प्लेट धोने वाले ने इधर-उधर ढूँढ़ा। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वह उस जगह पर पहुँचा जहाँ पहले से अभिजीत उस जूठे प्लेट को हाथ में लिए खड़ा था।

               "छी-छी, अभि बाबू, आप यह क्या करने जा रहे हैं? एक “फलाना” जात के ख़्स के जूठे प्लेट में छोड़ी गई आलू की भुजिया खाओगे? आप तो उच्च जाति के हैं। पिछले सात जनम में कितनी तपस्या करने पर आपको इस जनम में यह जात नसीब हुई। अब उसे भ्रष्ट करने जा रहे हैं!'' प्लेट धोने वाले ने कहा।

               थोड़ा रुककर फिर वह बोला, "अब मैं जाता हूँ, आपके चाचाजी से आपकी शिकायत करूँगा। जम कर आपकी पिटाई होगी, तब जाकर अक़्ल ठिकाने आएगी।''

               पर उस बंदे की धमकी महज़ धमकी ही थी। उसने अभिजीत के चाचाजी से कोई शिकायत नहीं की। पता नहीं क्यों? फिर भी अभिजीत डर गया था, क्योंकि एक अनाथ को भी अपनी जाति का ख़्याल रखना चाहिए और उस चूक के लिए उसे पिटाई नहीं तो और क्या मिलती?   

               बीस साल बीत गए, फिर भी अभिजीत को वह बात पूरी तरह याद है। बल्कि वे तो उसे ढोकर ही चलते हैं! जब खाने की टेबुल पर बैठते हैं, अक्सर उन्हें उस बात की याद आ जाती है। कभी वे अपनी मौज़ूदा हालात देख ख़ु होते हैं तो कभी अतीत में उनके साथ किए गए बेइंसाफ़ियों का प्रतिवाद करते हैं। सब मन ही मन। कभी उन्हें ऐसा लगता है कि वे अब भी दाने-दाने को तरसते हैं; खाते वक्त अगर अन्न का एक भी दाना नीचे गिर जाता, उसे तुरंत उठा लेते और उसकी जुहार कर मुँह में डाल देते। इस प्रकार की घटिया आदत देख सरिता चिढ़ती; रोक-टोक कर अभिजीत को उस आदत से आज़ाद नहीं कर पाती थी। उनकी शादी हुए दो साल बीत गए; अब भी अभिजीत को स्कूली बच्चे जैसे खाने-पीने का शिष्टाचार सिखाना पड़ता है। इधर अपनी बीवी की ऐसी चिढ़े हुए रहने की आदत से अभिजीत बेचैन थे और चाहते थे कि बस एक बार सरिता को अपने मन की बात बता दें। टोक दें कि वह उन्हें और न चिढ़ाए, कम से कम खाने के समय। गिड़गिड़ाएँ, "सरिता, मेरी जान, मुझे इतना मत सुधारो कि मैं आईने के सामने अपने आपको पहचान न सकूँ। मेरे जिस्म से अतीत की गंध छुड़ाते-छुड़ाते मेरी खाल मत खींचो। ज़रा इस गँवार पर रहम करो। मेरे मन की बात अगर सुनना है तो सुनो, वर्ना खाने की टेबुल पर भगवान के लिए मुझे अकेला छोड़ दो।''

               बहुत सोचकर भी अभिजीत हिम्मत नहीं जुटा पाए। वाक़ई, समय बदल चुका था और बीस साल पहले की घटना को बखान करने के लिए हिम्मत चाहिए थी। उन्हें डर था, सरिता उस बात को सुनते ही बोल पड़ेगी, "इतनी भी क्या ज़रूरत थी कि आपने इसे मुझे सुनाया? क्या आपको कोई और न मिला जिसे आप यह सुना देते?''

  ----------------------------------------------------------------------------------------------

कोलकाता

03-05-2010

Labels: ,

0 Comments:

Post a Comment

<< Home