The Unadorned

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Saturday, May 13, 2023

Ek Saal Baad एक साल बाद

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Kadambini's review of my short story collection titled "Ek Saal Baad" is brief yet heartening. You can find the link to it below. The Unadorned: Thank U Kadambini (ramblingnanda.blogspot.com) The review praises the eponymous story, "Ek Saal Baad". I am considering sharing this review on my blog. Additionally, I invite you to read the story and share your thoughts with me.

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एक साल बाद

               शीष को आख़िरकार शादी पारंपरिक तरीक़े से ही करनी पड़ी। वह चाहता था, एक अच्छी-सी लड़की के साथ इशक लड़ाए, घूमे-फिरे, उसके इंतज़ार में पल गुज़ारे, लंबी-लंबी आहें भरे, जज़बात भरे प्रेम-पत्र लिखे, उसके माँ-बाप को शादी के लिए मनाए, फिर शादी करे। पर ये सब कैसे होता जब उसमें ज़रा भी हिम्मत नहीं थी। किसी लड़की को पटाना कोई बच्चों का खेल तो है नहीं। हर सुंदर लड़की चाहती है कि उसका चाहने वाला कुछ ऐसा पहने, कुछ ऐसा कहे, कुछ ऐसा कर गुज़रे कि उसकी तबियत मचल जाए। तब लड़की अपने चाहने वाले को अपने प्यार का ख़ज़ाना सौंपती है। आशीष वह सब जानता था, पर वह किसी को ख़ु न कर सका। करता भी कैसे? न उसको गाने-बजाने का शौक़ था, न खेल-कूद में महारत। न वह किसी अमीर घराने का लड़का था, न ही फैन परस्त।

               यार-दोस्त बेचारे को बढ़ा-चढ़ा कर तरक़ीब बताते, लेकिन उनमें से कोई भी काम न आई। उल्टे, वह एक बार घोर मुसीबत में आ गया। तब वह मरते-मरते बचा। घटना कुछ इस प्रकार की थी---आशीष को फ़ोन मिला कि उसकी एक सहपाठिनी उसके साथ फ़िल्म देखने जाना चाहती है। "अच्छी बात, आख़िर कोई लड़की मेरे मन की बात समझने के लिए तैयार तो हुई!'' फ़ोन पर आवाज़ लड़की की थी, सो क की कोई गुंजाइ न थी। बात तय हुई कि आशीष उसके घर तक जाएगा और उसे मोटर साइकिल पर बिठाकर फ़िल्म दिखाने ले जाएगा। फिर, शीष ने दोस्त से मोटर साइकिल माँग ली और उस सहपाठिनी के यहाँ पहुँच  गया। वहाँ पहुँच कर गेट के सामने हार्न बजाया। एक बार, दूसरी बार, फिर कई बार। अंत में वह गेट खोलकर अंदर आया। गेट खुलते ही उसका कुत्ता आशीष की तरफ़ दौड़ पड़ा। वह लगातार भौंकता रहा। अरे बाप! कितना भयंकर था वह। लगता था, हार्न सुनकर वह सचमुच चिढ़ गया हो। आशीष को तुरंत नौ दो ग्यारह होना पड़ा। पता नहीं उस दिन कौन उसे इस क़दर बुद्धू बनाने पर तुला हुआ था!

               ऐसा नहीं कि हर एक मामले में वह नाकाम ही था। पढ़ने-लिखने में साधारण रहने के बावजूद उसको एक दिन किसी बैंक से साक्षात्कार के लिए बुलावा आ गया। आशीष ने देखा कि उससे और तेज लड़के लिखित इम्तहान में फैल हो गए हैं। पहले वह इस पर विश्वास नहीं कर पाया। सोचा, फिर कोई उसके साथ घटिया रारत तो नहीं कर रहा है? लेकिन चिट्ठी को बार-बार पढ़ने पर उसे सब कुछ सही लगा। साक्षात्कार देने के बाद जब नतीजा निकलने की बारी आई तो उसे नौकरी नहीं बल्कि खेद-पत्र नसीब हुआ। दु:ख तो ज़रूर हुआ, पर आशीष को मालूम था कि कैसे अपनी औक़ात में अविलंब लौटना होता है। फिर दो महीनों के बाद उसे किसी दूसरे बैंक से नियुक्ति पत्र मिला। इस बार आशीष बिल्कुल हैरान था, आख़िर यह पत्र आया कैसे? उस बैंक की चयन परीक्षा में वह बैठा तक नहीं! फिर आहिस्ता-आहिस्ता बात साफ़ होती गई। वह सरासर सच निकली। यह बैंक एकाएक विस्तार-प्रक्रिया में जुटा था और उसके पास पूरी चयन-प्रक्रिया के लिए समय नहीं था। फिर उसने और बैंकों को पत्र लिखा कि अगर वहाँ हाल में कोई चयन-प्रक्रिया पूरी हुई हो और असफल उम्मीदवारों को खेद-पत्र दिए गए हों, तो उन लोगों का नाम-पता सूचित करें। बस, इस प्रकार आशीष का खेद-पत्र दो महीने के अंदर नियुक्ति-पत्र में तब्दील हो गया। कहते हैं न, खुदा मेहरबान तो कमज़ोर पहलवान!

               फिर शादी करने की बात आई। माता-पिता, जात-कुटुंब, सब लग गए दुल्हन ढूँढ़ने में। एक बैंक अधिकारी को अच्छी यानी हुनरमंद लड़की चाहिए, दान-दहेज़ के साथ, रिश्ता संपन्न परिवार में होना चाहिए, ख़ानदान भी महूर, कुंडली भी तदनुरूप---बस, लड़की साक्षात् लक्ष्मी हो; किसी फ़िल्मी नायिका से मिलती-जुलती। जब इतने सारे लोग एक ही काम में लगे हों तो नतीजा आशाजनक होना ही चाहिए।

               और नतीजा ठीक वैसा ही हुआ जैसा सब लोग चाहते थे।

               लड़की का नाम था मानसी। वह देखने में गोरी थी। सुडौल चेहरा, लंबे-लंबे बाल, ऊँचा क़द, और रूपरंग का क्या कहना। वह तो अँधेरे में भी दमकता था। एम.ए. तक पढ़ी-लिखी। गाना-बजाना भी जानती थी। सुरीले कंठ से वह साधारण बात में भी मधुरता भर देती थी। आशीष बेहद प्रसन्न था। उसने सोचा कि मानसी को अपनी पुरानी सहपाठिनियों को एक बार दिखा दे, ख़ासकर स्निग्धा रानी को। "अरे बाप, कितनी घमंडी थी वह! अब वह आकर मेरी पत्नी मानसी को एक बार देख तो ले! उसका सारा घमंड एक ही पल में काँच-सा चकनाचूर हो जाएगा!''

               शादी का पहला सप्ताह, पहला महीना, पहला साल जैसे गुज़रना चाहिए, शीष दंपति के लिए ठीक वैसे ही गुज़रा। मानसी आहिस्ता-आहिस्ता अपनी क़ाबिलीयत, अपने हुनर के नमूने प्रस्तुत करने लगी। उसे शाकाहारी, मांसाहारी दोनों क़िस्म के व्यंजन बनाना ख़ूब आता था। केक, पेस्ट्री बनाने में तो वह किसी जानकार हलवाई को भी पछाड़ देती। घर की सजावट में उसने किसी प्रकार की कोर कसर न छोड़ी। कोई भी महिला पत्रिका की संपादिका मानसी से लेख पाकर अपने को धन्य महसूस करती। ख़ास बात यह थी कि ये सब करने के लिए उसे बजट से बाहर जाना नहीं पड़ता था। असल में मानसी बिल्कुल ख़र्चीली न थी। माहौल को मनोरंजक बनाने के लिए या आशीष के अनुरोध पर वह कभी-कभी गाना गा लेती थी। उसका सकारात्मक रुख़ बातचीत से भी पता चल जाता था। "चलो, ऐसे करते है'', "कोई बात नहीं, इसे फ़ुर्सत में कर लेंगे'', "दो-चार गुलदाउदी लगा लेते हैं और इस साल नुमाइ में भाग लेंगे'', "टहलने के लिए सुबह के बदले शाम का वक्त कैसा रहेगा?''---इस प्रकार अपनी सूझबूझ, कल्पनाशीलता के सहारे मानसी वक्त को और अधिक दिलचस्प बनाने लगी थी।

               साल भर आशीष दंपति गुफ़्तगू करते रहे। कभी घर के मसले तो कभी बाहर की ख़बरें, कभी फ़िल्म संबंधी तो कभी क्रिकेट से जुड़ी, कभी कुछ करने की योजनाएँ तो कभी समाप्त हुए कार्यों पर चर्चा। पर जो बात आशीष अक्सर करता, वे थे उसके तजुर्बे पर आधारित क़िस्से। उसे विश्वास था कि ऐसा करने पर बातचीत ख़ूब जमेगी। वह बातों को कभी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं करता था बल्कि वे सब स्वतः स्फूर्त होती थीं। पुरानी बातों को अक्सर दोहराने की आवश्यकता होती है और आशीष को यह भली-भाँति ज्ञात था। अतः, वह अपनी सारी बातों को सच पर ही आधारित रखता था ताकि जाने-अनजाने अगर किसी बात को दोहरा भी दिया तो उसमें अंतर्विरोध प्रकट न हो। मानसी को अपने पति की स्पष्टवादिता, सच्चाई के प्रति उसकी अटूट श्रद्धा अत्यंत पसंद आई। उसे वे सब क़िस्से मज़ेदार लगते थे जिनमें उसके तमाम दोस्त हमदर्दी जताने के बहाने उसे नसीहत दिया करते थे यानी उसे बुद्धू बनाते से चलते थे। आशीष सुनाता था और मानसी हँसती थी। हँस-हँस कर लोट-पोट हो जाती थी।

               बातों का असर मानसी पर पड़ने लगा था। वह मन ही मन खुद से सवाल करती, "मैंने आशीष से शादी कर उस पर कोई मेहरबानी तो नहीं की? परंतु मेहरबानी कोई भी लड़की कर सकती थी, यानी जिसके साथ बेचारा शादी करता, वह उसकी झोली में प्यार की भीख डाल देती।'' एक पल बाद फिर सोचती, "नहीं, यह नहीं हो सकता; हर कोई मुझ जैसी नसीब वाली नहीं हो सकती है कि उसे आशीष जैसा नादान पुरुष मिलता?'' अब मानसी का दिल करुणा से भर गया। उसे लगा कि आशीष का दिल निहायत ही नाज़ुक है और उसे हर कोई ठुकरा सकता है। उसे निरंतर जज़्बाती सुरक्षा मिलनी चाहिए। इसे मुहैया कराना किसी साधारण औरत के बस की बात नहीं, वह सिर्फ़ मानसी ही कर सकती है!

               शादी की सालगिरह एक सप्ताह बाद आने वाली थी और उस मौक़े पर आशीष दंपति कुछ ख़ास करना चाहते थे। अब वे जिस हर में थे, वहाँ मानसी दो साल पहले पढ़ती थी। उसे मालूम था, किस होटल में एक अच्छी-सी पार्टी का इंतज़ाम किया जा सकता है और किस तरह मेहमान अधिक ख़ु होंगे। तदनुसार वे तैयारी में लग गए। दिल की आकृति में एक चाकलेट केक बनेगी और वह आकर्षक तरीक़े से सजेगी। और डिनर के लिए क्या-क्या चुनना है, मानसी से बेहतर कौन जानता? शादी से पहले यार-दोस्त अपने-अपने जन्म-दिन पर मानसी से ही सलाह लिया करते थे। ख़ैर, सजावट के लिए ट्यूलीप, ऑर्किड जैसे महँगे फूलों की आवश्यकता थी। पार्टी में मेहमानों के लिए कीमती राब और मृदु पेय दोनों का इंतज़ाम करना था। गाना-बजाना भी होना चाहिए। सो, मानसी ने इस दर्मियान अपने पसंदीदा चार-पाँच गानों का रियाज़ कर लिया। मेहमानों की फ़रमाइ तो टाली नहीं जा सकती, बेहतर होगा कि पहले से ही तैयार रहा जाए।

               शीष मन ही मन ख़ु था कि इस पार्टी में वह अपने तमाम दोस्तों को बुलाएगा और वे लोग अपनी-अपनी बीवियों के साथ उसके यहाँ तरीफ़ लाएँगे। फिर सबको पता चलेगा कि आख़िर में किसका पलड़ा भारी है? वो दिन भी याद करेंगे, जब आशीष को वे लोग प्यार के नाम पर बुद्धू बनाते थे, उसे कैसे-कैसे उपनाम दिया करते थे। अब वह मानसी के प्यार की कशती में अपनी सारी असफलताओं का दरिया लाँघने जा रहा है। अब वे लोग किनारे बैठकर टुकुर-टुकुर ताकते रहेंगे।

               शीष ने अपने आप एक सूची तैयार कर ली कि वह किस-किस को बुलाएगा। वे सब सिर्फ़ उस हर के ही नहीं होंगे, कई लोग दूर से भी आएँगे। आशीष को विश्वास था, वे लोग ज़रूर आएँगे। अब तक उन्हें पता चल गया होगा कि कल का बुद्धू आशीष आज हर के सबसे सुंदर औरत का पति है। जो लोग जलते होंगे, उन्हें उन लोगों का कौतूहल खींच लाएगा।

               शीष मानसी के पास गया। "लो, देखो, मैंने तक़रीबन सारे दोस्तों की लिस्ट बना डाली। अब तुम अपने दोस्तों के नाम जोड़ दो। आज से कार्ड बाँटना शुरू कर देंगे।''

               "मैं तो किसी दोस्त को बुलाने की नहीं सोच रही हूँ,'' मानसी बोली।

               "पर क्यों?'' शीष ने पूछा।

               "कोई ख़ास वजह नहीं। बस, ऐसे ही,'' मानसी ने उत्तर दिया।

               शीष अपनी बीवी के निर्णय पर और प्रश्न करना नहीं चाहता था। उसको तो अपने दोस्तों को जलाने के अलावा और कोई मक़सद दिखाई नहीं पड़ता था।

               पार्टी बेहद सफल रही। निमंत्रित मेहमानों ने छक कर खाया, पिया, गाने गाए और मानसी की सुंदरता, संगीत प्रतिभा, सजावट की तारीफ़ करते गए। आशीष सुनकर ख़ु हुआ पर थोड़ा-सा चिंतित भी। "यह कैसी बात है कि तमाम दोस्त सिर्फ़ मानसी की ही तारीफ़ करते हैं? अगर सारे के सारे दोस्त मानसी की तारीफ़ करने लगे, तो क्या उन लोगों की औरतों में से किसी को भी ख़्याल नहीं आया कि तारीफ़ का एक और हक़दार भी वहाँ मौजूद है?''

               ख़ैर, ये सब दिमाग़ में रखने वाली बात नहीं थी। साल भर प्रतीक्षा के बाद पार्टी आख़िर में हुई और बख़ूबी निपट गई। यह आशीष के लिए कम बड़ी बात नहीं थी।

               पर उसे एक बात भुलाए नहीं भूलती थी, "इतने बड़े हर में जहाँ मानसी का बचपन गुज़रा था, क्या पार्टी में बुलाने के लिए उसका कोई दोस्त न था?''

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मुजफ़्फ़रपुर

    01-08-2009

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2 Comments:

Anonymous Anonymous said...

बहुत सुंदर रचना सर

1:08 AM  
Blogger The Unadorned said...

ब्लॉग में प्रकाशित कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया रखने हेतु मैँ आभारी हूँ ।

1:34 AM  

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