The Unadorned

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Thursday, July 07, 2016

सूबेदार और ज़मींदार


सूबेदार और ज़मींदार
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श्रीमान्‌ भारतेन्दु वहिदार आख़िर में अपने राज्य में आ ही गए। अपनी पैंतीस साल की नौकरी के दौरान उन्होंने अपने राज्य के सिवा और कई जगहों में काम किया, पर वे इतने खुशनसीब न थे कि इससे पहले अपने राज्य में किसी पद पर काम कर सकें। ख़ैर, देर ही सही, अब काम तो बन गया। वहिदार साहब आकर मध्यराष्ट्र परिमंडल में चीफ़ पोस्टमास्टर जनरल बन गए। जगह थी अपनी, भाषा भी अपनी, फिर भी शुरू में उन्हें सब कुछ नए लगे। मध्यराष्ट्र सूबे की राजधानी रामेशवरनगर में डाक परिमंडल का मुखिया बनकर वे सचमुच आत्म-विभोर हो गए। कार्यालय-भवन की दूसरी मंज़िल में स्थित अपने कमरे के झरोखा से बाहर गगनचुंबी इमारतों का नज़ारा देखकर, लोगों का बधाई-संदेश पढ़कर, चाहनेवालों से सुगंधित गुलदस्तों को स्वीकारकर, पुराने दोस्तों का हाल-समाचार सुनकर उन्हें नौकरी करने का सच्चा सुख प्राप्त होने लगा।

ख़ुशी का दौर ख़त्म होते ही वे काम में लग गए। अपने राज्य में डाक संस्था का मुख्य होने पर कुछ कर गुज़रने का ख़्याल उनको शुरू से ही था। आज उस सपने को साकार करने का मौक़ा आ गया। कम-से-कम समय में वे अपने कार्यक्षेत्र से संबंधित न्यूनतम जानकारियाँ हासिल कर लेना चाहते थे। अपने पैंतीस साल के तजुर्बे से वे विभाग के बारे में ऐसा बहुत कुछ जानते थे जो जगह बदलने पर भी बदलते नहीं। एक डाक कर्मचारी अपने विभाग से क्या चाहता है, उसे उसे किन-किन कार्यों में महारत हासिल है, अपने वरिष्ठ अधिकारियों से उसे क्या-क्या अपेक्षाएँ हैं, डाक सेवा को लेकर लोगों की अच्छी-बुरी क्या धारणाएँ हैं---वे सब मालूम थीं वहिदार साहब को। फिर नई जगह में काम करने में उन्हें क्यों अड़चन आती?

साहब की असली अड़चन कार्यालय से नहीं बल्कि घरेलू उलझन से थी। अब तक नौकरी में पैंतीस साल गुज़र चुके थे पर वे अपने लिए एक मकान भी नहीं बनवा पाये। आर्थिक दृष्टि से वे इतने कमज़ोर न थे कि दो-तीन कोठरीवाला एक आवासीय भवन नहीं बनवा पाते, मगर वे सोचते थे, 'बेमतलब घर किसके लिए बनाऊँ? क्या अपनी मेहनत की कमाई को लगाकर किरायेदार को आराम पहुँचाऊँ?’

सेवा की अवधि अब एक साल में ख़त्म होने वाली है। वे अपनी इस माँग को और टाल नहीं सकते। उनकी धर्मपत्नी भी चाहती थीं कि कैसे भी हो अपना मकान इस एक साल के अंदर बना लिया जाए, नहीं तो इसके बाद कहाँ जाएँगे? जैसे ही वहिदार साहब सेवानिवृत होंगे, नए चीफ़ पोस्टमास्टर जनरल सरकारी आवास में रहने आ जाएँगे। शिष्टाचार के लिहाज़ से वहिदार दंपति को यह आवासीय भवन नए चीफ़ पोस्टमास्टर जनरल के आने से पहले छोड़ देना सही रहेगा। तब वहिदार साहब बेघर हो जाएँगे। रहने के लिए उन दोनों पति-पत्नी को क्या अपनी बेटी और जमाई के पास जाना पड़ेगा? उनको तो अपना बेटा नहीं था, अगर वह भी होता भगवान जाने वह कैसा होता ! आमतौर पर आजकल बेटे लोग अपने माँ-बाप की ख़ुशी का इतना ख़्याल नहीं रखते।

श्रीमान्‌ भारतेन्दु वहिदार, मध्यराष्ट्र परिमंडल के चीफ़ पोस्टमास्टर जनरल ने आख़िर में मकान बनवाने का मन बना लिया। अपने करीबी अधिकारियों के साथ बातचीत करते वक्त उन्होंने अपनी इस योजना के बारे में बता दिया। उन लोगों में जिनको घर बनाने का तजुर्बा था, वे लोग वहिदार साहब से इस संबंध में बातें करने लगे। ख़ैर, ऑफ़िसर को जो पसंद है, कर्मचारी वही बात करते हैं। उन्हें अगर शतरंज खेल में शौक़ होता, तो कर्मचारी उनके साथ शतरंज की गूढ़ चालों के बारे में बातें करते; उन्हें शायरी में दिलचस्पी रहती, तो वे लोग रोज़ नई-नई शायरी लाकर उन्हें भेंट देते। ऑफ़िसर अब घर बनाने को मन बनाया, सो लोग उनके साथ इर्टं-सीमेंट की चर्चा करने लगे।

मगर बात सिर्फ़ इर्टं-सीमेंट की न थी। घर बनाएँ, तो कहाँ बनाएँ, जब वहिदार साहब के पास ज़मीन ही नहीं। सबसे पहले उन्हें ज़मीन ख़रीदनी थी, फिर मकान बनाने का दौर शुरू होता।

लोग कहते हैं, ज़मीन, औरत और विद्या भाग्य में ही लिखी होतीं हैं, पर उस भाग्य को पढ़ने वाला तो वहिदार साहब के पास आ ही नहीं सकता था। साहब इन सब बातों पर कतई विश्वास नहीं करते थे। एक ही रास्ता बचा था और वह था किसी बिचौलिये के मार्फ़त ज़मीन लेना। आख़िर में साहब को वही करना पड़ेगा। सचमुच वे ऐसा ही सोच रहे थे।

किस्मत से साहब को खबर मिली कि अपने परिमंडल में किसी अतिरिक्त विभागीय डाक वाहक श्री रूँगटा विराग ज़मीन ख़रीदने में सहायता कर सकता है। वह कर्मचारी एक बिचौलिया था, पर अपने विभाग में इतने बड़े अधिकारी के साथ व्यापार उसने पहले कभी नहीं किया था। आज एक ज़बरदस्त मौक़ा उसके हाथ लग गया।

अक्सर अतिरिक्त विभागीय कर्मचारी देहात में डाक संचालन करते हैं और चीफ़ पोस्टमास्टर जनरल जैसे बड़े ऑफ़िसर से मिलने का अवसर उन्हें कम मिलता है। लेकिन श्री रूँगटा विराग इन लोगों से भिन्न था, जो खुद को किसी उच्च अधिकारी से कम नहीं समझता था। शहर के उपांत स्थित एक डाकघर में वह काम करता था और डाक लाने व ले जाने के लिए वह रोज़ शहर आना-जाना करता था। तब विकास और शहरीकरण के दौर में रामेशवरनगर आकार और आबादी दोनों में बढ़ने लगा था और देखते ही देखते रूँगटा का डाक घर भी शहर के अंदर समा गया। रूँगटा ने इस बदलाव को अच्छी तरह समझ लिया। उसने अपने लिए एक नया उप-धंधा चुन लिया। इस प्रकार श्री रूँगटा विराग बन गया एक विचक्षण बिचौलिया! पिछले पंद्रह साल में दिमाग़ के बलबूते  उसने कितनों को बुद्धू बनाया, कितने कागजात को असली-नक़ली किया, कितने लोगों से अग्रिम लेकर लौटाने में विलंब किया--इसका हिसाब नहीं। ऐसे लोग जो रूँगटा से अपने पैसे वसूलने में नाकामयाब रहे, उन लोगों ने आकर डाक मंडल अधीक्षक से रूँगटा की शिकायत की, पर नतीजा कुछ न निकला। हाँ, एकाध अनुशासनात्मक कार्रवाई तो शुरू कर दी गई, पर इन सब मामले में गवाह भी तो चाहिए! शुरू-शुरू में कुछ मार-धाड़ अवश्य हुए, मगर आजकल रूँगटा अकेला नहीं है। अब न पुलिसवाले कुछ कर सकते हैं, न विभागीय अधिकारी । कौन, क्या बिगाड़ सकता है उसका?

आज जैसे ही वहिदार साहब ने रूँगटा को अपने पास बुलाया उसने सज-धज कर परिमंडल कार्यालय में दस्तक दी। सफ़ेद कुर्ता, सफ़ेद धोती और इत्र से महकता हुआ लाल पट्टीवाली चद्दर---वह एक पहुँचा हुआ तृणमूल राजनीतिज्ञ जैसा लग रहा था। साहब के कमरे में आकर बैठने के लिए उसने इजाज़त लेना ज़रूरी नहीं समझा; ऐसे ही कुर्सी पर बैठ गया। चीफ़ पोस्टमास्टर जनरल श्रीमान्‌ वहिदार साहब को रूँगटा का इस प्रकार का हाव-भाव कुछ अच्छा नहीं लगा, पर वे क्या करते? उन्होंने सोचा, 'इस लोकतंत्र की दौर में तहज़ीब आज़माने से बहुत पहले लोग ऐसे ही ऊपर तक पहुँच जाते हैं। फिर रूँगटा की बात तो अलग है; वह मुझे कुछ देने आया है, लेने नहीं! आज अगर मैं अपनी अधिकारीगिरी थोपने लगूँ तो सेवानिवृत होने तक घर कैसे बना पाऊँगा?’

प्रारंभिक बात के सिलसिले में रूँगटा ने बहुत कुछ कहा। किन-किन बड़े लोगों के साथ उसका उठना-बैठना होता है, हाल में किन-किन लोगों को उसने ज़मीन दिला दी, कहाँ उसका अपना तीसरा मकान बन रहा है, वगैरह, वगैरह। बीच में टोके वगैर चीफ़ पोस्टमास्टर जनरल श्रीमान्‌ भारतेंदु वहिदार सब सुनते गए, बिल्कुल एक आज्ञाकारी छात्र जैसे।

'हाँ जी, भगवान की कृपा से मुझे अभाव नहीं है। मैं आपसे कोई कमीशन की अपेक्षा नहीं रखता हूँ, फिर भी....ज़मीन के मामले में लोग कुछ-न-कुछ अग्रिम चाहते हैं,’ अब रूँगटा मतलब की बात करने लगा।

'नहीं, मेरे ख़्याल में अग्रिम देकर बात को उलझाना ठीक नहीं होगा, रूँगटा जी। क्या इसके बिना काम नहीं बनेगा?’ आख़िर वहिदार साहब ने अपनी शंका स्पष्ट कर दी।

ऐसा लगता था कि साहब की बात रूँगटा को पसंद न आई। वह एक मिनट के लिए चुप रहा। उसे अब पता चल गया था कि मामला यहाँ फ़िट होने वाला नहीं है। फिर जाने से पहले कुछ ऐसे कहकर निकल पड़ा, 'मैं कोशिश करके देखता हूँ, पर क्या करूँ, आजकल ज़मीन ख़रीदने के लिए लोगों की मारामारी ! फिर भी...

साहब ने बिचौलिया से तो मिल लिया, पर वे उस शख़्स पर इतनी आसानी से भरोसा नहीं कर पाये। इस दर्मियान रूँगटा की नीयत के बारे में वे कुछ खोज-बीन भी कर चुके थे। सूचना के आधार पर वे जोखिम उठाने के पक्ष में न थे। दूसरी ओर उन्होंने ऐसा भी सोचा, 'ज़मीन क्या साबुन, टूथ-पेस्ट जैसा सामान है जिसे किसी दूकान के काउंटर पर ऐसे ही ख़रीदा जा सके! क्या पहले सामान, फिर बिल, फिर भुगतान--ऐसे ज़मीन का भी सौदा होना चाहिए? अगर मैं अपनी सोच में थोड़ा-सा ढील न दूँ, तो यह भी हो सकता है कि कोई भी ज़मीन बेचने वाला मेरी तरफ़ नज़र उठाकर देखेगा ही नहीं। लोग जानते हैं कि मैं बड़ा अधिकारी हूँ, पर इससे ज़मीन बेचने वालों को क्या लेना-देना?’

श्रीमान्‌ भारतेन्दु वहिदार अपनी बीवी की राय पर भरोसा करते थे। दुनियादारी में औरतों का कोई मुक़ाबला नहीं। मर्दों की अक़्ल को कैसे निखारना है, यह उन्हें बचपन में ही सिखाया जाता है। आज वहिदार साहब ने तय कर लिया कि अगर उन्हें और आगे जाना होगा, तो साथ में अपनी बीवी की सलाह होना निहायत आवश्यक है।

ऐसा लगता था कि श्रीमती वहिदार को घर बनाने की जल्दी थी। उन्होंने अपने पति को बिचौलिए के मार्फ़त ज़मीन ख़रीदने की सलाह दे दी। साथ में कुछ अग्रिम देने को भी कह दिया। वैसे तो उन्होंने स्पष्ट नहीं किया था कि राशि कितनी दी जानी चाहिए। अगर वहिदार साहब अपनी श्रीमतीजी से पूछ बैठते, तो कोई ज़रुरी नहीं कि वे अपनी राय स्पष्ट करती। आखिर में औरत यह भी जानती है कि सलाह देने के मामले में किस हद तक जाना चाहिए। हर मामले में बीवी को आधी ही ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए न कि पूरी !

रूँगटा को अग्रिम मिल गया और वह ज़मीन ख़रीदने में जुट गया। वैसे तो उसके पास दो-तीन प्रस्ताव थे, पर वे सब वास्तु के हिसाब से सही न थे। फिर वह कैसे उस घटिया क़िस्म की ज़मीन अपने उच्च अधिकारी को दिलवाता?

समय बीतता गया। दो महीने क्या, दो साल भी काफ़ी नहीं होते हैं, एक ऐसी ज़मीन तलाशने के लिए जो हर दृष्टि से शुभकारी हो। यहाँ वहिदार साहब की नौकरी भी ख़त्म होने जा रही थी। उनमें शंका आने लगी, 'अगर ज़मीन खोजते-खोजते मैं सेवानिवृत हो जाऊँ, तो क्या रूँगटा मेरा पैसा लौटाएगा? पचास हज़ार रुपये कुछ कम नहीं होते हैं! अगर रूँगटा ने मेरा पैसा नहीं लौटाया, तो मैं  उसका क्या कर पाऊँगा?’

नौकरी के अंत में सेवानिवृत होना और ज़िंदगी के आख़िरी पड़ाव में मौत के साथ मुलाक़त होना, क्या कोई टाल सकता है? समय आने पर वहिदार साहब सेवानिवृत हो गए। उनके विदाई-समारोह में शामिल होने रूँगटा परिमंडल कार्यालय आया था। सबको मालूम था कि रूँगटा बिचौलिया साहब के लिए ज़मीन खोज नहीं पाया, लेकिन कोई यह नहीं जानता था कि क्या सचमुच रुंगटा ने साहब से लिया हुआ पैसा लौटा दिया? साहब ने भी इसके बारे में किसी से बात नहीं की थी। वार्तालाप के लिए उन्होंने और विषय चुन लिया, जैसे कि सूफ़ी संगीत, जादू सम्राट पी. सी. सरकार, एस्पेराँतो भाषा की सहूलियतें, रास्ते में कुत्तों का प्रादुर्भाव, ऐसे कई और, पर ज़मीनवाली बात पर मानो फूल स्टॉप ही पड़ गया था। वाह वहिदार साहब, मन बहलाना तो कोई आपसे सीखे!
 
अरे, हाँ। साहब अपनी नौकरी के आख़िरी दो-तीन महीनों से ज़रूर कार्यव्यस्त थे। उन्होंने अपनी पैतृक ज़मीन पर घर बना लिया था। अपने इस निर्णय के पक्ष में वे बोलते थे, 'आजकल गाँव में क्या अभाव है? बिजली, पानी, सड़क, केबुल टी. वी., मोबाइल फ़ोन, इंटरनेट---सब  मिलते हैं, गाँव में। अगर चैन से समय गुज़ारना है तो गाँव लौटकर आज़मा के तो देखिए।'
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By
A N Nanda
Trivandrum
07-07-2016
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3 Comments:

Anonymous Rawat Public School said...

Nice post

8:04 AM  
Blogger Break the silence...! said...

Good one...! One should trust the instinct sometimes 👍

9:52 AM  
Blogger Unknown said...

सहज और सुंदर रचना, बिना किसी कृत्रिमता के ।
बधाईयां

11:58 PM  

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