The Unadorned

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Tuesday, September 13, 2016

Hindi Poem: कुछ मुकम्मल सा....



कुछ मुकम्मल सा...
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कहा न !

आप खुश हो नहीं सकते

बगैर इजाज़त के मेरी 

यह फरमान है मेरा, समझे ?

मियां ! क्या ख़बर ?

बहुत खुश लगते हो, सुबह-सुबह

ज़रा मुझे भी तो पता चले !

रख कर रूमाल मूंह पर, रात में

सोना अब ज़रूरी हो गया

क्या पता, सपनों में बवाल मच जायेंगे?

आजकल वे लोग ख़ामोश होना पसंद नहीं करते

बड़े जोशीले हैं वे

आते हैं ख़ामोशी से सज-धज कर

पर आ कर शोरगुल मचा देते हैं ।

डायरी मेरी बिलकुल कोरी है

उसमें जो गुलाब पंखुडियों से बने निशान

अब मैं उनका क्या करूं ?

कुछ गलती तो नहीं हुई ?

अक्सर चिंतित हूँ मैं  

सपने गुज़र जाने के बाद...

घर्राट बन कर घूमते जाना धरम है मेरा

क्या फर्क पड़ता है

कूल से पानी सूख जाये फिर भी...

क्या फर्क पड़ता सूखी बावड़ी में

मोतियों के बगैर अब

बेजान सीप ही सोया है ?  

अच्छा होता अगर

मैं द्विखंडित हो जाता

मैं और मेरा ऑल्टर ईगो

मैं कहीं भी जाऊं कम से कम

मैं तो यहाँ भी मौजूद रहता !

जैसे आसमान में चाँद

फिर भी मेरे प्याले में भी

चांद का यहाँ घूमना नि:संकोच

थोड़े न पता चलता होगा

उन चमकते हुए सितारों को ?   
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By
A. N. Nanda
New Delhi
13-09-2016
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