जाते-जाते
जा ते - जा ते
समझता हूँ मैं जो तुम सोचती हो
अपनी भावना की गठरी से कुछ तो मेरी तरफ़ बिखेरती होंगी
है कहीं फासला तुम्हारी सोच और मेरी समझ के बीच ?
सब तो आते हैं मेले में,
आखिर मक्सद एक ही होता है
पर पहनावे में फर्क है क्योंकि
पहनते हैं हम जान-बूझकर,
करते हैं औरों को गुमराह
पर तुम जानती हो मेरे आने का मक्सद
और मैं जानता हूँ तुम्हारा ।
आ कर मेले में खाली हाथ लौटना मंजूर नहीं मुझे
तुम्हे भी एतराज़ है यात्रा तुम्हारी निष्फल हो रही है
सजधज कर, फिर घर से इतना दूर !
चलो, ले लेते हैं एक दुसरे का बोझ
और चल पड़ते हैं अपने-अपने घरों में ।
अपनी-अपनी चूल्हे-चक्कियाँ करती हैं इंतज़ार....
घर बैठे, उन सबों के साथ
अंतरंगता के वही पुराने पन्नों को सहला कर
सोचते जाएंगे
मेले में कुछ भूल तो नहीं गए !
समझता हूँ मैं जो तुम सोचती हो
अपनी भावना की गठरी से कुछ तो मेरी तरफ़ बिखेरती होंगी
है कहीं फासला तुम्हारी सोच और मेरी समझ के बीच ?
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By
A N Nanda
Shimla
27-03-2015
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Labels: Hindi Poems