The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Tuesday, May 27, 2014

From Truth to Untruth


सच से झूठ तक


शिमला में लोग अच्छे होते हैं—यह सच है ।

सिर्फ शिमला के लिए ही क्यों, यह बयान तो सारे हिमाचल पर लागू है । मेरा एक साल का अनुभव ऐसा कहता है। यहाँ के लोगों की वेशभूषा, रहन-सहन, नाच-गान, लज़ीज पकवान, ज़िन्दगी के प्रति सकारात्मक नज़रिया, ईश्वर भक्ति—सब कुछ खुलेपन और ज़िन्दादिली का अहसास ज़रूर दिलाता है । सचमुच, ईश्वर ने अपने लिए एक मन-पसंद बसेरा बनाने हेतु यहाँ के लोगों को काम सौंपा होगा ।

शिमला में मेरे एक साल के निवास की अनुभूति...और भी कुछ कहता है ।

इसी एक साल के दरमियान मैं कई बार लोअर बाज़ार की तरफ़ गया होगा । वहाँ एक दुकान है—एक ख़ास दुकान—जो भुना हुआ चना और नमकीन बेचता है । दुकान का नाम कुछ भी हो, आखिर नाम में क्या रखा है ? चलो उसे मुरमुरे वाले ही कहते हैं। जब भी उसके सामने हो कर गुजरता, कोई काम हो या न हो, मैं उस दुकान की ओर ताकता ज़रूर हूँ । वजह यह है कि मैं देख लेना चाहता हूँ क्या इस बार मुरमुरे वाले किसीको डांटता तो नहीं? पर हमेशा वही बात—या तो वह नौकर को डांटता होगा या करता होगा ग्राहक की उपेक्षा । अगर वह नहीं तो ज़रूर वे लोग आपस में दुकान के अन्दर बातें चबा चबाकर करते होंगे । अक्सर, जब मैं वहाँ से कुछ खरीदता हूँ, दुकानदार मेरा सामान तौलने के साथ-साथ किसीको डांटने का काम भी जारी रखता है । एकाध बार मैंने सोचा भी था कि उस मुरमुरे वाले को कुछ नसीहत दे ही दूँ, कह दूँ कि वह तुरंत जा कर कुछ तमीज़ का बंदोवस्त कर लें, परन्तु ऐन वक्त पर मैं अपने को संभाल लेने में सक्षम हो जाता था । फिर सोचने लग जाता कि वह मुझे तो डांटता नहीं, फिर किस वजह से अपने सर पर आफ़त लूँ?

कल की बात । आखिर में, मैं भी उसके पल्ले पड़ गया । सौ ग्राम चने का भाव बीस रूपए है । और मैंने सौ ग्राम तौलने को कहा । वज़न मशीन इलेक्ट्रोनिक की थी । मुरमुरे वाले (जूनियर) ने ऐसा तौला, ऐसा तौला कि मुझे पता न चला क्या सचमुच उसने सौ ग्राम दिए हैं या उससे कम । सो, मैंने उससे फिर से तौलने को कहा ।

हालाँकि उसने मेरे कहने पर ऐसा ही किया और वज़न बिलकुल सही निकल गया पर, तौबा-तौबा, मैंने तो अनजाने में पाप ही कमा लिया । मेरे जैसे अक्खड़ को उसने माफ़ किया होता तो बात कितनी अच्छी होती । उसे इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए थी । वह शिमला में सिर्फ अच्छे लोग रहने की बात का फिर एक सबूत प्रस्तुत कर लेता । परंतु अब जो कुछ भी हो गया, उसके हिसाब से वह उसकी हार था। जब तक वह मुझे एक लोभी ग्राहक का दर्ज़ा देकर कुछ दुर्वचन न कह लेता, वह अपने कलेजे को भी कैसे ठंडा करता भला?    

‘देख लो, सौ ग्राम है या नहीं ? अब लेना है तो लो नहीं तो...,’ मुरमुरे वाले ने उपहास किया ।

‘आपका क्या ख़याल है ? अब देना है तो दो नहीं तो...,’ मैंने उसकी बे-अदबी की बराबरी करने की एक छोटी कोशिश की ।

‘सामान सामने पड़ा है । बीस रूपए दो और सामान उठाओ,’ दुकानदार की आवाज़ अब ऊँची थी ।

‘क्या आप चाहते हैं कि आपकी दुकान से यह मेरी आखिर खरीद हो?’ मैंने प्रश्न किया ।

‘तुम्हारी मर्ज़ी । हमें क्यों पूछते हो? हम बुलाने नहीं जाएंगे,’ उसने अपना आखिर जवाब सुना दिया । अब एक भी फालतू लफ्ज़ मेरे लिए महंगा साबित हो सकता था । सो, मैंने वहाँ से भाग जाना मुनासिब समझा ।

* * * *

अब तक मैंने जो कहा, सच ही कहा । फिर भी, कुछ और भी कहना बाकी है ।

मैंने चने का पैकेट उठाया और चल पड़ा । बदतमीजी से आहत, अपमानित, नपुंसक क्रोध से सुलगता हुआ दिल लेकर मैं धीरे-धीरे बढ़ता गया । क्या मैं कुछ कर सकता हूँ? शायद कुछ नहीं, अन्दर से जवाब मिला । वह बिलकुल ठीक था क्योंकि मैं जानता था कि घर जा कर, चने खा कर मैं यह हादसा भूल जाऊंगा । फिर कुछ दिन बाद मुरमुरे वाले से नमकीन खरीदूंगा, वह मुझे खरी खोटी सुनाएगा, आँखें नीली-पीली करेगा, और यह सिलसिला क़ायम रहेगा । मुझे ऐसे ही कई बार लोहे के चने चबाने पड़ेंगे ।

मैं कर भी क्या सकता हूँ?

बहुत कुछ—जवाब मिला । मेरे बढ़ते कदम रुक गए । क्या सचमुच मैं कुछ कर सकता हूँ?

मैं लौट आया उस दुकान के सामने । मन में एक निश्चित योजना अंजाम की ओर बढती गई और मैंने वह चने का  पैकेट उस दुकानदार के सामने उड़ेल दिया । चने ज़मीन पर गिर कर गुरुत्वाकर्षण के अधीन हो गए और एक एक कर लुढ़कने लगे। देखते ही देखते, फुदकते हुए ये सब दूर भाग गए, बहुत दूर ।

झूठ । तो और क्या ? जब सच कड़वा होता है, एकाध झूठ का सहारा तो लेना पड़ता है, भई ! सो अब मैं उस झूठ का बयान करने जा रहा हूँ ।

मैंने कसम खाई । अगर शिमला में रहते हुए ऐसा दिन देखना पड़े जब सारी की सारी दुकाने बंद हो जाएँ सिवाय मुरमुरे वाले की, और भूख से तड़पते हुए मेरे सामने उस दुकान की ओर जाने का एक ही विकल्प ही बच जाए, फिर भी मैं वहाँ नहीं जाऊंगा । नहीं जाऊंगा, नहीं जाऊंगा। कतई नहीं ।  
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By
A N Nanda
Shimla
27-05-2014
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Sunday, May 25, 2014

Two Poems to Translate

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It could be a point to ponder: Does translation afford a translator the same pleasure as what the author would have derived while creating the original work? Well, this could be a question like, do I see the same colours as others see? The answer could be anything: both yes and no. I have been doing both for my blog--writing and translating. And I have really enjoyed translating stuffs that are originally enjoyable. Here are the two poems of the famous Oriya poet Smt Rasmi Raul. She has to her credit some thirty works, in almost all genres beginning from poetry to short stories to novels, and they are the works of substance, liked by both her readers and critics. Simplicity, lucidity, poignancy, nostalgia are the hallmarks of her work. She has got Sahitya Academy Award in Oriya literature for her magnum opus: "Eithi Gote Gan Thila", There was a Village Here. During her recent visit to Shimla I enjoyed talking and listening to her, and on my request she had given me some of her poems to translate. Just to test if I can do that, let me begin here.
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Two Poems
 
Original Odiya poems by Rasmi Raul,
[ Published in Sagarika, October 1992 ]
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I - City
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An expression of just two syllables
Softness squeezed out,
A voice so very raucous,
dry and hoarse
It could be a raga malkosh,
its beauty banished
Or could be dhrupad,
its tune jarred
A locality that teems with
Souls unconnected,
City! It’s thy name.

II - Village
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A word so tuneful, so very endearing
It’s raga thoomri or it could be a ghazal
A soulful lilt wafting from distance
Mellifluous, moist with languor.
Enriched by the coolness of shady trees
Enchanted by the charm of the soil
Like those incense sticks
Its aroma so very fragrant
Village—
It’s short and sweet; it’s thy name.
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श ह र

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तिन अक्षरों से बना यह महज़ एक शब्द

खूबसूरती से दूर, शुष्क, कर्कश

किसी मालकोस या ध्रुपद का रियाज़

जिससे कोमलता बिछुड़ गई है

इंसानी रिश्तों से बेखबर

अस्नेही मानवों का जमावड़ा

शहर! इसका नाम है ।


गाँ व
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एक सुरीला शब्द, कितना मनभावन !

जैसा कि ठुमरी या ग़ज़ल का तान  

अथवा दूर-दूर से बहता आया

मार्मिक संगीत का मूर्च्छना  

सौम्य-सुस्ती से भीगा मनोहर-सा अहसास ।        

पेड़ की छाँव से, मिटटी की कशिश से

अगरबत्ती की महक जैसी

छोटा-सा नाम- गाँव ।
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Translated By

A N Nanda

Shimla

25-5-2014
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Sunday, May 11, 2014

संकटमोचन तावीज़

संकटमोचन तावीज़
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[For English version of the story visit this link]

अपने दोस्त विशाल को इस प्रकार की गूढ़ जानकारी कहाँ से प्राप्त हुई, यह सोचकर बद्री बहुत हैरान था । आख़िर एक चोर, चोर ही होता है और एक चोर को पकड़ने के लिए उसी का दिमाग़ लेकर सोचना पड़ता है । आज विशाल ने जिस प्रकार मामले को सुलझाया, लगता था कि वह कोई असली चोर से कम नहीं ।

बद्री का जब अपना पर्स खो गया तो उसने इस घटना को एक अपशकुन माना क्योंकि रुपयों के साथ-साथ वह उसमें रखा आशीर्वादवाला तावीज़ भी खो बैठा था। यह तावीज़ बद्री को एक सिद्ध पुरुष ने दिया था जो उसे हर संकट से बचाता था। पिछले दस सालों में वह कितने हादसों से बाल-बाल बचा, कितने झगड़ों से छुटकारा पाया, इसका कोई हिसाब न था । आज उस तावीज़ को खोते ही उसे एक आसन्न ख़तरे का पूर्वाभास-सा होने लगा । पता नहीं, उसके साथ क्या-क्या होने वाला है !

बद्री अब भी समझ नहीं पाया कि उसने अपना पर्स कैसे खो दिया । कल तो वह किसी भीड़-भाड़वाले बाज़ार में गया भी नहीं था । हाँ, वह कल मंदिर गया था जहाँ लोग पूजा-पाठ के लिए कुछ ज़्यादा संख्या में आए थे । फिर भी उसे भीड़ नहीं कहा जा सकता, और मंदिर में आने वाले भक्तों पर तो चोरी का इल्ज़ाम लगाना सरासर ग़लत होगा। मंदिरों में कभी-कभार जूते-चप्पल चोरी हाते हैं--बस उससे ज़्यादा नहीं । तो कैसे अपना पर्स चला गया ?

जब शाम को विशाल घर लौटा तो बद्री ने उसे पर्स के खो जाने की बात बताई । इतना सुनते ही विशाल एक मिनट के लिए ख़ामोश हो गया । लगता था कि वह खुद को कुछ याद दिला रहा था । फिर बोला, 'पर्स के मामले में हम सब को सावधानी बरतनी चाहिए, यहाँ तक एक चोर को भी ।

पिछले दस साल से बद्री और विशाल अपनी दोस्ती निभा रहे थे । उस दिन बद्री, विशाल को टाटानगर रेलवे स्टेशन पर मिला था और वह थी दस साल पहले की बात । तब बद्री था मोटर पार्ट्‌स दुकान में एक मामूली-सा सेल्समैन । उस दिन, रात में वह स्टेशन गया था किसी से मिलने और ट्रेन के आने में देरी थी । प्लेटफ़ॉर्म की बेंच पर बैठे-बैठे ऊब गया था बेचारा । ठीक उसी समय विशाल आकर उसी बेंच पर बैठ गया । थोड़ी देर के बाद दोनों में बातचीत शुरू हो गई । बात से बात निकली और पता नहीं चला कि तीन घंटे कैसे गुज़र गए ।

विशाल तब कुछ कर नहीं रहा था । वह आया था वहाँ नौकरी की तलाश में । टाटानगर में नौकरी मिलती है--यह विश्वास तब अगल-बगल के इलाक़े के लोगों में था । पर विशाल के पास कोई तकनीकी ज्ञान तो था नहीं, जिससे उसे नौकरी ढूँढ़ने में सहूलियत होती । अंत में उसने भी एक छोटी-सी कपड़े की दुकान में सेल्समैन की नौकरी शुरू कर दी । इस दस साल के दौरान उसने कितनों के यहाँ नौकरी की और छोड़ी, उसका तो हिसाब नहीं, पर उसकी बद्री के साथ दोस्ती हमेशा अटूट रही ।

साथ-साथ एक कमरे में रहते थे वे दोनों । एक दिन बद्री खाना बनाता तो दूसरे दिन विशाल । बड़ी सूझबूझ थी उन दोनों में । एक को अगर बुखार लग जाता तो दूसरा उसकी सेवा करता । ऐसी थी उन दोनों की मित्रता ।

अपने दोस्त से सारी बात सुनकर विशाल बोला, 'छोड़ दो यह मनस्ताप और इससे एक सीख लो । चोरी मंदिरों में भी होती है ।

दरअसल, अब तक बद्री अपने दोस्त से नहीं बोला था कि कल वह मंदिर गया था। वह बोला, 'अरे हाँ, मैं तो कल मंदिर गया था, पर तुम्हें कैसे पता चली यह बात ? हो सकता है वहाँ चोरी हुई होगी ।बद्री को अपने सवाल के जवाब की प्रतीक्षा न थी । एक लंबी साँस लेकर वह फिर बोला, 'मैं दुखी नहीं हूँ कि पर्स से दो सौ रुपये चले गए । मैं तो दुखी हूँ...

विशाल को मालूम था कि उसके दोस्त को भाग्य, अपशकुन वग़ैरह चीज़ों में बेहद विश्वास है । अंधविश्वास ने उसे इस क़दर जकड़ लिया था कि वह पूरी बेचैनी से तड़पने लगा । उसे डर था कहीं उसके साथ कोई बड़ा हादसा न हो, या उसको नौकरी से हाथ न धोना पड़े । अगर यह सब कुछ नहीं होता तो उसके माता-पिता भी मर सकते हैं । सिद्ध पुरुष ने ऐसी ही कुछ चेतावनी दे रखी थी उसे । आज इसे टाला नहीं जा सकता ।

'बद्री, तुम इतने अंधविश्वासी क्यों हो ? चलो मैं कुछ करता हूँ,’ विशाल बोला ।

'अब तुम क्या करोगे ? जेबकतरों से पर्स कौन वापस ला सकता है ?’ बद्री ने निराशा की एक आह भरी ।

'अभी भी कुछ हो सकता है । मुझे मालूम है क्या करना,’ विशाल ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा ।

फिर दोनों दोस्त हनुमान मंदिर के बगलवाले डाकघर में जाकर वहाँ के एक कर्मचारी से पूछताछ करने लगे । उससे वे जानना चाहते थे कि क्या उन्हें कोई लाल रंग का पर्स लेटर बक्स में से मिला है ? कर्मचारी बड़े स्वाभाविक ढंग से बोला, 'पर्स, चाभी, पहचान पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस जैसी चीज़ें लेटर बॉक्सों में कभी-कभार मिल तो जाती हैं, पर आज हमें ऐसी कोई चीज़ प्राप्त नहीं हुई है ।

विशाल बद्री को लेकर डाकख़ाने के अंदर गया और वहाँ एक कोने में महीनों से पड़ी हुई चीज़ों पर नज़र डाली । सचमुच उनमें से कोई बद्री का पर्स न था । तो फिर चल पड़े दोनों दोस्त पासवाले एक दूसरे डाक घर की ओर ।

ऐसे तीन-तीन डाकघरों में पूछताछ करने के बाद, बद्री को अपने पर्स के बारे में पता चला । वहाँ के डाकपाल ने पर्स लौटाने के लिए सबूत माँगा । पर्स के अंदर एक संकटमोचन तावीज़ है, यह कहकर बद्री ने डाकपाल को सबूत दिया । डाकपाल ने पर्स खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक तावीज़ था । तावीज़ के साथ-साथ उन्हें एक सौ रुपये का नोट भी मिला ।

'वाह! यह कैसा चोर है जो पर्स में रुपया छोड़ देता है ?’ डाकपाल हँसते-हँसते बोल पड़े।

'डाकपालजी, वह नोट ज़रा-सा फट गया है और दो महीनों से मेरे पर्स में पड़ा हुआ है,’ बद्री ने कहा ।

'मैं जेबकतरों को जानता हूँ । उन्हें असली-नक़ली में फ़र्क़ ज़रूर मालूम रहता है,’ विशाल बोला। उसके होंठों पर एक 'मैं-सबजानता-हूँ’-सी मुस्कान फैल गई ।

बद्री जानता था कि पर्स में पड़ा नोट है बिल्कुल नक़ली । वह उसको कहाँ से मिला वह नहीं कह सकता, पर कैसे मालूम पड़ी यह बात अपने दोस्त को ?

चकित होकर वह विशाल की ओर रहस्यभरी नज़रों से देखता रहा । सोच रहा था, क्या दस साल काफ़ी न थे एक दोस्त को पहचानने के लिए ?
भुबनेश्वर,   दिनांक 05-08-2007





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By
A N Nanda
Shimla
11-05-2014
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