-----------------------------------------------------------
This is a very small story from my book "Virasat". And it was the opening story of that collection. The other day I had translated it to English in my blog [here]. I thought I can bring it here in its original form for those who had not got a chance to read the book. People with love for the old institution of post office that works for everybody whether he lives in hills or in the middle of the sea love this story--I've their feedback before me to give this statement. Hope my blog readers would like it too.
---------------------------------------------------------------------
बुखार
कार निकोबार----बंगाल की खाड़ी के बीचोंबीच
स्थित है यह द्वीप । काफ़ी छोटा है इसका भौगोलिक अस्तित्व,
जिसे मानचित्र में एक
बिंदु से ज़्यादा ठाँव नहीं दिया जा सकता । अगर इसके समुद्री किनारे किसी एक जगह से
शुरूकर बगैर पीछे मोड़े किसी को अपनी पूर्व जगह पर लौटना पड़े, तो उसे सिर्फ़ आधा
दिन ही लगेगा । गोल-सा भूखंड, इसकी तुलना एक प्याले के साथ की जा सकती है । चारों तरफ़
नारियल के पेड़ों की बड़ी तादाद--वही है वहाँ का जंगल और वही है वहाँ की खेती । बस, निकोबरी लोग उसी
पर निर्भर करते हैं, अपने गुज़र-बसर के लिए । और, समुद्र से मछली ? मानो, यह नहीं के बराबर । कौन पकड़ सकता है मछली, इतनी तेज़ समुद्री
स्रोतों के ख़िलाफ़ जाकर ?
इस छोटे-से द्वीप पर और द्वीपों की जैसी आबादी
कम नहीं है । लोग अपने ख़त वगैरह के लिए डाकघर पर निर्भर करते हैं । प्राइवेट
कुरियर ? ना बाबा ना, यह तो सिर्फ़
शहरोंवाली बात है । इतनी अगम्य जगह तक डाक ले जाने की बात तो वे लोग सोच भी नहीं
सकते । जाहिर है, कुरियर एक व्यापार है, न कि जनसेवा ।
भारतीय वायु सेना के सौजन्य से सप्ताह में दो
बार तो छोटी-छोटी डाक वस्तुएँ कार निकोबार तक पहुँचाई जाती हैं पर पार्सल आदि और
डाक वस्तुऑ को जहाज़रानी सेवा के ज़रिये वहाँ लाना पड़ता है । समुद्र किनारे स्थित
जेट्टी वहाँ इतना छोटा है कि हर जहाज़ वहाँ तक पहुँच नहीं पाता । मजबूरन उसको
किनारे से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर समुद्र में लंगर डालना पड़ता है । उधर एक
लोहे के निर्मित पॉन्टून पर सवारियों को उतरना होता है । इस प्रकार डाक थैले भी
वहाँ उतारे जाते हैं । थैलों को जहाज़ से डाकघर तक ले जाने के लिए एक कर्मचारी
तैनात है । हफ़्ता-दस रोज़ में एक दिन उसे कमरतोड़ परिश्रम करना पड़ता है और उस आदमी
के परिश्रम के फलस्वरूप द्वीप में डाक वस्तुएँ पहुँच जाती हैं ।
एक दिन की बात है । पीटर नाम के उस डाक वाहक को
थोड़ा-सा बुखार आ गया था और उस दिन ही कार निकोबार होकर जहाज़ एम. वी. चौरा को
गुज़रना था । डाकपाल और किसी को डाक लाने, ले जाने का काम सौंपने की स्थिति में न थे ।
दरअसल बात ऐसी थी कि चालीस-पचास रुपये दिहाड़ी में उस दिन कोई काम करने को तैयार न
था । उस दिन तो सबको सौ-दो सौ कमाने का मौक़ा ऐसे ही मिलना था, क्योंकि जहाज़ से
माल उतारने के लिए और उसे द्वीप तक ले जाने के लिए काम करने वालों की तादाद ज़रूरत
से कम थी । जिस्म में बुखार हो या सर में चक्कर, पीटर को ही जहाज़ तक जाना था और वहाँ से डाक
ढोकर लानी थी।
नवंबर का महीना था । मानसून अपनी वापसी गश्त
में निकोबार के लिए गजब की बारिश लाया था। हालाँकि उस जहाज़वाले दिन बारिश का
प्रकोप कुछ घट गया था, पर रुक-रुक कर बूँदा-बाँदी होती रही । जहाज़ ने आकर कार
निकोबार समुद्र किनारे से तक़रीबन एक किलोमीटर की दूरी पर लंगर डाला । पीटर ने बड़े
सबेरे उठकर एक बरसाती ओढ़ ली और जेट्टी की ओर चल पड़ा । वहाँ और लोगों के पहुँचने से
पहले वह दाख़िल हो गया । सोचता रहा कि अगर वह माल उतरने से पहले वहाँ प्रवेश कर गया
तो बोटमास्टर से डाक तुरंत ले पाएगा । फिर पॉन्टून की पहली वापसी ट्रिप लेकर वह
कैसे भी हो लौट आएगा और नौ बजते-बजते डाकघर पहुँच जाएगा । उसके बाद हो जाएगी उसकी
छुट्टी । फिर दो दिन गुदड़ी ओढ़कर बिस्तर पर पड़ा रहेगा । बुखार तो दो दिन का मेहमान; खाना-पीना बंद
होगा तो वह अपने आप भाग जाएगा ।
पीटर ने जैसा सोचा था कुछ वैसा ही हुआ ।
पॉन्टून के पहले ट्रिप में उसको जगह मिल गई । सात बजते-बजते वह जहाज़ में दाख़िल हो
गया । वहाँ पहुँचते ही वह बोटमास्टर से मिला और उसे अपनी बुखारवाली बात सुनाई ।
सोचा था कि बोटमास्टर उसकी हालत देखकर उसे प्राथमिकता देंगे और डाक थैले उसे तुरंत
सौंप देंगे, पर ऐसा नहीं हुआ ।
बोटमास्टर बोले, 'पीटर, तुम जाकर मरीज़ोंवाले केबिन में थोड़ा आराम कर लो
। वहाँ डॉक्टर को अपनी तबियत दिखा लो । हम सवारियों को पहले उतरने देंगे, फिर डाक थैलों को
। कम से कम ग्यारह तो बज ही जाएँगे ।’
बोटमास्टर की बात पर और कौन सवाल कर सकता है ? पीटर ने उनका कहना मान लिया । डेक में खड़े-खड़े सवारियों
के आवागमन को देखता रहा। बच्चे, बुज़ुर्ग, औरत, नौजवान, यहाँ तक कि सूअर भी ख़ुश थे कि आख़िर में अपने मुल्क आ ही गए
। जहाज़ के बगल में तैरते हुए पॉन्टून के ऊपर छलाँग लगाते वक्त कुछ लोग सीढ़ी से गिर
पड़े, पर अपनी यंत्रणा
स्वयं ही बर्दाश्त कर ली। खुद को मन ही मन तसल्ली देते थे,
'मानो, भगवान का लाख-लाख
शुक्र जो हम समुद्र में गिरे नहीं !’
नौ बजते-बजते पीटर का बुखार चढ़ने लगा । उसने
सोचा कि बोटमास्टर को याद दिलायी जाय ।
'कैप्टन साहब, अब मेरा बुखार बढ़ने लगा । मेरे ऊपर ज़रा
मेहरबानी तो करें,’ इस बार पीटर अपनी बात को थोड़ा ज़ोर देकर बोला ।
बोटमास्टर ने पीटर के अनुरोध को मान लिया । फिर
चाभी लेकर अपनी केबिन से सटे हुए रूम को खोला । कुल मिलाकर सिर्फ़ तीन थैले थे ।
इन्हें पीटर को सौंप दिया । पीटर थैलों को लेकर सीढ़ी तक दौड़ आया । इंतज़ार करता रहा, कब पॉन्टून
लौटेगा और कब वह इन थैलों को लेकर जेट्टी तक जाएगा।
सभी सवारियाँ उतर चुकी थीं । अब सिर्फ़ पीटर और
एक व्यापारी को उतरना था । इसका मतलब पॉन्टून को लौटने की जल्दी न थी ।
इस बार भगवान ने पीटर की गुहार सुन ली और
पॉन्टून वक्त पर लौटा। पीटर तैयार हो गया लौटने को । व्यापारी भी उठ खड़ा हुआ अपनी
गठरियों को लेकर ।
पहले पीटर ने सीढ़ी पर पैर रखा और धीरे से उतरने
लगा । उसे तेज बुखार ने जकड़ रखा था । सारे बदन में दर्द था और सर में हलका-सा
चक्कर । दर्द से तड़प रहा था वह । फिर भी डाक थैलों को ज़रा-सी भी खरोंच न आए, इस पर उसका ध्यान
निरंतर टिका हुआ था । कदम सँभाल-सँभालकर रखता गया वह।
व्यापारी पीटर के पीछे-पीछे आ रहा था । लगता था
कि वह अपनी गठरी का वज़न ढोने में असमर्थ है । शायद इसीलिए उसने सब लोगों के उतरने
के बाद ही बोट छोड़ने का निर्णय लिया था।
सीढ़ी हिलने लगी थी । बड़ा अस्वाभाविक था वह कंपन
। पीटर ने सोचा शायद बुखार उसके जिस्म से निकलकर सीढ़ी पर सवार हो गया हो !
'धड़ाम्,’ व्यापारी पीटर के ऊपर गिर पड़ा । पीटर भी कैसे
सँभालता दोनों का वज़न------एक तो वह व्यापारी था हट्टा-कट्टा, और ऊपर से उसकी
गठरी । अपना संतुलन खो बैठा पीटर । सीढ़ी से गिर पड़ा वह । अब उसे समुद्र के तेज़
स्रोतों से जूझना होगा--अपनी ज़िंदगी बचाने हेतु तथा अपने डाक थैलों की सलामती के
लिए ।
पीटर तैरने लगा । बचपन से वह तैरते आ रहा था और
आज था उसका इम्तहान । वह शारीरिक रूप से आज तैयार न था, फिर भी समुद्री स्रोतों को इसकी परवाह न थी ।
कुदरती ताक़त, और वो भी समुद्र में । स्रोत पीटर को आगे-आगे खींचता ले गया पर पीटर ने
स्रोतों के अनुकूल तैरना मुनासिब समझा । उसे पता था कि उसके प्रतिकूल जाने का मतलब
मौत को गले लगाना है ।
कुछ देर तक तैरने के बाद स्रोत ने अपना रास्ता
बदल लिया । अब तैरना पीटर को आसान लगने लगा । इस बीच, बचाव के लिए जहाज़ से दो तैराक आ चुके थे । उन
दोनों के साथ थे बचाव के उपकरण ।
पॉन्टून पर पहुँचते ही पीटर ने पूछा, 'कहाँ गए, कहाँ गए मेरे डाक
थैले?’
'ये रहे आपके थैले । देखो, पानी में गिरे तक
नहीं । गिरते भी कैसे ? समुद्र में जाने से पहले ही आपने इन्हें पॉन्टून पर फेंक
दिया था ।’ व्यापारी बोला।
पीटर को पता न चला कि कब उसने थैलों के बचाव के
लिए ऐसा उपाय सोचा और कैसे उस पर अमल किया, पर वह ख़ुश था कि कम से कम उसने बड़ी सफ़ाई के साथ
अपना फ़र्ज़ तो निभाया ।
अब तक पीटर का बुखार उतर चुका था ।
भुवनेश्वर 20-08-2007
------------------------------
By
A N Nanda
Shimla
06-02-2014
-------------------------------