The Unadorned

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Wednesday, December 31, 2025

खोई स्मृति, पाई कहानी

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खोई स्मृति, पाई कहानी

मयंक जब गेस्ट हाउस लौटा, तब तक साँझ ढल चुकी थी। आरोहण गहरी नींद में पड़ा था। वह खुश हुआ—“चलो, दोस्त को चैन की नींद तो मिली!”

सिर्फ़ एक रात की सुकून भरी नींद ने ही उसे इतना सँभाल दिया था कि वह तीन शब्द—या कहें, दो पूरे वाक्य—बोल पाया। मगर थोड़ी ही देर में मयंक का कलेजा धक् से रह गया। आख़िर दोपहर की झपकी भला इतनी लंबी कैसे हो सकती है कि शाम ढल जाए? उसने मन ही मन कहा—देखे बिना चैन नहीं मिलेगा।”

कमरे में घना अंधेरा था। पर्दों ने धूप को ऐसे निगल लिया था जैसे अजगर शिकार को। दीवार टटोलकर जब बत्ती जलाई तो जो नज़ारा सामने आया, उससे मयंक का दिल बैठ गया। आरोहण फर्श पर यूं पसरा था, जैसे बच्चा रो-धोकर थक कर ढेर हो गया हो। मंज़र आधा मज़ेदार, आधा डरावना। मयंक झट पास पहुंचा और माथा छुआ—खरबूजे जैसा ठंडा।

क्या हुआ रे तुझको, आरोहण? ज़मीन पर काहे लोटा पड़ा है?”

यह ठंडा है,” उसने धीमे स्वर में कहा।

मयंक हक्का-बक्का रह गया। शुक्र है कि कोई बड़ी अनहोनी नहीं हुई और ऊपर से दोस्त ने साफ़ जवाब भी दिया।

तोरा कुछ याद पड़ता है? तू इस वीराने में कैसे आ धमका?” मयंक ने झिझकते हुए पूछा।

आरोहण कौन है?”—उसने आँखें मलते हुए कहा। अब वह पूरी तरह जाग चुका था। माथे की सिलवटें साफ़ बता रही थीं कि वह चालाकी नहीं कर रहा, बल्कि सच्चाई जानना चाहता है।

अरे, तू ही आरोहण है, और मैं मयंक। बचपन से साथ खेल-खेलकर बड़े हुए।” मयंक ने वही दोहराया जो सुबह कहा था। आरोहण ने सिर वैसे ही हिलाया जैसे कोई अनसुनी बात सुनकर उलझ जाए—और फिर बस दो लफ़्ज़ बोले: “पता नहीं।”

मयंक ने लंबी साँस ली—“अजीब पेंच है! कभी लगता है कोई सुनियोजित चाल है, कभी महज़ इत्तफ़ाक़ों का खेल।”

तभी आरोहण बोला—“मैंने अभी सपना देखा।”

मयंक का बुझा हुआ चेहरा जैसे अचानक चिराग़ से जगमगा उठा। “अरे, सपना? मुमकिन है उसी में कोई सुराग़ छिपा हो!”

यूँ तो हर इंसान ख़्वाब देखता है—वे उतने ही अनगिनत होते हैं जितनी आकाश में बिजली की कौंध। कभी वे घटनाओं की कड़ी तोड़ देते हैं, कभी किरदारों का रंग-रूप बदल डालते हैं, कभी तहज़ीब के उसूलों को उलट-पलट देते हैं। कई बार वे बिन बुलाए मेहमान की तरह हमारी जागती दुनिया में घुस आते हैं—और पीछे एक अनकही कसक छोड़ जाते हैं। कहा भी जाता है कि कभी-कभी सपना ही सच की ओर इशारा कर देता है।

मगर इस सारी उलझन के बीच मयंक को उम्मीद की एक लौ जलती नज़र आई। उसने पहचान लिया कि ख़्वाब में वह ताक़त होती है जो टूटी हुई यादों को जोड़ सकती है, छिपे मायनों के दरवाज़े खोल सकती है, और ऐसी दुनिया की राह दिखा सकती है जहाँ तर्क की दाल नहीं गलती, मगर संभावनाओं का दरिया लबालब बहता है।

तर्क और हक़ीक़त की सरहद से बाहर कदम रखते हुए, मयंक अब उस रहस्यमय ख़्वाब की परतें एक-एक कर उधेड़ने को तैयार था।

और तब आरोहण ने अपना सपना यूँ सुनाना शुरू किया, जैसे कोई बूढ़ा क़िस्सागो चौपाल में धूप-छाँव तले बैठकर दास्तान छेड़ देता हो।

***       ***      ***      ***      ***

यह सोमवार, 14 अगस्त 1972 था। अगली सुबह तिरंगा फहरना था—पंद्रह अगस्त। पूरा मुल्क जश्न-ए-आज़ादी की रजत-जयंती की देहरी पर खड़ा था। वक्त का रथ, जिस पर हम सब सवार थे, एक और पड़ाव पार करने जा रहा था। हम—दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के गर्वित नागरिक—इतिहास के नए पन्ने के सामने खड़े थे। यह घड़ी थी आत्ममंथन की। आखिर सबसे बड़ा लोकतंत्र” का ख़िताब किसी विकासशील देश को यूँ ही नहीं मिला था! आलोचक भी मान चुके थे कि यह सच्चाई है। लिहाज़ा तैयारी थी एक शाही जश्न की—जो सुबह की पहली किरण के साथ शुरू होना था।

सरकारी दफ़्तरों, स्कूल-कॉलेजों और संस्थानों को अपनी-अपनी कामयाबियों का प्रदर्शन करना था। उस वक़्त मैं ग्यारह वर्ष का बच्चा था। जानता था कि स्वतंत्रता दिवस का क्या मतलब है। साल में बस एक दिन आता था जब हम प्रभात फेरी में निकलते—छोटे-छोटे गले से नारे लगाते, गाँव की कीचड़ भरी गलियों से गुजरते, लोगों को याद दिलाते कि आज़ादी का दिन लौट आया है। ये कोई फौजी परेड तो नहीं थी, मगर विजय का एक उत्सव ज़रूर था।

उस दौर का असल जज़्बा अहिंसा था—यानी हमें आज़ादी बग़ैर खून-खराबे मिली। पूरे माहौल में एक अजीब-सी पवित्रता थी—जैसे प्रार्थना-सभा हो, मगर देसी अंदाज़ में। प्रभात फेरी आधी आध्यात्मिक, आधी दुनियावी—और सत्तर के दशक के हिंदुस्तान की असल तस्वीर।

हम बच्चे गीली गलियों से गुज़रते, टखनों तक कीचड़ में भीगते हुए लोगों से मुट्ठी-भर चावल माँगते—मानो प्यार की भीख—इस आस में कि बदले में कोई मिठाई या टॉफ़ी थमा दे। मगर अक्सर मायूसी ही हाथ लगती। मास्टर साहब भेंट में मिले चावल खुद दबा लेते, और हमें बस नारों का शोर और प्रभात फेरी की हल्की-फुल्की मस्ती नसीब होती। आज प्राइमरी स्कूल के वे दिन बहुत पीछे छूट चुके हैं, लेकिन उन देशभक्ति से लबालब गीतों की धुनें अब भी कानों में गूँजती रहती हैं—

शांति, तरक़्क़ी, आज़ादी का तू ही वरदाता,

ए गांधी! सच का दीया, ख़ूबसूरती का दाता।”

वही ऐतिहासिक दिन फिर लौट रहा था—मगर इस बार कुछ ख़ास। रजत जयंती! वजहें भी कम न थीं—हमने जंग जीती थी, नक्शा बदला था, और नया मुल्क दुनिया के नक़्शे पर ला खड़ा किया था। सीमापार भाइयों को मुक्ति दिलाकर अपनी सियासी ताक़त शिखर तक पहुँचा दी थी। स्कूल वाले भी पीछे कहाँ रहने वाले थे! शिक्षकों ने तय किया कि जलसा एक दिन पहले से ही शुरू होगा।

इसी वजह से 14 अगस्त की शाम एक ख़ास दावत रखी गई। भेड़ के गोश्त का लज़ीज़ पकवान—क्योंकि हिंदुस्तानी गाँवों में बढ़िया खाना किसी भी आयोजन को उत्सव में बदल देता है। और यहाँ तो मौक़ा ही था जश्न-ए-आज़ादी का। मगर जब बच्चों को बुलाने की बारी आई, तो मास्टरों ने हद बाँध दी—सबको खिलाना नामुमकिन था। लेकिन मेरे लिए अलग फ़रमान था: मैं हेड बॉय था, इसलिए मास्टरों के साथ बैठना मेरा “विशेषाधिकार” ठहरा।

इस तरह 14 अगस्त का दिन मेरे लिए एक तरह का कर्टेन-रेज़र बन गया। मैं अकेला सौभाग्यशाली बच्चा था, जिसने मास्टरों का जश्न अपनी आँखों से देखा। कोई तो चाहिए था जो उनकी बातें सुने, उनकी हाँ में हाँ मिलाए, और छोटे-मोटे काम सँभाले—यही मेरा फ़र्ज़ था, शायद उससे भी बढ़कर।

कहाँ गया वो कसाई, वो धोखेबाज़?”—गरजे श्री देवकुमार, हमारे गणित के मास्टर। वे किसी ख़ास से नहीं बोले; बस हवा में उँगली लहराते हुए ग़ुस्से में बड़बड़ा रहे थे। मैं पास खड़ा उनकी सूरत पढ़ता रहा—वे मानो किसी अजीब मुसीबत में फँस गए हों।

वे हमारे स्कूल के उस दमनकारी शिक्षक-दल के सबसे क्रूर सदस्य थे, जो शिक्षा के नाम पर मारकुटाई में माहिर था। उन्हें ज्यामिति से ज़्यादा भरोसा अपनी निशानेबाज़ी पर था। पीछे बैठा बच्चा हो या आगे—लकड़ी का, धूल से भरा वह भारी डस्टर उनके लिए किसी हथियार से कम न था, और निशाना शायद ही कभी चूकता।

एक बार तो उन्होंने ग़ुस्से में डस्टर ऐसा उछाला कि बच्चे की माँग खुरच गई—बाल उखड़ गए और खोपड़ी पर लाल लकीर उभर आई। खून नहीं निकला, मगर बच्चे की आँखों से आँसू नदी बनकर बहने लगे। और उधर मास्टर जी देर तक आत्ममुग्ध मुस्कान में डूबे रहे—मानो किसी “कामयाब प्रयोग” पर इतराते हों।

सौभाग्य से, मास्टर देवकुमार का मिज़ाज लड़कियों के साथ कुछ और ही था। कभी-कभार उन पर तंज़ कसते, मगर उनकी ग़लती पर हाथ नहीं उठाते। सब लड़कों को मालूम था—यह खुला-खुला पक्षपात है। लेकिन गुरुजी के नाम पर जो ख़ामोश इज़्ज़त देने का रिवाज़ था, वही उनकी ढाल बन जाता। यही झुकाव—और लड़कियों को ज़्यादा नंबर देने की उनकी आदत—उन्हें छात्राओं के बीच मशहूर बना देती थी; एक ऐसी ख्याति, जिसे न कोई खुलकर पसंद कर पाता था, न खुलकर विरोध।

दोपहर ढल चुकी थी, मगर कसाई का कोई पैग़ाम नहीं पहुँचा।

अब इस जानवर का कत्ल करेगा कौन?”—मास्टर देवकुमार बुदबुदाए। उनके पीछे से बकरा मिमियाया—“मैं... हे... हे।” वह बरामदे के पास खूँटे से बँधा था।

वह एक छोटा-सा काला बकरा था, जिस्म पर सफ़ेद धब्बे। उसका आख़िरी सफ़र अब शुरू होने वाला था। इस राह में उसका साथी कसाई होगा—जो पेशेवराना अंदाज़ में, कम-से-कम तकलीफ़ के साथ, इस काम को अंजाम देगा। और भला इतनी रहमदिली से यह काम और कौन कर सकता था?

मास्टर साहब ने मेरी तरफ़ तीर जैसी नज़र डाली।

अरे, तू नीची जात का नहीं है क्या?”

दिमाग़ ने झट से मतलब पकड़ लिया—लंबा-दुबला हूँ, साथ ही नीची जात का; और यही मेरी क़ाबिलियत ठहरी। नतीजा साफ़ था: बकरे को हलाल करना मेरे जिम्मे आया।

जा, और इस बकरे को ख़त्म कर। ज़्यादा ड्रामा मत करना, समझा?”—कहकर उन्होंने रस्सी मेरे हाथ में थमा दी। आवाज़ में हुक्म का सख़्त, बर्फ़-सा ठंडा लहजा था।

ग्यारह साल का छोकरा अगर सफ़ाई से बकरा मार सकता है, तो मुझे क्यों डर लगे? मैंने मन-ही-मन तसल्ली दी। इंसान तो नहीं है, तो पाप भी कहाँ? और मास्टर साहब के पास खड़े रहने से तो बकरा ही बेहतर साथी लग रहा था। ऊपर से, यह तो बड़ा काम था—बड़ों वाला काम! मैंने खुद को बहलाया—दर्द देना, दर्द झेलने से आसान है।

मगर मारूँ तो कैसे? अब तक जो सबसे बड़ा जीव मारा था, वह पिछवाड़े तालाब की एक नन्ही मछली थी—वो भी कपड़े धोते-धोते, अनजाने में। मैं तो वैसे भी सख़्त सब्ज़ीख़ोर था। मेरे हाथ इस क़हर ढाने वाले काम के लिए बिलकुल अजनबी थे।

पहला ख्याल आया—गर्दन मरोड़ दूँ, जैसे गाजर की पत्तियाँ तोड़ते हैं। दूसरा ख्याल आया—सीधा सिर काट दूँ। किताब में पढ़ा था—बादशाह दुश्मन का सर काटकर फ़ख्र से नुमाइश करते थे। आँखों में राम-रावण का युद्ध घूम गया—कटे सिर बार-बार उगते जा रहे हों।

हाँ, सरकारी प्रचार विभाग की बदौलत वही पुरानी रामायण फ़िल्म देखी थी—चरागाह में घूमते प्रोजेक्टर पर। वही मेरी ज़िंदगी की पहली और आख़िरी फ़िल्म। वहीं से यह हुनर सीखा था—अब काम आ सकता है। तो सोचा, बकरे का सिर काटना रावण का सिर काटने जैसा ही है—या गाजर की पत्तियाँ तोड़ने जैसा।

शाम ढलने में अभी एक घंटा बाकी था। अगस्त की धूप अभी भी झुलसा रही थी। मैं गीली घास पर बकरे के पीछे-पीछे चलता रहा। जानवर मानो अपने घर की ओर लौटते कदम नाप रहा था।

भीतर से एक आवाज़ उठी—“ओ छोरे! अब तू जानवर-मारक बन गया! निपटा दे इसे। बकरे के चार पैर हैं, दो सींग हैं, और तू बस दो पैरों वाला—रावण वाला सपना छोड़।”

दिल की धड़कन इतनी तेज़ हो उठी कि बकरे की तरफ़ अब रहम की नज़र डालना मुमकिन न रहा। वह मुझे पूरा शैतान लगने लगा—जैसे कोई सूमो पहलवान सीधी चुनौती दे रहा हो। मैंने छलाँग लगाई—“धप्प!”—और सीधा उसी पर जा गिरा।

मैं-हे-हे!”—बेचारा हक्का-बक्का रह गया। अब तक वह मुझे दोस्त समझ रहा था, घर तक ले जाने वाला साथी। और मैंने? मैंने तो धोखा दे दिया—बिलकुल कायरों जैसा काम!

उसकी कसैली, तीखी गंध ने मेरे भीतर के शिकारी को जगा दिया। मैं उसके ऊपर आ पड़ा, कोहनियाँ उसकी पसलियों में गड़ा दीं। एक हाथ से सींग, दूसरे से थूथन कस लिया। पूरा दम लगाकर उसकी गर्दन मरोड़ दी।

जानवर तिरछा भागा, मगर अब मिमियाने की आवाज़ नहीं निकल पा रही थी—शायद उसकी स्वर-रज्जुएँ टूट चुकी थीं। मैं पीछे ही पड़ा रहा। छह किलो का छोटा-सा बकरा भला मुझसे कैसे जीत पाता?

पर तभी...गड्ढा!

ओफ़्फ़ोह!

बिजली विभाग ने दस फुट का गड्ढा खोदकर यूँ ही खुला छोड़ दिया था—न घेराबंदी, न कोई तख़्ती। और देखते-ही-देखते हम दोनों उसमें जा गिरे—सरकारी लापरवाही का जीता-जागता नमूना।

अब खेल ख़त्म था। असली सवाल यही था—इस काले गड्ढे से बाहर कैसे निकला जाए?

दीवारें चिकनी थीं, काई से भरी हुई; ऊपर चढ़ना नामुमकिन। अँधेरा तेज़ी से गहराता जा रहा था। पलकें बोझिल होने लगीं, और दिल घर की आरामदेह बिस्तर के लिए तरसने लगा।

मेरी आख़िरी उम्मीद यही थी कि शिक्षक हमें ढूँढते हुए आ पहुँचेंगे। वे मुझे बकरे के साथ भागने नहीं देंगे—आख़िर वही तो उनके जुबली भोज का मुख्य पकवान था।

थोड़ी देर बाद ऊपर से कुछ आवाज़ें आईं। दिल धक् से रह गया—क्या यह कोई भूतिया सरगोशी थी? मैंने मन ही मन सोचा।

बादल हट चुके थे, तारे झिलमिला रहे थे। मैंने दबाकर एक जम्हाई ली। उधर बकरा हिल-डुलकर मुझे याद दिला रहा था कि काम अधूरा पड़ा है। अब जबकि वह लगभग स्थिर हो गया था, उसे आसानी से मारा जा सकता था। मगर अगले ही पल दिल काँप उठा—नहीं, अब ढर्रे से हटकर कुछ और सोचना होगा। बाहर निकलने का कोई रास्ता तलाशना ज़रूरी था। बकरा इंतज़ार कर सकता है—मैं उसे गड्ढे से बाहर निकलने के बाद निपटा लूँगा।

गिरते वक़्त मेरी कोहनी छिल गई थी और अब जलन होने लगी थी। शुक्र है कि मिट्टी नरम और चिकनी थी, वरना गिरावट कहीं ज़्यादा ख़तरनाक साबित होती। फिर भी इलाज ज़रूरी था। मैंने कोहनी सहलाना शुरू किया—वही घरेलू थेरैपी, जो देवकुमार जी हमें सिखाते थे: पहले उँगलियों से त्वचा को हल्के-हल्के सहलाना, मानो दर्द की नस टटोली जा रही हो… और फिर ठीक उसी जगह डंडा जमा देना—जैसे शेर शिकार पर झपटने से पहले उससे खिलवाड़ करता हो।

भूख तो थी ही, लेकिन प्यास उससे कहीं ज़्यादा तेज़ हो चली थी। क्या गड्ढे का पानी पी लिया जाए? ओह नहीं! उसमें सड़ाँध की बदबू थी—बकरा वहीं पेशाब कर चुका था।

किसी का पेशाब पी लेना—भले ही जान पर बन आए—मेरे लिए नामुमकिन था।

वो पल था जब बच्चे रो पड़ते, लेकिन हेड बॉय के लिए यह इजाज़त कहाँ!

बकरा अब धीमे-धीमे मिमिया रहा था, मगर उसकी आवाज़ की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। तभी ऊपर से कदमों की आहट आई। गर्दन उठाई—कोई गड्ढे में झाँक रहा था! रीढ़ में उम्मीद की बिजली दौड़ गई—शायद राहत मिल ही जाए।

हेड बॉय, तुम नीचे हो?"—देवकुमार जी की बुलंद आवाज़ गूँजी।

मैंने सोचना शुरू किया कि अब कौन सी सज़ा मिलेगी। वो फिर से गरजे—इस बार और गुस्से में: “तुम हो नीचे, हेड बॉय?”

देवकुमार का ख़ास गुण था—गाली न भी दें, तो भी उनके शब्दों की धमक सामने वाले का कलेजा हिला देती थी।

अचानक टॉर्च की तेज़ रोशनी हम पर आ पड़ी।

काहे छुप रहे हो? आओ, अपना दिमाग़ मसाज करवाओ—चाँटे से!”—वे गरजे।

राहत-दल रस्सी, सीढ़ी और बांस लेकर नीचे उतरा। हैरत की बात यह थी कि उन्होंने सीधा-सीधा अंदाज़ा लगा लिया था कि हम बिजली विभाग के उसी गड्ढे में गिरे हैं। सच कहूँ, हमारे शिक्षक किसी सर्वज्ञानी संत से कम न निकले!

मैं गड्ढे से बाहर तो आ गया, मगर संकट कहाँ ख़त्म हुआ था! बकरा बिना किसी झिझक के ख़ुद चलकर कसाई के हवाले हो गया—मानो उसे अपनी तक़दीर मालूम हो और वह किसी बेमतलब जश्न का हिस्सा बनने से इनकार कर रहा हो।

पीछे-पीछे आओ,”—देवकुमार ने रहस्यमय लहजे में कहा। मैं चुपचाप उनके पीछे हो लिया। थोड़ी ही दूर जाकर कसाई झाड़ियों की ओर मुड़ गया। ‘मैं… हे… हे’—बकरे ने आख़िरी बार मिमियाया। और फिर जो ख़ामोशी उतरी, वह विदाई की एक गूँज-सी लगी—मेरे उस गुप्त साथी की, जो अब दर्द से आज़ाद हो चुका था। उसका छह किलो का जिस्म अब किसी तकलीफ़ का बोझ नहीं ढोएगा।

और मैं? भीतर एक कंपकंपी दौड़ गई। अब क्या होगा—छड़ी की सिसकारी? पीठ और नितंबों पर उसकी जलती हुई चुभन? जाति, जन्म और ज़िंदगी की नई-नई तफ़सीर?

सुन रहे हो, हेड बॉय!”—देवकुमार गरजे।

हे मेरे बाप! क्या अनुशासन की भी कोई हद होती है? मैं मन ही मन सोच रहा था। मगर देवकुमार जी के सामने तो सब कुछ मुमकिन था।

उनके बाएँ हाथ में एक थाली थी—जिसमें कच्चा गोश्त पड़ा था, सफ़ेद चर्बी की पतली तहों में लिपटा हुआ। वही नन्हा बकरा अब रक्तहीन देह बनकर थाली में रखा था।

खा लो, हेड बॉय,”—देवकुमार के होंठों पर एक सख़्त मुस्कान तनी। “ये तुम्हारे आज के तमाशे का इनाम है। चबाओ इसे।”

मेरी झिझक ने उन्हें छड़ी उठाने पर मजबूर कर दिया। शुरुआती वार तेज़ और झनझनाते हुए पड़े—मानो खाना खिलाने से पहले बस एक औपचारिकता निभाई जा रही हो। फिर वे पास आए और छड़ी को कांख में दबा लिया। अब उनका दाहिना हाथ आज़ाद था—मेरी पीठ पर ऐसे फिरा, जैसे कोई चित्रकार कूची से तस्वीर पर आख़िरी स्ट्रोक दे रहा हो। उनके होंठों पर एक नियंत्रित, मगर निर्दयी मुस्कान फैल गई।

फिर उन्होंने छड़ी निकाली और दोबारा बरसाई।

खा लो, हेड बॉय—खा लो अपना हिस्सा।” कहते हुए वे थाली मेरी नाक तक ले आए। छड़ी की सिसकारी और चेहरे की तनी हुई मांसपेशियाँ—ग़ुस्सा और सुरूर का यह घालमेल किसी ज़हरीले नशे-सा था।

आख़िरकार, मैंने बिना चबाए ही कच्चे गोश्त का एक टुकड़ा निगल लिया।

वाह! असंभव कुछ नहीं होता। देवकुमार झूम उठे—मेरी नहीं, अपनी फ़तह पर। “शाबाश, हेड बॉय! शाबाश!” वे गा-गाकर झूमने लगे।

उधर अस्थायी रसोई से मटन करी की महक उठ रही थी। स्कूल की झोपड़ी की छत से झाँकती बाँस की लकड़ियाँ चाँदनी में किसी खाली पेट भिखारी की पसलियों जैसी लग रही थीं। और कल... हमारी आज़ादी की सिल्वर जुबली थी।

***      ***      ***      ***      ***

अरे वाह! क्या क़िस्सा था!”

बात पूरी करके आरोहण चुप हो गया। वह पद्मासन में बैठा रहा—आँखें बंद, पीठ सीधी—मानो गहरे ध्यान में डूब गया हो। मयंक को डर था कि कहीं वह फिर उसी बीमार-सी ख़ामोशी में न लौट जाए, मगर उसने टोकना मुनासिब न समझा।

अब सवाल यह था—आख़िर इस ख़्वाब से मयंक को क्या हासिल हुआ? वह जानना चाहता था कि उस हिल स्टेशन में आरोहण कैसे और क्यों आ पहुँचा, मगर इस स्वप्न में कोई सीधा सुराग नहीं था। आरोहण कह रहा था कि 1972 में वह हाई स्कूल में था, जबकि हक़ीक़त यह थी कि उसी साल उसका जन्म हुआ था! उसने ख़ुद को नीच ज़ात का बताया—जबकि असल में वह तो एक कप्तान का बेटा था।

सच्चाई यह थी कि उसका ताल्लुक़ उस ख़ानदान से था, जिसके बुज़ुर्ग उड़ीसा में ज़मींदार रहे थे। कोई अस्सी बरस पहले उस घराने की एक शाखा विशाखापटनम आ बसी थी, और आते ही ज़मीनें ख़रीदने लगी। ज़मीन से उन्हें ऐसा मोह था कि छोटे-छोटे पहाड़ तक ख़रीद डाले थे!

लोगों में मशहूर था कि उनकी ज़मीन से कभी कोई गुप्त ख़ज़ाना निकला होगा। उनकी दौलत की नुमाइश यूरोपीय मेहमानों को चंदन की लकड़ी पर उबली चाय परोसकर की जाती थी। पुश्तैनी हवेली के दरवाज़े चंदन के, देवी-देवताओं की अष्टधातु की मूर्तियाँ, पालकी—ख़ालिस सोने की। यहाँ तक कि दांत कुरेदने की तीली तक सोने की होती थी!

ख़्वाब ग़रीब को बादशाह बना सकते हैं, मगर यहाँ तो बादशाह ख़्वाब में फ़क़ीर बन गया! अजीबो-ग़रीब खेल!

मयंक के दिल में ख्याल आया—शायद आरोहण की दास्तानें उसी दुनिया से आती हैं जहाँ तक पहुँचना आँख खोलकर नहीं, आँख मूँदकर ही मुमकिन है। लोककथाओं में माना जाता है कि श्रेष्ठ भविष्यवक्ता अक्सर अंधे होते हैं—क्योंकि वे दृश्य से नहीं, अंतरदृष्टि से देखते हैं। जब आँखें इस जगत से बंद होती हैं, तभी भीतर की आँख खुलती है—जो सत्यों, संवेदनाओं और ऊर्जा को देख पाती है। वे रूप और माया से प्रभावित नहीं होते, इसलिए उनके कथन ज़्यादा विश्वसनीय माने जाते हैं।

यहाँ अंधापन कमजोरी नहीं, बलिदान है—उस कीमत की अदायगी, जिसके बदले उन्हें सूक्ष्म दृष्टि मिलती है। ऐसे अंधे ख़्वाबदर्श लोग ज़िंदगी की सरहद पर खड़े रहते हैं—इस लोक और परलोक, जाग और स्वप्न, यथार्थ और तसव्वुर के बीच। शायद इसी वजह से आरोहण को भी किसी अनकही कहानी का गुप्त ख़ज़ाना तभी मिलता है—जब वह आँखें मूँदकर इस जहाँ से बेगाना हो जाता है।

मयंक ने सोचा—अगर इस विचार को आरोहण पर लागू करें, तो नज़र की तुलना याददाश्त से की जा सकती है। जैसे दृष्टिहीन इंसान अंतर्दृष्टि तक पहुँचता है, वैसे ही विस्मृति में डूबा शख़्स भी तजुर्बों की एक नई ज़मीन पर क़दम रख सकता है। याददाश्त बीते लम्हों की पुनरावृत्ति है, मगर याददाश्त की अनुपस्थिति—कल्पना, एहसास और सांस्कृतिक शऊर के लिए एक कोरा कैनवस।

शुक्र है, आरोहण फिर चिड़चिड़ा नहीं हुआ। जब विदा लेने का समय आया, मयंक ने पूछा—“कल सुबह थोड़ी टहलें, आरोहण? अगर तुम्हें अच्छा लगे तो?” मानो दोनों ही इस रात की भारी बातों से कुछ राहत चाहते थे।

ठीक है,” आरोहण ने मुस्कराकर कहा, “मुझे कोई ऐतराज़ नहीं।”

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By

अनन्त नारायण नन्द 

भुवनेश्वर, दिनांक 01-01-2026

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