The Unadorned

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Friday, December 05, 2025

घर का घोड़ा, खेत की मूली

 


घर का घोड़ा, खेत की मूली

वर्षों पहले हमारे गाँव में मूलिया नाम का एक आदमी रहता था। उम्र उसकी इक्यावन की थी, दिमाग़ से कुछ सुस्त माना जाता था, पर उसका अटूट विश्वास था कि वह अब भी एक योग्य कुँवारा है।

उसका तर्क बड़ा सरल था—मर्द कभी भी शादी के लिए “हद से ज़्यादा बूढ़ा” नहीं होता। क्यों? क्योंकि, उसके मुताबिक़, जब तक आदमी जंगल से जलावन की लकड़ी ला सकता है, कुएँ से पानी खींच सकता है, घर-बगिया से सब्ज़ियाँ तोड़ सकता है, त्योहारों में विशेष सफाई हेतु फर्श रगड़ सकता है, या सोडा मिले गरम पानी में उबाले गए कपड़ों को पत्थर पर पटक-पटक कर धो सकता है—यानी जब तक वह हर घरेलू काम फुर्ती से कर पा रहा है—तब तक वह विवाह के लिए बिल्कुल उपयुक्त है।

मूलिया का दावा था कि वह यह सब बख़ूबी कर सकता है; उसकी नज़र में तो कोई भी स्त्री ऐसे मददगार पति को पाकर ख़ुद को भाग्यशाली मानेगी।

लेकिन गाँव वाले इस तर्क से ज़रा भी सहमत नहीं थे।

बचपन में मूलिया दस साल की उम्र तक अपने मल-मूत्र पर क़ाबू नहीं रख पाता था। अगर उसके माता-पिता इलाज-इल्म की ज़रा-सी भी समझ रखते, तो शायद उसका ऑटिज़्म जैसी किसी अवस्था का समय रहते निदान हो जाता।

पर दोनों माता-पिता बहुत कम उम्र में ही चल बसे—ऐसी संदिग्ध परिस्थितियों में, जिन्हें बाद में रेल दुर्घटना बताया गया। यह जानकारी भी इतनी देर से और इतने अविश्वसनीय स्रोतों से पहुँची कि तब तक रेलवे विभाग की सभी मुआवज़े वाली फ़ाइलें बंद हो चुकी थीं।

इस तरह मूलिया का पालन-पोषण उसके “नज़दीकी अभिभावक” विभूति काका ने किया—जिन्हें इस बात में ही संतोष मिलता था कि मूलिया ज़िंदा है, अर्थात्, उनकी नज़र में, अगर कोई जन्मजात बीमारी रही भी हो, तो वह तो अब अपने-आप ठीक हो चुकी होगी।

जैसे-तैसे जब उसकी स्कूल जाने की उम्र हुई, तो उसे स्कूल भेजा गया। वहाँ उसने चार साल तक वर्णमाला रटी, पर उसे कभी याद नहीं रख पाया।

फिर भी एक छोटी-सी उम्मीद की किरण थी। गणित में उसने एक से दस तक की गिनती जल्दी सीख ली। यह जादुई नियम भी समझ लिया कि किसी संख्या के आगे शून्य लगाने से वह दस गुना बड़ी हो जाती है। लेकिन वह इससे आगे कभी नहीं बढ़ पाया।

हाँ—इसी तरकीब से वह बीस, तीस, चालीस जैसे अंक जोड़-तोड़कर बोल लिया करता था, पर अक्सर बीच में गड़बड़ा जाता।

उसने एक कविता भी याद कर ली थी—या यूँ कहें, कविता का सिर्फ़ चौथा हिस्सा—जो उसने अपनी वर्णमाला की किताब में पढ़ा था।

वे पंक्तियाँ दशकों तक उसके साथ रहीं—बेतरतीब, लॉटरी के नंबरों की तरह उलट-पलट:

हो गई भोर, अरे लड़कों,

गाओ मिलकर छंद, अरे लड़कों,

बाग़ में महके फूल, हवा मंद-मंद आई,

अब किताबें खोलो—ना क्षण भर भी देर लगाई।

यह चौपाई कभी कहावत बन जाती, कभी कविता, कभी उसकी प्रार्थना बन जाती, और कभी नहाते समय खुशी का इज़हार। और यही उसकी ओर से यह साबित करने के लिए काफी था कि—मूलिया कविता नहीं सीख पाया”—यह गाँव की अफ़वाह पूरी तरह बेबुनियाद थी।

छह साल के अथक प्रयासों के बाद उसका निजी गुरु यानी ट्यूशन शिक्षक हार मान गया। फिर भी मूलिया किसी तरह गाँव के स्कूल जाता रहा, पर दो ही साल में प्राथमिक परीक्षा में फेल हो गया। यहीं समाप्त हुई उसकी औपचारिक शिक्षा की दास्तान।

औपचारिक पढ़ाई के बाद, बारह साल की उम्र में मूलिया ने खेती-बाड़ी की दुनिया में क़दम रखा।

वह हल चला सकता था—या कहें, बैलों के पीछे खड़े होकर “हईई!” चिल्ला सकता था, और बैल अपना काम ख़ुद कर लेते थे। कभी-कभी वह जीवन के अर्थ या जन्म-मृत्यु के रहस्यों पर दार्शनिक चिंतन में डूब जाता और इसे अपनी ‘गहरी सोच’ का प्रमाण मानता, हालाँकि इस सोच का पता किसी और को कभी नहीं चलने देता था।

लेकिन जैसे ही उसका मन उथल-पुथल विचारों में उलझता, हल का फाल तिरछा हो जाता। एक बार ऐसी ही ‘दार्शनिक उड़ान’ में, फाल बैल के खुर में इतनी बुरी तरह धँस गया कि बेचारा जानवर पूरे एक महीने तक काम के लायक़ नहीं रहा।

मालिक ने उसे एक-आध नहीं, पूरे इक्कीस थप्पड़ रसीद किए—इतने कि मूलिया भी पखवाड़े भर काम के क़ाबिल न रहा। दिन की मज़दूरी तो गई ही।

यहीं से उसकी पहचान बनने लगी—गाँव का कसाई। हर कोई कहने लगा, “इसे हल मत पकड़ाना—कसाई है, कसाई!”

लेकिन मूलिया हतोत्साहित नहीं हुआ। खेती में सैकड़ों तरह के काम थे—ज़रूर कहीं न कहीं कोई काम उसके लिए भी होगा।

अगला काम मिला—धान के खेत की निराई का।

नियम बिल्कुल साफ़ था: (1) काली जड़ वाले पौधे—असली धान—उन्हें रहने दो। (2) सफ़ेद जड़ वाले पौधे—जंगली धान—उन्हें उखाड़कर कीचड़ में दबा दो।

स्वाभाविक ही था—मूलिया ने सब उलटा समझ लिया।

दोपहर तक पूरा खेत सफ़ेद जड़ों वाले जंगली धान से चमक रहा था, और असली धान की पौधे खरपतवार सहित कीचड़ में दफ़्न पड़े थे।

इसी के साथ उसकी ‘निराई विशेषज्ञ’ वाली नौकरी का अंत हो गया। और उसी दिन से उसका नाम पड़ गया—जंगली धान का प्रेमीTop of FormBottom of Form

कटाई के मौसम में उसे फिर बुला लिया गया—शायद दया से, शायद मज़दूरों की कमी के कारण, या शायद इसलिए कि मूलिया सबसे कम मज़दूरी पर भी कभी शिकायत नहीं करता था।

उत्साह में काम करते-करते उसने तेज़ हँसिए से अपना ही हाथ काट लिया। और फिर मानो कोई सव्यसाची शूरवीर हो, दुस्साहस दिखाते हुए बाएँ हाथ से काटने लगा—पर एक घंटे के भीतर वह हाथ भी लहूलुहान हो गया।

इस तरह साल के अंत तक मूलिया—घायल, बेरोज़गार, और अपनी आधी उम्र के बच्चों के लिए भी हँसी का पात्र बन चुका था। कुछ ही दिनों में उसने इतने उपनाम कमा लिए कि वह छोटी-मोटी ‘स्थानीय हस्ती’ बन गया—सिर्फ़ अपने गाँव में नहीं, पूरे इलाक़े में।

स्वाभाविक ही था—अगले साल किसी ने उसे काम पर नहीं रखा।

मूलिया के पास अपनी कोई ज़मीन नहीं थी; उसकी पैतृक ज़मीन कब की विभूति काका की मिल्कियत में विलीन हो चुकी थी।

तब उसने बरसात के मौसम में कीचड़, गड्ढों और बहते पानी की छोटी-छोटी नालियों से मछली पकड़ना शुरू किया। जो भी मिलता, उसे किसी को देकर बदले में खाना ले लेता।

काका उसे मज़दूरी के बदले खाना देते थे; यह अन्यायपूर्ण सौदा था—पर भूख से तो बचा रहता।

मछली पकड़ना, कम-से-कम, एक ऐसा काम था जिसमें वह दूसरों को कम नुकसान पहुँचाता था—और मछलियों पर भी कम विपत्ति आती थी। इसके अलावा वह जंगल से लकड़ी लाता, जामुन बटोरता, कुएँ से पानी खींचता, और मधुमक्खियों के डंक खाकर शहद निकालता—पर हर काम में कहीं न कहीं, किसी न किसी मोड़ पर, असफलता उसका पीछा कर ही लेती।

फिर भी मूलिया गाँव में ही जमा रहा। वह शहर जाकर होटल में प्लेटें माँजने का काम कर सकता था, पर उसने उस मिट्टी को छोड़ना गवारा नहीं किया—वही मिट्टी जिसने उसे कभी डाँटा, कभी खिलाया, और जिसे वह अपना घर मानता था। गाँव, अपनी सारी हँसी-मजाक के बावजूद, उसका अपना संसार था—और उसी में उसका मन रमता था।

मूलिया कभी अपने भाग्य सुधारने के लिए मंदिर नहीं जाता था। बचपन में उसने किसी से सुना था कि मंदिर का देवता एक आदमी को परीक्षा पास करा देता है। वही चमत्कार की बात उसके मन में अटक गई, तो वह भी आशीर्वाद लेने पहुँच गया।

वह ठीक उसी समय पहुँचा जब पुजारी जी प्रसाद बाँट रहे थे। मूलिया भोलेपन से खड़ा रहा—दोनों हथेलियाँ आगे किए हुए—पर पुजारी ने उसे तो देखा भी नहीं। दूसरों को लड्डू मिला, उसे रत्ती भर भी नहीं। वह मायूस लौटा, और पूजा-प्रार्थना की बात तो बीच में कहीं उड़ ही गई।

उस दिन उसके बाल-मन ने यही नतीजा निकाला कि अनाथों को तो देवता भी लड्डू नहीं देता।” और जब लड्डू ही नहीं मिलता, तो मंदिर जाने का हक़ कैसा? बस, तब से मूलिया को लगा कि वह भगवान के दरबार तक पहुँचने लायक ही नहीं।

एक हमदर्द पड़ोसी दयाल, जो अदालती काग़ज़-पत्र लिखने का काम करता था, भली-भाँति जानता था कि मूलिया की ज़मीन क्यों नहीं बची—विभूति काका ने “सुरक्षा” के नाम पर सब अपनी झोली में डाल लिया था।

दयाल ने ज़ोर डाला कि मूलिया की दो एकड़ ज़मीन उसे वापस मिले। विभूति काका राज़ी तो हुए, पर एक शर्त पर: मूलिया की शादी हो जाए तो कोई समझदार औरत उसकी बुद्धिहीनता सँभाल लेगी।”

लेकिन कौन-सी लड़की ऐसे आदमी से ब्याह करती? यही सोचकर विभूति काका ने एक “उत्कृष्ट” उपाय सुझाया: ऐसा करते हैं, पाँच हज़ार रुपए में बंगाल से लड़की ‘खरीद’ लेंगे। पैसे मूलिया की ज़मीन बेचकर आ जाएंगे।”

ऐसा लगा जैसे विभूति काका ने यह तरकीब अरसे से अपने दिमाग़ में तैयार कर रखी थी—बस उसे अमल में लाने का अवसर और किसी साथी की ज़रूरत थी। अब वह साथी उन्हें दयाल के रूप में मिल गया था।

बात तो सही है—उसकी ज़मीन उसी के काम आएगी,” दयाल ने भी यह तर्क उचित मान लिया।

इस प्रकार, मूलिया की लगभग अस्सी प्रतिशत ज़मीन विभूति काका के नाम हो गई। खून के काका और पड़ोसी काका—दोनों पर आँख मूँदकर भरोसा करते हुए मूलिया ने दस्तख़त कर दिए, अनजान कि दोनों उसी को फँसाने में लगे थे।

उस समय अंतर्राज्यीय दुल्हन-तस्करी का जाल खूब सक्रिय था। वहीं से एक लड़की “मंगवाई” गई—उन दुर्भाग्यशाली लड़कियों में से, जिन्हें कभी अनाथ बताकर, कभी दहेज न दे पाने के कारण “विवाह-बाज़ार में अयोग्य” ठहरा दिया जाता था, और फिर उन पर कीमत लगाकर बेच दिया जाता था। ज़ाहिर है, ऐसी “खरीदी हुई” दुल्हनों को यह भरोसा भी दिला दिया जाता था कि ऐसी शादियाँ कुछ समय के लिए ही होंगी—बस औपचारिकता भर।

शादी का अनुष्ठान बेहद अनौपचारिक रहा। उस दिन लड़की के घर से कोई भी नहीं आया। विभूति काका ही उसके संरक्षक बनकर मंडप में बैठे। पूरा समारोह छोटा और शांतिपूर्ण रहा। भोज पंद्रह दिन बाद रखने की बात कहकर—बिना किसी उचित कारण बताए—टाल दिया गया।

मूलिया तो दुल्हन का नाम तक नहीं जानता था। पर वह धैर्यवान था—सोचा, चौथी रात जब असली दांपत्य-विधि होगी, तब सब पता चल जाएगा।

इस बीच वह पंडित जी के हर आदेश का अक्षरशः पालन करता रहा: टहनी से बने दातून से दाँत मत साफ़ करो—केवल आम के पत्ते इस्तेमाल करो; दाढ़ी मत बनाओ—यह अपशकुन है; बाहर मत निकलो—चुड़ैलें और भूत-प्रेत शरीर में घुस सकते हैं; और न जाने कितनी हिदायतें।

तीसरे दिन तड़के ही फुसफुसाहट शुरू हो गई। दोपहर तक सच सामने आ चुका था—बंगाली दुल्हन ग़ायब थी।

गाँव वाले खोज में निकल पड़े। घर के पीछे का तालाब छाना गया—वह इतना उथला था कि बकरी भी उसमें नहीं डूब सकती थी। श्मशान भी तलाशा गया—क्योंकि माना जाता था कि भूत-प्रेत नई दुल्हनों को वहाँ ले जाकर उन पर तरह-तरह के पैशाचिक प्रयोग करते हैं।

लेकिन दुल्हन का कहीं कोई पता नहीं चला। शाम होते-होते यह बात हाट के दिन की अफ़वाहों की तरह पूरे गाँव में फैल गई। सब यह अंदाज लगा रहे थे कि वह अपनी मायके यानी बंगाल वापस चली गई है।

पास-पड़ोस के संदेह से बचने के लिए दयाल साइकिल लेकर दुल्हन के कथित गाँव की ओर निकल पड़ा—हालाँकि यह सब जानते थे कि वह गाँव कहाँ है, यह बात स्वयं दयाल को भी साफ़ नहीं थी। निकलने से पहले, दयाल और विभूति—दोनों—सतही तौर पर व्यथित होकर घड़ियाली आँसू बहा रहे थे, पर भीतर ही भीतर समझ चुके थे कि लोग इतनी आसानी से उन्हें बेक़सूर नहीं मानेंगे। फिर भी, रात दस बजे वह एक कामयाब जासूस की भाँति लौट आया और घोषणा की कि दुल्हन और उसका पूरा परिवार तीर्थयात्रा पर गया है। पड़ोसियों के हवाले से उसने यह भी जोड़ दिया कि यह यात्रा शादी के उपलक्ष्य में किए गए किसी व्रत का हिस्सा है।

गाँव वालों को इस कहानी पर ज़रा भी भरोसा नहीं हुआ। जिस गाँव का ज़िक्र दयाल ने किया था, वहाँ जाकर जाँच-पड़ताल सम्पन्न कर उसी रात साइकिल से लौट आना लगभग असंभव था।

लेकिन तब तक मूलिया की लगभग सारी ज़मीन विभूति काका के नाम हो चुकी थी—अब आधिकारिक रूप से भी। उसके हिस्से में बस एक पानी से भरा, बेकार-सा टुकड़ा बचा था।

विभूति काका ने फिर “महानता” दिखाते हुए मूलिया को अपने घर में रख लिया—मज़दूरी के बदले रोटी देकर। बाद में उनका बेटा श्याम सुंदर भी यही परंपरा निभाता रहा। मूलिया अपनी ही शैली में, भले अनाड़ीपन से, पर पूरी निष्ठा से मेहनत करता रहता।

पर भीतर ही भीतर वह एक सपना सँजोए था—वह दोबारा शादी करेगा।

उसका आत्मविश्वास अडिग था—ना वह बूढ़ा है, ना अयोग्य। वह अभी भी पानी ढो सकता है, लकड़ियाँ ला सकता है, सब्ज़ियाँ तोड़ सकता है—और शायद किसी दिन, एक पत्नी भी हासिल कर सकता है।

पैसा भी कोई समस्या नहीं थी—उसका कीचड़ भरा छोटा-सा टुकड़ा पाँच हज़ार में खरीदने को लोग तैयार थे।

लेकिन अफ़सोस—अब उसके विवाह-वार्ताओं में मदद करने वाला कोई नहीं बचा था। विभूति काका और दयाल काका—दोनों चल बसे थे। और अंतर्राज्यीय दुल्हन-तस्करी का जाल भी बहुत पहले ही टूट चुका था।

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By

अनन्त नारायण नन्द 

बालासोर, 5/12/2025 

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