पापों की पट्टी
पापों की पट्टी
कुछ यादें
धुँधलाती नहीं; वे पकती हैं।
यह कहानी
एक आकस्मिक मुलाक़ात, एक पुरानी पट्टी, और उन अदृश्य दाग़ों की है जिन्हें वक़्त भी नहीं मिटा सका। सुवर्णपुर
में नाश्ते और चाय के बहाने शुरू हुई वह साधारण-सी शाम धीरे-धीरे गरिमा, क्षमा, और प्रमोद नाम के
एक सज्जन मनुष्य की शांत महानता का अविस्मरणीय पाठ बन गई।
शाम के
पाँच बजे होंगे—वह जादुई घड़ी जब सुवर्णपुर की गलियों में तली हुई चीज़ों की महक
किसी उत्सव-सी हवा में घुल गई थी। मैं बस स्टैंड पर खड़ा चाय की प्रतीक्षा कर रहा
था कि तभी पाँच साल बाद एक जानी-पहचानी सूरत दिखी।
“प्रमोद!” मैंने पुकारा।
वह पलटा, चौंका, और फिर
मुस्कराया—एक ऐसी मुस्कान जिसमें गर्माहट भी थी और थकान भी।
हम स्कूल
के साथी थे। जीवन ने मुझे सफ़ेदपोश नौकरी की दिशा में दूसरे शहर पहुँचा दिया और
प्रमोद अनिश्चित रोजगारों की एक भटकती यात्रा पर निकल पड़ा। कभी फोन बूथ, कभी फोटोकॉपी की दुकान, अंततः वह
एक खिलौना फ़ैक्टरी में चौकीदार बन गया।
उसकी
पढ़ाई औसत से भी नीचे रही। तीसरे प्रयास में मैट्रिक पास करने के बाद उसने खुद को
“फेल” नहीं, बल्कि “परीक्षा व्यवस्था से असंगत” मान
लिया। यह सच्चाई स्वीकारते हुए उसने काम की तलाश शुरू की—बिना किसी हिचकिचाहट या
झूठे अहम के। उसे कोई भी मेहनत अपनी गरिमा के खिलाफ़ नहीं लगती थी। उसने कई छोटे
व्यवसाय आज़माए—साइकिल पर चावल बेचने से लेकर फोन बूथ चलाने तक, और फिर एक अंधेरी गली में दो मेज़ों वाली कॉफी शॉप तक, जहाँ प्रेमी जोड़े अँधेरे की आड़ में अपनी निकटता नापते और बढ़ाते थे।
परंतु कोई भी व्यवसाय चला नहीं।
चौकीदारी
की नौकरी भी एक कड़ी परीक्षा के बाद मिली थी। वर्षों पहले, एक ग्राहक का बटुआ चोरी होने के झूठे आरोप में उसे मारा-पीटा गया, अपनी दुकान से घसीटकर हवालात में डाला गया, और भूखे पेट बाहर फेंक दिया गया। तभी एक सुबह की सैर पर निकले एक
दयालु व्यक्ति—एक फ़ैक्टरी मालिक—ने सड़क किनारे उसे पड़ा देखा, उसे उठाया, चाय पिलाई, और उसकी दुखभरी कहानी सुनी। यद्यपि वह युवक को संदिग्ध अपराधी बताया
गया था,
पर उस उद्योगपति में इंसान पहचानने की नज़र थी। उसने प्रमोद की सच्चाई
को महसूस किया और उसे अपने कारखाना में चौकीदार की नौकरी दे दी।
“उस आदमी ने मेरी किस्मत बदल दी,” प्रमोद ने
कभी बताया था।
पर उस शाम, पाँच साल बाद की मुलाकात में, हम किसी
दुःखभरी कहानी नहीं, बल्कि हल्की-फुल्की बातें करते रहे—खासकर नाश्ते और चाय की। प्रमोद
ने ज़िद की कि हम चांदी जलपान (Silver Snacks) चलें—वह
मशहूर ढाबा, जो पकौड़ों, समोसों और मिठाइयों के लिए घर-घर में जाना जाता था। “आज मेरी ट्रीट,” उसने चेताया, जब मैंने भुगतान
करने की पेशकश की, तो उसने उंगली
लहराई।
हम उस
छोटी-सी चहल-पहल भरी दुकान में दाख़िल हुए। हवा में बेसन और उबलते तेल की खुशबू
घुली थी—मानो छोटे शहर की संध्या ने इत्र लगा रखा हो। प्रमोद ने समोसे, पकौड़े और मिहिदाना का एक प्लेट मंगाई। मिहिदाना एक ऐसी मिठाई थी, जिसके छोटे-छोटे दाने सुनहरी आभा में चमकते थे—मछली के अंडों जैसे
दिखते,
लेकिन जीभ पर पड़ते ही मक्खन-से पिघल जाते थे। फिर आई चाय—पहले से बनी
नहीं,
बल्कि ताज़ा उबाली हुई—जिसमें गरमाहट के साथ एक ख़ातिरदारी भी थी।
भुगतान का
समय आया तो वेटर ने कोई बिल नहीं थमाया, बस जोर से
रकम पुकार दी। हम काउंटर पर पहुँचे, जहाँ
मालिक स्वयं एक पुरानी काली पट्टी पर चूने की डंडी से हिसाब जोड़ रहा था। साठ के
पार का वह आदमी किसी नौकर पर पैसों के मामले में भरोसा नहीं करता था, अतः वह स्वयं रकम काउंटर संभालता था।
वह पट्टी
मुझे आकर्षक लगी। कैलकुलेटरों और डिजिटल टैबलेटों के इस युग में वह अब भी पचास के
दशक की उस निशानी का उपयोग कर रहा था। कभी मैंने भी पुराने फाउंटेन पेन जमा करने
की कोशिश की थी, इसलिए उस पट्टी से एक अजीब आत्मीयता
महसूस हुई—जैसे उस उपकरण ने चुपचाप किसी इंसान के धैर्य और जिजीविषा का सफर—फटेहाल
से सम्पन्नता तक—देख लिया हो।
मालिक ने
मेरी दिलचस्पी भाँप ली और मुस्कराकर कहा, “छूना
चाहोगे इसे?”
मैंने हाथ
बढ़ाया ही था कि प्रमोद ने रोक दिया। उसका चेहरा सख़्त हो गया।
“नहीं—मत छूना इसे,” उसने धीमे
स्वर में कहा।
मैं हैरान
था,
पर चुप रहा। उसने पचपन रुपये का छोटा-सा बिल चुकाया और हम बस स्टैंड
के पास नीम के पेड़ तले आ बैठे। सांझ उतर रही थी।
“अब बताओ,” मैंने पूछा, “क्यों रोका मुझे पट्टी पकड़ने?”
प्रमोद ने
दूर आसमान की ओर देखा। “क्योंकि उस पट्टी ने बहुत पाप सोख लिए हैं,” उसने धीरे-धीरे कहा। “उस पर लिखी हर रकम धोखे से कमाई गई है। वह मालिक
मज़दूरों का हक़ मारता है, माल में मिलावट
करता है,
और अपने पुराने साझेदार को भी छलकर धंधे से बाहर कर चुका है।”
मैंने
तर्क दिया, “मुनाफ़ा पाप नहीं होता, प्रमोद। हर व्यवसाय सस्ते में खरीदकर महंगे में बेचने पर चलता है।”
वह हल्के
से मुस्कराया। “मुनाफ़े से नहीं, बेदर्दी से फर्क पड़ता
है।”
फिर उसने
अपनी कहानी सुनाई—जब वह किशोर था, बेरोज़गार और भूखा, तो काम की तलाश में इसी दुकान पर आया था। मालिक ने कहा कि वह उसे खाना
तभी देगा जब वह पहले सारे गंदे बर्तन मांज दे और रसोई साफ़ करे। भूख से बेहाल
प्रमोद ने हामी भर दी।
काम ख़त्म
होने पर भी उसे बैठने नहीं दिया गया।
“नौकर बैठकर नहीं खाते,” मालिक ने
कहा।
कोने में
खड़ा,
उसे दो बासी समोसे थमाए गए। ये दो दिन पुराने थे और कूड़े के डिब्बे
से निकाले गए थे। भूख इतनी थी कि उसने बिना कुछ कहे खा लिए। उस रात वह अपने चार
साथियों के साथ साझा किए गए मेस में बीमार पड़ गया। घर पर बने ओ.आर.एस. घोल की
बदौलत वह ठीक हो गया।
“वह आदमी मुझे कभी याद नहीं करेगा,” प्रमोद ने
शांत स्वर में कहा। “पर मैं देखना चाहता था—क्या वक़्त ने उसे बदला है, या उसकी पट्टी को।”
मुझे
लज्जा हुई कि अभी-अभी “ऐतिहासिक” कहकर मैंने उसी पुरानी पट्टी की प्रशंसा की थी, और साथ ही गहरा अपराधबोध भी हुआ कि मैं अब तक अपनी जिगरी दोस्त प्रमोद
की यह दुःखभरी कहानी नहीं जानता था।
मैं
बुदबुदाया, “फिर तुम्हें मुझे वहाँ नहीं लाना चाहिए
था।”
वह
मुस्कराया। “पुराने अपमान का हिसाब बराबर करना था—वहीं हक़ से बैठकर खाना था, जहाँ कभी मुझे बैठने नहीं दिया गया था। यह देखना था कि क्या अब भी वही
स्वाद है। शायद, अंत में, उस पट्टी
वाले व्यापारी को माफ़ कर देना ही मेरा सच्चा मक़सद था। दो दिन की ज़िंदगी में क्रोध कितने दिन तक ढोते रहेंगे, भाई।”
लेकिन मैं
अपनी बेचैनी से छुटकारा नहीं पा सका। हम हल्के से हाथ मिलाकर विदा हुए।
बाद में
प्रमोद ने दो बार फ़ोन किया—शायद इसलिए कि मेरे मन में बची कोई कसक मिटा दे—पर तब तक मैं उस अप्रिय स्मृति को दिल की
तहों में दबा चुका था। मुझे यह खबर नहीं थी कि मेरा दोस्त लाइलाज बीमारी—वह डरावनी
“C”
बीमारी—से जूझ रहा है और उसका समय कम बचा है। शायद, उसने मुझे वह
भयावह ख़बर सुनाने के लिए फ़ोन किया था, पर आखिरी
क्षण में खुद को रोक लिया। अपने दोस्त पर दुःख का बोझ डालना उसे स्वार्थपरता लगता—वह
इतना सज्जन था। उसे भरोसा था—जब वक़्त आएगा, मैं अपने
आप सब जान जाऊँगा, और शायद उसके बारे
में कुछ अच्छा भी कहूँगा। यही सोचकर वह निश्चिंत हो गया। आखिरकार, हमदर्दी बटोरने के लिए “स्पैम कॉल” करने की उसे क्या जरूरत थी!
आख़िरी
बार जब उसने फ़ोन किया, उसकी आवाज़ में
वही विनम्र, शांत भाव था जो दर्द को ढँक लेता है।
उसने अस्पतालों या इलाज की बात नहीं की—सिर्फ़ दोस्ती की। उसने कहा, “तुम एक सच्चे सज्जन हो, और मैं
प्रार्थना करूँगा कि हर जन्म में मुझे तुम्हारे जैसा दोस्त मिले।” मैंने हँसकर बात
टाल दी—यह जाने बिना कि वह चुपचाप विदा ले रहा था।
जब उसके
निधन की ख़बर मिली, मेरे मुँह से सहज
ही निकल पड़ा—
“हाय रे
विडंबना! प्रमोद जैसे नेक इंसान का जल्दी जाना तय था।”
और तभी
मुझे वह पट्टी याद आई—जिसे मैं छूने ही वाला था—और समझ गया कि उसने मुझे क्यों
रोका था।
कभी-कभी
सोचता हूँ, काश मैं उस दिन के दृश्य को फिर से जी
पाता—जिसका बदला लेने के लिए प्रमोद मुझे अपने साथ चांदी जलपान ले गया
था।
अगर संभव
होता तो उसकी रसोई के किसी कोने में खड़ा होकर, मैं वही
बासी समोसा खाता और उसके जुझारू आत्मा को अपने भीतर महसूस करता। मेरी आँखें अचानक
आँसुओं से भर गईं।
*** ***
*** *** ***
उस शाम की
स्मृति अब भी ताज़ा है—न तो भोजन के स्वाद के लिए, न पुराने
दोस्त की मुलाक़ात के लिए—बल्कि इसलिए कि एक वस्तु ने मेरे भीतर नैतिक भार छोड़
दिया था: एक स्लैट की पट्टी, जिसने लाभ और
पीड़ा दोनों को दर्ज किया था।
कभी-कभी
पाप केवल मनुष्यों में नहीं बसता। वह उनके औज़ारों, उनकी
दफ्तरी किताबों, उनकी मशीनों—या उनकी यादों—में भी ठहर
जाता है,
जब तक कि कोई अंतरात्मा, प्रमोद
जैसी,
उसे मुक्त न कर दे।
अब जब मैं
उसके बारे में सोचता हूँ, तो न वह थका हुआ
चौकीदार दिखाई देता है, न असफल युवक—बल्कि
वह मनुष्य, जिसने चुपचाप एक निर्दयी दुनिया को माफ़
कर दिया,
और मुझे सिखाया कि क्षमा भी
साहस का एक रूप है।
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By
अनन्त नारायण नन्द
बालासोर, दिनांक 21-11-2025
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Labels: Hindi stories, short story

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