The Unadorned

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Thursday, December 25, 2025

विक्की की घंटी

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विक्की की घंटी

मीता अभी केवल सात वर्ष की थी और तीसरी कक्षा में अपनी शिक्षिका की चहेती भी। इतनी छोटी उम्र में ही वह अधिकार और मित्रता के बीच का महीन अंतर समझती थी—ऐसी समझ, जो बहुत-से बड़े लोग भी नहीं विकसित कर पाते।

उसके पिता लोचन के पास चार बकरियाँ थीं, लेकिन उनमें से एक अलग ही पहचान रखती थी—आकार से नहीं, दुलार से। उसका नाम था विक्की। वह एक युवा नर-बकरा था, जिसे एक साल पहले साप्ताहिक हाट से खरीदा गया था और अब वह मज़बूत, तंदुरुस्त हो चुका था। उसका रंग गहरा काला था, पीठ पर एक उभरा हुआ सफ़ेद धब्बा, और रोएँ इतने चमकदार थे कि पड़ोसी मज़ाक में पूछते रहते—क्या मीता उसे नियमित रूप से शैम्पू से नहलाती है? या नारियल तेल लगाती?

लेकिन विक्की को सचमुच ख़ास बनाती थी उसके गले में बँधी छोटी-सी पीतल की घंटी।

जहाँ-जहाँ वह जाता—दूसरी बकरियों के साथ मंथर चाल से चलता हुआ, आँगन पार करता हुआ या बरामदे का चक्कर लगाता हुआ—घंटी की मधुर टुन-टुन आसपास की ग्रामीण निस्तब्धता में एक सुखद व्यवधान पैदा कर देती। वह शोर नहीं करती थी; वह अपनी उपस्थिति का बोध कराती थी।

हर सुबह मीता बरामदे में बैठकर पढ़ाई करती। पास में मुरमुरे और सूखे नाश्ते से भरा एक कटोरा रखा होता। विक्की पास ही बैठ जाता, इत्मीनान से जुगाली करता और बिना किसी औपचारिकता के उसी कटोरे में मुँह डाल देता। दोनों एक ही कटोरे से खाते—बिना किसी इंसान-जानवर के भेद की परवाह किए।

मीता की माँ फूलना ने इसका विरोध किया—नरमी से, पर दृढ़ स्वर में।
देख मीता, यह सेहत के लिए ठीक नहीं है।”

लेकिन मीता को लगता था कि वह बेहतर जानती है—या कम-से-कम उसे ऐसा ही लगता था। वजह भी उसके हिसाब से ठोस थी। विक्की पूरी तरह शाकाहारी था। वह घास, टहनियाँ, चना, मिर्च, चावल के कण, फल और सब्ज़ियाँ खाता था। वह मुर्गियों की तरह कीड़े नहीं चुगता था, न ही कुत्तों की तरह गंदगी में मुँह मारता—जिनकी आदतों के बारे में मीता ने अपने उन दोस्तों से डरावनी बातें सुनी थीं, जिन्हें अब भी खुले में शौच जाना पड़ता था। मीता के लिए विक्की बिल्कुल साफ़ था। उसके चमकते रोएँ ही इसका प्रमाण थे।

जहाँ दूसरी बकरियाँ खूँटे से रस्सियों के सहारे बँधी रहती थीं, वहीं विक्की को स्नेह के कारण विशेषाधिकार मिले हुए थे। मीता की ज़िद पर वह घर के भीतर भी आ जाता, घिरे हुए आँगन में भी घूमता। एक बार तो मीता ने यह तक सुझाव दिया कि विक्की उसके कमरे में सोए। उस प्रस्ताव को सख़्ती से ठुकरा दिया गया।

फिर भी, विक्की को कभी बाँधा नहीं गया।

एक साल से ज़्यादा का होते ही पड़ोसियों की नज़र उस पर पड़ने लगी। बिना तराज़ू के ही वे अनुमान लगाने लगे कि उससे पंद्रह, शायद सोलह किलो मटन निकल सकता है। सौदेबाज़ियाँ शुरू हो गईं, रकम उछाली जाने लगी। कोई अंतिम फ़ैसला नहीं हुआ। इसी तरह विक्की खाते-फुदकते लगभग दो साल का हो गया।

और तभी दशहरा नज़दीक आ गया।

एक दिन मीता ने पड़ोसियों की बातें सुन लीं। वे दशहरे के भोज के लिए विक्की को मारने की योजना बना रहे थे। एक पल को उसे लगा कि शायद वे उसे चिढ़ाने के लिए ऐसा कह रहे हैं, लेकिन वे शब्द उसके भीतर तक उतर गए—और उसे तोड़ गए।

मीता का पक्का विश्वास था कि विक्की मरने के लिए पैदा नहीं हुआ था। वह उसका मित्र था—उसका सबसे क़रीबी साथी।

उसकी घंटी सिर्फ़ सजावट नहीं थी; वह एक प्रतीक थी। हर टुन-टुन जैसे उसे याद दिलाती—मित्रों की रक्षा की जाती है, उन्हें उत्सव के लिए ज़िबह नहीं किया जाता।

जब मीता ने इसका विरोध किया, तो बड़े लोग हल्के-से हँस दिए। दशहरे पर मटन ज़रूरी था। वे ऐसे मज़बूत बकरे के लिए पंद्रह हज़ार रुपये तक देने को तैयार थे। उसके माता-पिता चुपचाप सुनते रहे।

मीता उस चुप्पी का अर्थ समझ गई—हालाँकि लोचन को अग्रिम राशि देने की औपचारिकता मीता की आँखों से दूर ही निभाई गई थी।

पर एक सात साल की बच्ची अपने मित्र को भाग्य से कैसे बचाए?

उसने विक्की को छिपाने का फ़ैसला किया।

पूरब की ओर लगभग दो किलोमीटर दूर केवड़े की झाड़ियों से भरा एक जंगली इलाका था—घना, काँटेदार और सुनसान। मीता ने उसे अपने मामा के गाँव जाते समय कई बार नज़दीक से देखा था। छिपने के लिए वही एक सही ठिकाना हो सकता था।

दशहरे की सुबह, नाश्ता करने के बाद, मीता चुपचाप विक्की को लेकर निकल पड़ी। वह सावधान थी। विक्की भी पूरा सहयोग कर रहा था—न मिमियाया, न विरोध किया; आखिर वह अपने जिगरी दोस्त के साथ था। वह इतना सतर्क था कि गले की घंटी भी मुश्किल से हिली। वे कसाई के आने से पहले निकल गए।

मीता को त्योहार के नियमों की थोड़ी-बहुत समझ थी। देवी दुर्गा की विदाई—यानी विसर्जन—के बिना बकरे को नहीं काटा जा सकता था। सारे अनुष्ठान ग्यारह बजे तक पूरे हो जाते। तभी हत्या को निष्पाप माना जाता।

कसाई अपनी अग्रिम राशि पहले ही ले चुका था। इसका मतलब विक्की के भविष्य का फ़ैसला अंतिम हो चुका था।

चलते-चलते मीता के मन में डरावनी तस्वीरें उभरने लगीं। क्या वे विक्की का सिर काट देंगे? या उसे धीरे-धीरे खून बहाकर मारेंगे? एक दोस्त ने कभी उसे डराने के लिए बताया था—गले की नस काटी जाए तो मिनटों में सारा खून निकल जाता है; यहाँ तक कि ज़िंदा बकरे के घुटनों पर भी वार किया जा सकता है। उन कल्पनाओं से उसका दिल काँप उठा।

वे दोनों केवड़े की झाड़ियों तक पहुँच गए। विक्की को हर ओर खाने को मिला और वह लालच से खाने लगा। मीता उसे खींचती रही, फुसफुसाकर चेतावनी देती रही, लेकिन भूख जीत गई। अंततः उसने उसे ग्यारह बजे तक खाने दिया।

उसने विक्की के साथ निकलने में पूरी सावधानी बरती थी, इसलिए उसे यक़ीन था कि किसी बड़े ने उसे चुपके से जाते नहीं देखा होगा। लेकिन निकलते समय उसकी नज़र बागी नाम के एक छोटे लड़के पर भी पड़ी थी। मीता ने उसे पाँच लॉज़ेंज देने का लालच दिया और सख़्त हिदायत दी कि वह उन दोनों के भाग जाने की ख़बर किसी से न बताए। मगर मिठाई से ज़्यादा उस लड़के को अपने पिता की नज़रों में अहमियत हासिल करना लुभावना लगा। शायद उसने उन दोनों के भागने की बात, पिताजी के पूछने से पहले ही बता दी थी।

ग्यारह बजे से पहले ही एक पड़ोसी उस केवड़े के मैदान में आ पहुँचा। वह उन्हीं लोगों में से था, जिन्होंने मिलकर कसाई और लोचन को अग्रिम राशि दी थी। हाँफता हुआ, बेचैन, उसने मीता का सामना किया।

तुम यहाँ विक्की के साथ क्या कर रही हो?” उसने कहा। “इसे फ़ौरन छोड़ो। पूजा-पाठ खत्म होते ही देवी दुर्गा स्वर्ग लौट जाएँगी, और तब इसे काटा जाएगा।”

विक्की मेरा दोस्त है,” मीता बोली। “मैं अपने दोस्त को कैसे मरने दूँ?”

वह आदमी सिर हिलाने लगा। “हम इसे दोस्ती नहीं मानते। जान लो, पाँच हजार रुपये दिए जा चुके हैं। बकरे की रस्सी दो।”

और उसने विक्की को झपटकर छीन लिया।

मीता फूट-फूटकर रो पड़ी—उसकी सिसकियाँ विक्की का भाग्य नहीं बदल सकीं। वह अकेली घर लौट आई, गालों पर आँसू बहते रहे।

उसे पता था, आगे क्या होगा। सब तय था। विक्की मांस बन जाएगा।

वह उदासी में खुद को कमरे में बंद कर लेटी, तकिए में मुँह छुपाए।

दोपहर तक फूलना उसके पास आई। उसने मीता को पुचकारा और वादा किया कि गुज़र चुकी आत्मा के सम्मान में परिवार में कोई भी उस मटन को नहीं खाएगा। लेकिन मीता का मन नहीं माना।

तब उसकी माँ ने एक और वादा किया।

मैं तुम्हारे लिए एक तोता खरीद दूँगी, मेरी प्यारी,” उसने धीरे से कहा।
तोते को कोई नहीं ले जाएगा। उसका मांस कोई नहीं खाता।”

यह बात धीरे-धीरे मीता के दिल तक पहुँची। सिसकियों के बीच उसने पूछा,
विक्की की घंटी कहाँ है?”

फूलना पहले से तैयार थी। उसने घंटी पहले ही उतारकर अपनी साड़ी के पल्लू में गाँठ बाँध रखी थी। उसने गाँठ खोली, छोटी-सी पीतल की घंटी निकाली और मीता को थमा दी।

मीता ने उसे ऊनी धागे में बाँधा और खिड़की के ऊपरी रोशनदान से टाँग दिया।

हवा आई। घंटी बजी—एक पवन-झंकार यानी विंड चाइम की तरह।

आँसुओं के बीच मीता सुनती रही।

फिर उसने माँ को चेतावनी दी—दृढ़ स्वर में—अगर एक महीने में तोता नहीं आया, तो मैं स्कूल जाना बंद कर दूँगी।”

घंटी बजती रही।

आख़िरकार, मित्रता इतनी आसानी से नहीं मिटती।

घंटी की टुन-टुन यूँ ही हवा में घुलती रही—यह जताते हुए कि चेतना में बसी किसी की उपस्थिति, अधिकार से कहीं अधिक टिकाऊ होती है।

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By

अनन्त नारायण नन्द 

भुवनेश्वर / 26-12-2025 

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