कबूतरों के साथ : Among Dear Little Doves
----------------------------------
This is a story from "Virasat" that I posted in my blog sometime back in its translated form under the caption, "Among Dear Little Doves". This can be read in this link [click here]. Here is the original story in Hindi.
--------------------------------------------------------
कबूतरों के साथ
अंत
में उसे लाइलाज बीमारी बददुआ के रूप में लग गई । ऐसी बीमारी दुश्मन को भी न लगे ।
कैंसर की भयंकरता से कौन नहीं वाकिफ़ है? परिवार को तो ख़र्च करते-करते एक दिन कंगाल बनना
ही था, पर बाहर से भी
मदद मिलनी कुछ दिनों में बंद हो गई । यह सच है कि वह सरकारी मुलाज़िम था और इसके
नाते जो कुछ भी सुविधाएँ प्राप्त हो सकीं, उससे ज़िंदगी का पहिया कुछ दिन आगे लुढ़कता रहा ।
फिर एक दिन डॉक्टरों ने उसे घर लौटने की सलाह दे डाली । घर आकर वह अपनी आख़िरी साँस
के इंतज़ार में बिस्तर पर पड़ा रहा।
बिगड़े नसीब का वह व्यक्ति था रामखिलावन पान्डे, रेल डाक सेवा
छँटाई सहायक । उम्र चालीस पार कर चुका था । अगर कैंसर के साथ मुठभेड़ न होती तो
रामखिलावन को और बीस साल नौकरी करने का मौक़ा मिलता । देखने में वह था तो
हट्टा-कट्टा, साथ में उसकी मूँछें उसे एक ज़बरदस्त व्यक्तित्व प्रदान करती थीं । भयंकर! सच
बोलो तो वह था ही ऐसा ।
बीस साल की नौकरी के दौरान उसने क्या कुछ नहीं
किया ? वह सरकारी सेवा
की आय से संतुष्ट रहने वाला प्राणी नहीं था । महाजनी कारोबार किया, नेतागिरी की और
इन सबों में अपने से कमज़ोर बंदों को डराने-धमकाने की आवश्यकता होती है, सो उसने
आवश्यकतानुसार हाथापाई भी की । इस तरह उसका रंग जम गया था । रामखिलावन नैतिक-अनैतिक
के चक्कर में नहीं रहता। उसके लिए सब कुछ जायज़ था । यहाँ तक कि अपने दफ़्तर में
कबूतरों को घोंसलों से निकालकर उन्हें मारकर खा भी जाता था । ख़ैर, कच्चा नहीं, उसे लज़ीज़ व्यंजन
बनाकर ।
अपने सहकर्मी के उस स्वभाव पर कई तो बेहद दु:खी
थे और कुछ उसे यह सब न करने की सलाह समय-समय पर देते भी थे । ख़ासकर, वहाँ के वरिष्ठ
कर्मचारी प्रभुदयाल कहते थे, 'रामखिलावन, तुम यह सब क्यों करते हो? बेचारे कबूतरों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है कि
तुम हर हफ़्ते एक को इतनी बेरहमी से खा जाते हो ?’
रामखिलावन था तो उग्र स्वभाव का, लेकिन बड़ा बाबू
प्रभुदयाल से जवाब तलब नहीं करता था । वही एक आदमी थे जिन्हें रामखिलावन मानता था
। इसलिए उसने अपना कबूतर चुराने का कार्यक्रम बदल डाला । तलाश में रहता था कि कब
प्रभुदयाल छुट्टी पर रहेंगे, ताकि वह बेफ़िक्र होकर कबूतर ले जा सके ।
प्रभुदयाल अपनी वरीयता के नाते रामखिलावन को
सिर्फ़ उपदेश ही नहीं दिया करते थे, बल्कि वे कई धार्मिक उदाहरण भी देते । कभी-कभी तो वे
जात-पाँत का भी सहारा ले लेते थे ।
'रामखिलावन, ब्राह्मण होकर क्या आपको यह सब शोभा देता है ? आपका सारा ख़ानदान
तो शाकाहारी है, पर आप कबूतर क्यों खाते हैं ?’ एक बार बड़ा बाबू ने पूछा।
रामखिलावन ने कुछ जवाब नहीं दिया, उसने ख़ामोश रहना
उचित समझा । सवाल-जवाब के चक्कर में वह नहीं पड़ना चाहता था । उसके हिसाब से
प्रभुदयालजी के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता, क्योंकि दुनिया में कोटि-कोटि मनुष्य मांसाहारी
हैं । उसने मन ही मन सोचा, 'कबूतर तो कोई आदमी नहीं, फिर इतना हंगामा क्यों ?’
लेकिन एक दिन रामखिलावन को होश आया । सचमुच
उसमें ज्ञान की एक झलक-सी कौंधी । घटना थी कुछ इस प्रकार की--रामखिलावन ने उस दिन
एक कबूतर चुरा लिया और इत्तफ़ाक़न बड़ा बाबू प्रभुदयाल तब डियूटी पर थे । रामखिलावन
कबूतर चुराने के बाद तुरंत उसका गर्दन मरोड़कर मार देता था,
लेकिन इस बार वह उस
औपचारिकता को भूल गया । कबूतर को अपने थैले में रखकर छिपा दिया और प्रभुदयाल के
पास आया ।
'बड़े बाबू, मैं आधे घंटे के लिए दफ़्तर से बाहर जाना चाहता
हूँ ।’ रामखिलावन ने
प्रभुदयालजी से अनुमति माँगी ।
'पर क्यों ? अब डाक आने वाली है और आप को ऐसी क्या
अर्जेन्सी आ पड़ी कि आप अभी बाहर जाना चाहते हैं ?’ प्रभुदयाल ने पूछा।
'पेट में गड़बड़ी है, क्या करूँ ? घर जाकर एकाध गोली ले लेता ।’ रामखिलावन की यह
बात ख़त्म भी नहीं हुई थी कि उसी क्षण कबूतर थैले से निकलकर प्रभुदयाल के पास आ
पहुँचा । अधमरा वो नन्ही जान वहाँ जाकर प्रभुदयाल के मेज़ पर बैठ गया ।
रामखिलावन उस स्थिति को भी सँभाल लेता अगर उसे
आदतन कबूतर को क़ाबू में न लेना पड़ता । पर वह क्या करे, उसका हाथ तो अपने-आप वहाँ चला गया ।
अब प्रभुदयाल सब कुछ समझ गए । रामखिलावन क्यों
आधे घंटे के लिए इजाज़त माँग रहा था, कबूतर क्यों अधमरा होकर उनके टेबुल पर आ पहुँचा, रामखिलावन ने
क्यों उसे क़ाबू में कर लिया, वग़्रौह-वग़्रौह । बड़े दु:खी हो गए वे । उन्हें लगा कि सारी
मेहनत के बावजूद वे अपने सहकर्मी पर कोई प्रभाव नहीं डाल सके । उसके मन में जीवों
के प्रति करुणा और दया का भाव जाग्रत् करने में उनकी अब तक की कोशिशें नाकाम होकर
रह गई थीं ।
सिर्फ़ कुछ ही क्षणों में प्रभुदयाल के मन में
आशा की किरणें जागने लगी। क्यों न एक कोशिश और की जाए ? ज़िंदगी भर वे आध्यात्मिक राह पर कई
परीक्षण-निरीक्षण कर चुके थे, और उन्हें यह अटूट विश्वास था कि आदमी के अंदर हमेशा अच्छाई
के बीज अंकुरित होने के लिए तत्पर रहते हैं । बस, सिर्फ़ सज्जनों का साथ चाहिए । सिर्फ़ एक दैवी
क्षण का इंतज़ार रहता है उन्हें।
प्रभुदयाल को लगा कि आज वह दैवी क्षण आ गया है
। उन्हें रामखिलावन को रास्ते पर लाना होगा । ज़िंदगी में एक बार, सिर्फ़ एक बार ।
'रामखिलावन, जानते हो, यह कबूतर कौन है ?’ प्रभुदयाल ने स्थितप्रज्ञ दार्शनिक की तरह बड़ी
नर्मी से पूछा ।
रामखिलावन चौंक गया । सोचने लगा, 'एक कबूतर, कबूतर ही है ।
कबूतर के सिवाय और क्या हो सकता है ?’
अपने सहकर्मी को चकित हुए देखकर प्रभुदयाल बोले, 'देखो भाई, इसे सिर्फ़ कबूतर
न समझो । यह तो पिछले जन्म में था इसी छँटाई कार्यालय का एक छँटाई सहायक । नाम था
उसका बृजभूषण और वह हृदयरोग से मर गया । बेचारा बृजभूषण, मरते दम तक उसने चिट्ठियों का साथ न छोड़ा!’
प्रभुदयाल के लफ़्ज़ों में रूहानी ताक़त थी । कोई
दूसरा वक्त होता तो रामखिलावन शायद ही उसे समझ पाता । लिहाज़ा उसके मन में
ग्रहणशीलता का दौर चलने लगा था । इससे पहले जिसे वह निहायत साधारण समझा करता था, अब उस पर नया
प्रकाश प्रतिबिंबित होने लगा । उसके सामने कबूतर एक साधारण पंछी होकर नहीं रहा ।
वह मानव का एक अवतार था । इस प्रकार रामखिलावन गहरी सोच में डूब गया । 'तो अब तक जो सौ
से ज़्यादा कबूतर मैं खा चुका हूँ, क्या वे सब अपने पूर्वज थे ? क्या मैं अब तक आदमी का गोश्त खा रहा था ? क्या मैं इतना
बड़ा राक्षस हूँ?’
घर लौटकर रामखिलावन सचमुच बीमार पड़ गया ।
छुट्टी ली। छोटे डॉक्टर से बड़े डॉक्टर तक पहुँचा। छोटे अस्पताल से बड़े अस्पताल
पहुँचा । अंत में पहुँचा टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल, मुंबई । तब तक पेट में कैंसर हो चुका था और
सारे भीतरी अंगों में संक्रमण फैल गया था। अस्पताल में एक के बाद एक कैमोथरॉपी
होने लगा । कुछ फल तो ज़रूर मिला, पर वो चंद दिनों के लिए । अंत में डॉक्टरों ने रामखिलावन को
घर लौटने की सलाह दे दी । वह इस सलाह का अर्थ समझ रहा था ।
बिस्तर पर पड़े-पड़े रामखिलावन ऊब गया था । उसे
अब मरने का डर न था । निश्चित चीज़ पर डर क्या ? लोग डरते हैं अनिश्चित पर । उसने सोचा, 'क्यों न एक बार
दफ़्तर से हो आऊँ, आख़िर मुझे तो मरने के बाद वहीं रहना है ।’
अपने रिश्तेदार के मार्फ़त उसने प्रभुदयाल को
ख़बर भेजी। प्रभुदयाल वहाँ तुरंत आ पहुँचे ।
आध्यात्मिक भाव में डूबे लोग मरने वालों की बड़ी
इज़्ज़त करते हैं क्योंकि जो मरने जा रहा है उसे परमात्मा के साथ मिलने का सौभाग्य
प्राप्त होता है, वो भी तुरंत । प्रभुदयाल बड़े लगन के साथ रामखिलावन को हौसला देने के लिए तैयार
हो रहे थे ।
लेकिन रामखिलावन को निडर देखकर प्रभुदयाल चकित
हो गए । उन्हें लगा कि सारी ज़िंदगी आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के बावजूद उन्हें वो
चीज़ मालूम न पड़ी जो अब रामखिलावन को पता चल गई है । नहीं तो, मृत्यु के इतने
क़रीब वह कैसे निडर रहता ।
'बड़े बाबू, मैं दफ़्तर जाना चाहता हूँ, सिर्फ़ एक बार ।’ रामखिलावन सविनय
अनुरोध किया ।
'हाँ, हाँ, क्यों नहीं ।’ प्रभुदयाल तुरंत तैयार हो गए ।
जब वे दोनों मित्र दफ़्तर पहुँचे, रात हो गई थी ।
रात्रि ड्यूटी में सबलोग काम पर लगे हुए थे । रामखिलावन को देखकर वे सब उसके पास
पहुँचे, हाल पूछने । उसने
भी हँसते हुए सारे सवालों का जवाब दिया ।
अंत में रामखिलावन कबूतरों के पास गया । उसे
देखकर कबूतरों को ज़रा भी डर न लगा । और किसी दिन होता तो वे सब उसी क्षण उड़ते, फड़फड़ाते और फुर्र
हो जाते । लेकिन उस दिन सबको सब कुछ पता था ।
रामखिलावन घर लौट आया । दो दिनों के बाद उसका
देहांत हो गया ।
ब्रह्मपुर, दिनांक 20-07-2007
------------------------------------
By
A N Nanda
Shimla
26-04-2013
------------------------------------
Labels: Hindi stories, short story, Virasat