धीरू माँ
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धीरू माँ
धीरू माँ एक विधवा
थीं। जीवन के अंतिम वर्षों में उनके पास सहारा लेने को कोई नहीं बचा था। उनका बेटा, धीरू, बहुत पहले ही इस दुनिया से जा चुका था। उनकी उम्र छिहत्तर वर्ष हो
चुकी थी—गाँव के सबसे वृद्ध पुरुष से बस एक साल कम—और इस अर्थ में वे वहाँ की सबसे
बुज़ुर्ग महिला थीं। फिर भी उनके भीतर एक अनोखी-सी शांति थी, जो न तो परिस्थितियों के आगे आत्मसमर्पण से उपजी
थी, न ही विवशता से—बल्कि एक निश्चित बोध से।
वे जानती थीं, बिना भय और बिना किसी नाटकीयता के, कि उनका अंत निकट है।
वे एक आध्यात्मिक महिला
थीं। शायद यही वह अनकहा वरदान है, जो लगभग सभी
आध्यात्मिक जनों को प्राप्त होता है—कि उन्हें अपने अंत के निकट आने का संकेत सबसे
पहले मिल जाता है। धीरू माँ को विश्वास था कि उनका अंत शांत होगा; उन्हें किसी लंबी या असाध्य बीमारी से जूझते हुए
संसार से विदा नहीं लेना पड़ेगा। जीवन भर उन्हें कभी-कभार सर्दी-खाँसी के अलावा
कोई और समस्या नहीं हुई थी। न कैंसर, न किसी तरह का
पक्षाघात, न अल्ज़ाइमर जैसी कोई अभिशाप-सी बीमारी।
उन्हें लगता था कि वे बस चुपचाप बुझ जाएँगी—ठीक उस दीपक की तरह, जिसका तेल समाप्त हो गया हो।
अगर वे इस
पूर्वाभास का ज़िक्र किसी से करतीं, तो शायद ही कोई उन
पर यक़ीन करता। वे अब भी चल-फिर सकती थीं, लगभग स्वस्थ थीं। वे स्वयं ही कुएँ से पानी खींच लाती थीं—बिना किसी
मदद के, घड़ा उठाकर। कुछ ही दिन पहले वे पास ही
के किसी रिश्तेदार के यहाँ हुए समारोह में शामिल हुई थीं, और लोगों ने उनकी उम्र के हिसाब से उनकी अच्छी
सेहत की प्रशंसा की थी। कुछ ने तो उन्हें सुंदर भी कहा—शायद उनका मतलब ‘गरिमामयी’
रहा हो; उनके चेहरे की सुंदरता उनके गौरवशाली
अतीत की एक हल्की-सी स्मृति भर थी।
फिर भी वे यह
जानती थीं कि छह महीने के भीतर, या शायद उससे भी
पहले, वे इस संसार को छोड़ देंगी; यह उनके लिए एक अटल सत्य था।
जब यह निश्चितता
उनके भीतर गहराई से घर कर गई, तो उन्होंने
तैयारी शुरू कर दी।
यह तैयारी न तो
स्वर्ग-यात्रा की थी—जहाँ देवता और अप्सराएँ प्रतीक्षा कर रही हों; न पुनर्जन्म की—जहाँ सांसारिक सुख फिर से उपलब्ध
हों; और न ही किसी अन्य रूहानी लोक की सैर की, जहाँ आत्मा की महिमा का विस्तार हो। उन्हें न कोई
स्वप्न आए, न कोई आवाज़ें सुनाई दीं, न कोई दर्शन हुए। जो बात उन्हें व्यथित कर रही थी, वह कहीं अधिक लौकिक थी—मृत्यु के बाद उनके शरीर
और उनकी गरिमा का भविष्य। शायद वे उन अनगिनत लोगों में से थीं, जिनका विश्वास है कि जीवन में अर्जित गरिमा
मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होती।
उन्हें
मृत्यु-संस्कार की पूरी प्रक्रिया भली-भाँति ज्ञात थी, इसलिए उन्होंने उसकी एक स्पष्ट मानसिक तस्वीर मन
में उकेरी। उनका शरीर श्मशान ले जाया जाएगा। चूँकि उनकी कोई औलाद नहीं थी, पाँच लोग—एक पंच—उनकी चिता को अग्नि देंगे। और इससे पहले कि आग उनका शरीर पूरी तरह
भस्म कर सके, बहसें शुरू हो जाएँगी। उनका घर कौन लेगा? लेने वाला गाँव के तथाकथित सामूहिक कोष में कितनी
राशि देगा? उनकी ज़मीन—महज़ आठ सौ वर्ग फुट—कब से
गाँव के कई लालची लोगों की नज़रों में थी।
संभव है कि वे
उनके शरीर के राख होने तक का इंतज़ार भी न करें।
यह विचार उन्हें
बेचैन कर देता था। जीवित रहते उन्होंने कभी अपने भविष्य की चिंता नहीं की थी।
लेकिन जैसे ही उन्हें अपने अंत का आभास हुआ, वे मृत्यु के बाद अपनी गरिमा को लेकर गहराई से चिंतित हो उठीं।
इसलिए उन्होंने तय
किया कि जब तक संभव हो, वे आवश्यक
व्यवस्था कर लें।
उन्होंने चारों ओर
नज़र दौड़ाई—किस पर भरोसा किया जा सकता है?
स्कूल के मास्टर
जी एक भले आदमी थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यह पहचाना कि धीरू माँ गाँव की
सबसे बुज़ुर्ग महिला हैं, और वे उनका काफ़ी
सम्मान करते थे। लेकिन धीरू माँ जानती थीं कि जब “ज़िम्मेदार ग्रामीण” मौजूद होंगे, तब समाज उनके दाह-संस्कार की ज़िम्मेदारी मास्टर
जी को नहीं सौंपेगा। इसके विपरीत, उनके पड़ोसी क्रूर
और झगड़ालू थे। वे नियमित रूप से उनके पिछवाड़े में कूड़ा फेंकते—बाल, घरेलू कचरा, मरे हुए चूहे, टूटा हुआ काँच और
न जाने क्या-क्या। एक बार तो उन्होंने एक बिल्ली को भी फेंक दिया, जिसे उन्होंने बुरी तरह पीटकर मरा हुआ समझ लिया
था। धीरू माँ ने पाया कि वह बिल्ली अब भी जीवित है। उन्होंने उसकी देखभाल की, उसे स्वस्थ किया, उसके मालिक का पता लगाया और उसे लौटा दिया।
ऐसे लोग, वे जानती थीं, उनकी मृत्यु के बाद उन पर कोई दया नहीं दिखाएँगे।
उन्होंने गाँव के
मुखिया के बारे में सोचा—और तुरंत उसे मन से निकाल दिया। वह विधवाओं पर अत्याचार
के लिए कुख्यात था। गाँव के रिकॉर्ड उसकी काली करतूतों के मूक गवाह थे। उससे भी
बुरा यह था कि वह बार-बार उनकी ज़मीन खरीदने के संकेत भेजता रहता था—कभी
तीर्थयात्रा का ख़र्च उठाने का लालच देकर, तो कभी उनके नाम का मक़बरा बनवाने का प्रस्ताव रखकर, और न जाने कितने प्रलोभन देकर। धीरू माँ जानती
थीं कि जिस दिन उन्होंने काग़ज़ पर अंगूठा लगा दिया, उसी दिन उन्हें सड़क पर भीख माँगने के लिए छोड़ दिया जाएगा।
उस छोटी-सी ज़मीन
को अपने पास रखकर उन्होंने एक गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित किया था। उसे बेचना—चाहे
जीवन में हो या मृत्यु के बाद—संभव नहीं था।
इस तरह वे अपने
द्वंद्व के साथ अकेली रह गईं।
उनका दृढ़ विश्वास
था कि तीन महीने के भीतर वे बीमार पड़ेंगी और चौथे महीने के अंत तक उनका निधन हो
जाएगा। इसका अर्थ था कि निर्णय लेने के लिए उनके पास मुश्किल से एक महीना बचा था।
उनके पास दस हज़ार रुपये की बचत थी—उनके पूरे जीवन की कमाई, जिसका एक हिस्सा वृद्धावस्था पेंशन से आया था।
यह तय करने में
उन्हें एक हफ्ता लगा कि वे किस पर भरोसा कर सकती हैं। वे जानती थीं कि यह काम किसी
ऐसे व्यक्ति से नहीं कराया जा सकता, जो सामाजिक
मर्यादाओं में बँधा हो और गाँव की सामूहिक मानसिकता के दबाव में चलने को विवश हो।
उनके भीतर कहीं यह स्पष्ट था कि उनकी अंतिम इच्छा को वही निभा पाएगा, जो समाज की स्वीकृत सीमाओं से बाहर खड़ा हो—जिसे
लोग असामान्य कहें, या जिसे शराबी
मानकर नज़रअंदाज़ कर दें; ऐसा व्यक्ति, जिसे ठीक ढंग से समझा जाए, तो वह अपेक्षा से अधिक संवेदनशील और निष्ठावान
सिद्ध हो सकता है।
उसी सोच के बीच
उन्हें गाँव के आख़िरी छोर पर रहने वाला विमल याद आया। एक बार उन्होंने उसे सड़क
किनारे नशे में बेसुध पड़ा पाया था। उन्होंने उसके चेहरे पर पानी छींटा, उसे होश में लाया और उस रात उसे अपने बरामदे में
सोने दिया। उसकी नशे की बकवास से उन्हें उसकी कहानी पता चली थी। उसमें थीं—व्यापार
में बार-बार की असफलताएँ, ईएमआई न चुका पाने
पर मोटरसाइकिल की ज़ब्ती, बढ़ता कर्ज़, दसवीं तक पढ़ाई के बावजूद बेरोज़गारी, खेत मज़दूरी से इनकार, और अंततः शराब से त्रस्त होकर पत्नी का घर छोड़
देना। इसके अलावा भी बहुत कुछ था, पर नशे की धुंध
में सब अस्पष्ट रह गया।
एक दूसरी शाम—जब
धीरू माँ अब भी अपने निर्णय को भीतर ही भीतर परख रही थीं—विमल फिर आया, नशे में, उनके बरामदे में शरण लेने। लेकिन इस बार वह कुछ बदला हुआ था। न पत्नी
की बेरुख़ी की शिकायत, न सरकार को कोसना
कि उसकी पढ़ाई के मुताबिक़ नौकरी क्यों नहीं मिली, न साहूकार को गालियाँ। वह नशे में था, फिर भी असामान्य रूप से चुप—मानो गाँव की सबसे बुज़ुर्ग स्त्री की
उपस्थिति ने उसके भीतर किसी संयम को जगा दिया हो। और वह बेहद भूखा था।
धीरू माँ ने उसे
मुरमुरा और हरी मिर्च खिलाई। जब वह तृप्ति से खा रहा था, धीरू माँ ने कोमल स्वर में पूछा, “मेरे बेटे, क्या तुम मेरे लिए एक काम करोगे?”
सीधा उत्तर देने
के बजाय धीरू माँ बोलीं, “मैं तुम्हें दस हज़ार रुपये दूँगी—जो कुछ मेरे
पास है।”
विमल अविश्वास से
उन्हें देखने लगा। “किसलिए, माँ जी?”
“तुम पैसे अपने पास रखोगे,” उन्होंने शांत स्वर में कहा।
“लेकिन किसलिए, माँ जी?” उसने फिर पूछा।
“मैं छह महीने से अधिक नहीं जीऊँगी।”
उसने पूछा कि क्या
उन्हें कैंसर या कोई और असाध्य बीमारी है।
“नहीं,” उन्होंने कहा। “मैं बहुत जी चुकी हूँ।”
फिर उन्होंने दस
हज़ार रुपये की गड्डी उसके हाथ में रख दी। “अगर मेरी मृत्यु के बाद गाँव में से कोई
मेरा दाह-संस्कार करने आगे न आए,” उन्होंने कहा, “तो तुम्हें पहल करनी होगी। उसके बाद जो पैसा बचे, वह तुम्हारा।”
विमल ने न बहस की, न पैसा लौटाया। वह उठकर चुपचाप घर चला गया।
अगले दिन वह फिर
आया—यह देखने के लिए नहीं कि माँ जी मरीं या नहीं, न ही उनके दृढ़ निश्चय पर सवाल उठाने के लिए—बल्कि यह समझने के लिए कि
वे कोई आध्यात्मिक स्त्री हैं, कोई पागल औरत हैं, या बस इतनी इतनी लापरवाह कि अपनी जीवन-भर की कमाई
एक शराबी को सौंप दें।
वह अगले दिन भी
आया। और उसके बाद भी।
जल्द ही उसका आना
दिन में दो बार हो गया। धीरू माँ के प्रति उसकी जिज्ञासा शराब की लालसा से अधिक
प्रबल हो गई। महीने के अंत तक उसे शराब की इच्छा ही नहीं रही—पिलाने पर भी नहीं।
गाँव में यह चर्चा
फैल गई कि विमल सुधर गया है। यह ऐसा गाँव था, जहाँ आज भी मुँहज़बानी ख़बरें समय को आगे बढ़ाती थीं। उसकी पत्नी को
पता चला कि उसने शराब छोड़ दी है, और वह लौट आई।
पैसे देखकर उसने उनके फिर से बसे दांपत्य के जश्न के लिए गहनों की माँग की, लेकिन विमल ने साफ़ इनकार कर दिया।
“ये पैसे भगवान के हैं,” उसने कहा। “एक पैसा भी खर्च किया, तो श्राप लगेगा।”
आश्चर्यजनक रूप से
वह मान गई। उसकी शिकायत शराब थी; वह मिट गई तो वह
संतुष्ट थी—गहनों के बिना भी।
जल्द ही लोग विमल
को कंधे पर फावड़ा रखे खेतों की ओर जाते हुए देखने लगे। किसी को विश्वास नहीं
हुआ—यहाँ तक कि उसकी पत्नी को भी नहीं। वह रोज़ मज़दूरी करता, मकई फसल के फूल आने से लेकर कटाई तक रात में
पहरा देता, जंगली सूअरों से लड़ता, अतिरिक्त मज़दूरी कमाता और दिन में सोता।
एक सुबह, पूरी रात जागकर खेत से लौटते समय, उसने धीरू माँ के घर के बाहर भीड़ देखी।
वे भोर में ही चल
बसी थीं—ठीक चौथे महीने में, पहली पूर्व-सूचना
के अनुसार।
लोग बहस कर रहे थे
कि उनका दाह-संस्कार कौन करेगा। बाँस की अर्थी उठाने वालों को कौन खिलाएगा? कोई राज़ी नहीं हुआ। दोपहर तक सब अपने-अपने घर
चले गए, गंगाजल छिड़का और खाना खाया।
अगर कुछ किया भी
जाना था, तो वह किसी बैठक के बाद ही तय होगा।
किसी ने उनका शरीर
नहीं उठाया। सब अपने-अपने ढंग से पूछ रहे थे—उस बूढ़ी औरत ने उनके लिए क्या किया
था? ये सवाल उत्तर पाने के लिए नहीं थे, बल्कि अपनी खुनस निकालने के लिए।
लेकिन विमल आगे आ
गया।
उसने मज़दूर बुलाए, उन्हें मज़दूरी दी, लकड़ी कटवाई, चिता बनाई और
स्वयं अग्नि दी। पंच—गाँव के पाँच प्रतिष्ठित लोग—श्मशान तक नहीं आए, क्योंकि उनकी बैठक अब भी चल रही थी। जब अग्नि
अपना काम कर चुकी,
विमल ने दोगुनी
दक्षिणा देकर पुजारी बुलाया, क्योंकि अन्य
पुजारी गाँव वालों के डर से नहीं आए। अंत में उसने धीरू माँ के सम्मान में भोज
दिया।
कोई भी उसका
निमंत्रण ठुकरा नहीं सका।
अब एक मृत स्त्री
से बैर रखना बेतुका लगने लगा।
उस रात, जब सब रस्में पूरी हो गईं और मेहमान चले गए, विमल की पत्नी ने फिर पूछा—इस बार बहुत धीरे
से—कि वे दस हज़ार रुपये कहाँ से आए थे।
विमल ने तुरंत
उत्तर नहीं दिया। वह उस छोटे-से लकड़ी के बक्से तक गया, जहाँ पैसे ज्यों-के-त्यों रखे थे। उसने उन्हें
गिना—हर नोट सुरक्षित था। और उसने वही उत्तर दोहराने का निश्चय किया।
“ये कभी मेरे नहीं थे,” उसने कहा। “ये भगवान के हैं। मैं बस इन्हें संभाल
कर रखे हूँ—जब तक वे खुद आकर न ले जाएँ।”
उसकी पत्नी ने कुछ
नहीं पूछा।
उस दिन के बाद
पैसे वहीं पड़े रहे—न खर्च हुए, न पूजे गए। और
अजीब बात यह थी कि अब उनका कोई महत्व ही नहीं रह गया था। विमल काम करता, कमाता, बिना अपराध-बोध के सोता, और बिना तृष्णा के
जागता।
जहाँ तक धीरू माँ
की बात है—वे ठीक वैसे ही विदा हुईं, जैसे उन्होंने
जीवन जिया था: बिना किसी पर बोझ बने, बिना किसी से भीख
माँगे, और बिना मृत्यु को भी अपनी गरिमा चुराने
दिए।
और विमल—जिसे उसकी
नशे की लत ने कभी सबकी नज़रों में गिरा दिया था—समय आने पर स्वयं अपनी राह समझ गया; न केवल दूसरों के बराबर खड़ा होकर, बल्कि उनसे बेहतर इंसान बनकर।
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By
अनन्त नारायण नन्द
भुवनेश्वर / 19/12/2025
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Labels: Hindi stories, short story

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