जुर्माना
जुर्माना
कोई ज़रूरी नहीं कि सबको अपना उसूल निभाने में हमेशा परिवार की मदद मिले । हो सकता है आदमी को अपने द्वारा चुने हुए रास्ते पर अकेले ही चलना पड़े । बस, वही एक समय है जब व्यक्ति या तो अपनी दृढ़ता पर क़ायम रहे या अपने रास्ते से डिग जाए । मनमोहनजी एक बार इस प्रकार के धर्म-संकट में पड़ गए । पर अंत तक उन्होंने अपने उसूल को न छोड़ा, बल्कि वे एक मिसाल क़ायम कर गए । आज, जब हम उसूल, त्याग जैसी बड़ी-बड़ी बातों का ज़िक्र करते हैं, तब मनमोहनजी की याद अपने आप आ जाती है ।
लगभग पचास साल पहले की बात है । तब मनमोहनजी थे डाक निरीक्षक ।
तबादला होकर वे आ पहुँचे एक ग्रामीण स्थान पर । साथ में थीं धर्मपत्नी महामायाजी
और दोनों बेटे--रामनारायण और बद्रीनारायण । उस जगह का नाम था मनमोहनपुर या बाग वृंदावन--ऐसा
ही कुछ । ख़ैर, नाम जो भी हो,
वहाँ की मिट्टी बड़ी उपजाऊ थी । चारों तरफ़ आम,
अमरूद, कटहल आदि का नज़ारा, हरियाली ही
हरियाली ।
मनमोहनजी को एक ऐसा सरकारी आवास मिला था, जिसमें रहने के साथ-साथ वे अपना कार्यालय भी चलाते थे ।
कार्यालय सिर्फ़ नाम के वास्ते । महीने में पच्चीस दिन तो उन्हें बाहर रहना पड़ता ।
उनका इलाक़ा काफ़ी दूर तक फैला हुआ था । उन
दिनों आने-जाने का साधन या देहातों में रास्ते आज जैसे नहीं थे । कभी-कभार जंगली
जानवर भी रास्ते में मिल जाते थे । इसके अलावा खान-पान की दिक़्क़तें । कुल मिलाकर
काम बड़ी चुनौती भरा था ।
अपने आवास के पिछवाड़े में एक कटहल का पेड़ देखकर मनमोहनजी प्रसन्न
हुए थे उस दिन । पेड़ की छाया परिवेश को शांत रखेगी--बस, यही था उनके ख़ुश होने के कारण । सरकारी पेड़ों से इससे अधिक
क्या लिया जा सकता ? जब देहात से वे
लौटते, तो पहले अपने बगीचे की
तरफ़ दौड़े चले जाते । वहाँ गुनगुनाते, कुछ पल बैठते और कटहल के पेड़ को देखने के बाद ही वे चैन से अपने घर के अंदर
जाते ।
उनकी इस पेड़ के साथ यह अस्वाभाविक अनुरक्ति की वजह और किसी को
समझ में आए या नहीं, पर उनके पूरे
परिवार को यह भली-भाँति मालूम थी । वजह यह थी कि उस कटहल के पेड़ में उस साल चार फल
लगे थे, सिर्फ़ चार । वैसे तो ढेर
सारी कलियाँ आई थीं, पर आख़िर में
सिर्फ़ इतने ही फल लगे । मनमोहनजी जैसे ही गश्त से लौटते, उनकी गिनती कर लेते थे । सही पाने पर संतुष्ट होकर घर जाते
थे । बस, यही था उनकी आसक्ति का
कारण ।
निरीक्षकजी यह सोचते थे कि जब कटहलों के आकार बेचने लायक हो
जाएगा, तो वे उन्हें बाज़ार में
बेच देंगे । लगभग चार रुपये बनेंगे । पिछले साल इस मद में सरकार को केवल एक ही
रुपया मिला था, पर मनमोहनजी इस
साल सरकार को ज़्यादा आमदनी दिलाएँगे और पिछले सालों का रिकार्ड तोड़ेंगे ।
इधर महामायाजी की सोच कुछ और थी । अगर पिछले साल सरकार को एक ही
रुपया मिला, तो इस बार दो रुपये सही ।
सारे कटहलों को बेचकर कुल राशि सरकारी ख़ज़ाने में जमा करने का कोई तुक नहीं बनता ।
'ऐ जी, सुनते हो । चार
कटहलों में से दो तो हम रख लेंगे । आप बाकी दोनों को बेचकर पैसे सरकार को दे देना
।’ इस तरह महामायाजी ने एक
दिन अपने मन की बात अपने पति के सामने रखी ।
मनमोहनजी ने बड़े धैर्य के साथ अपनी पत्नी की बात सुनी । फिर,
एक पल के लिए ख़ामोश हो गए । प्रत्युत्तर में बोले,
'क्या तुम मुझे जेल भिजवाओगी ? क्या सिर्फ़ दो कटहलों के लिए अपने पति को लोगों
के सामने ज़लील करोगी ?’
बस, उस दिन से
महामायाजी ने कटहल का फिर ज़िक्र नहीं किया । यहाँ तक कि बच्चों को पेड़ के अगल-बगल
ज़्यादा उछल-कूद न करने की कड़ी चेतावनी भी दे दी ।
अपनी तरफ़ से मनमोहनजी ने पेड़ पर निगरानी बढ़ा दी थी । अब तक जो
अर्दली उनके साथ दौरे पर जा रहा था उसे उन्होंने अपने साथ ले जाना बंद कर दिया ।
अकेले देहात के दौरे पर जाना शुरू कर दिया । उनकी गैरहाज़िरी में अर्दली कटहल के
पेड़ की निगरानी करने लगा ।
अब मैं कहानी से ताल्लुक़ रखने वाली एक विशेष बात का खुलासा करना
चाहता हूँ, क्योंकि इसे व्यक्त किए
बिना आगे बढ़ा नहीं जा सकता ।
महामायाजी तब गर्भवती थीं । पेट में एक और जीवन की सारी ज़रूरतें
माता के मुँह से ही पूरी होती है--यह है कुदरत का प्रावधान । महामायाजी को आए दिन
कुछ अच्छा खाने को मन करता था । अच्छी चीज़ों की सूची में था एक कटहल--कच्चा कटहल
जिसे सब्ज़ी बनाकर खाया जाता है । दूसरा किसी कटहल से काम नहीं बन सकता था, क्योंकि पेट में संचारित जीवन की माँग थी सिर्फ़
अपने बगीचे का कटहल--एक सरकारी कटहल ।
नित्यानंद अर्दली को व्यावहारिक ज्ञान बहुत था । वे थे बुज़ुर्ग,
उम्र का पचासवाँ पड़ाव कई साल पहले पार कर चुके
थे । केवल छ महीनों में उन्हें सेवा निवृत्त होना था । वे एक दिन महामायाजी के मन
की बात समझ गए । बस, उन्हें और कौन
रोकता ? उन्हें लगा कि उनकी अपनी
बेटी को बच्चा होने वाला है, और वे उसके मन की
इच्छा पूरी करने जा रहे हैं । आख़िर होगा क्या ? ज़्यादा से ज़्यादा निरीक्षकजी गुस्सा करेंगे । तो फिर क्या ?
सँभाल लेंगे वे सारी बात, सारे परिणाम ।
नित्यानंदजी ने एक हँसिया उठाया और कटहल के पेड़ की ओर चल पड़ा ।
कटहल पेड़ के धड़ में से निकला था । उन्होंने उसे झट से काट डाला और धीरे से नीचे
लाया । जब उसे घर लाया तो महामायाजी को बड़ा ताज्जुब हुआ। उन्होंने उस फल को छूने
तक भी मना कर दिया । पर बच्चे थे बेहद ख़ुश । ज़रूर आज कुछ होने वाला है । कटहल जो नीचे उतारा !
'आप क्या मेरी
बेटी जैसी नहीं हैं ? माना कि मैं एक
छोटा मुलाज़िम हूँ, पर मैं भी एक बाप
हूँ । क्या मैं एक बेटी के मन की बात नज़रंदाज़ कर पाऊँगा ?’ अर्दलीजी बोले । उनकी आँखों में आँसू भर आए ।
महामायाजी अंत में मान गईं । मनमोहनजी तब गश्त पर थे और उनको
लौटने में दो दिन बाक़ी थे । फिर कटहल बना ज़बरदस्त पकवान । एक नहीं, दो नहीं, उस दिन बनी थी पाँच-पाँच सब्ज़ियाँ । नित्यानंदजी, महामायाजी और दोनों बच्चों ने छककर खाया ।
दो दिनों के बाद निरीक्षक मनमोहनजी घर लौटे । आदतन वे कटहल के
पेड़ के पास पहुँचे ।
'अरे, यह क्या मैं देख रहा हूँ ? चार कटहलों में से एक गायब ! किसने तोड़ लिया
इसे ? नित्यानंद, क्या हुआ उस सरकारी कटहल का ?’ मनमोहनजी ज़ोर से चिल्लाए ।
नित्यानंदजी ने मन-ही-मन तय कर लिया था कि जब उन्हें पूछा जाएगा,
तो वह केवल सच ही बोलेंगे । झूठ बोल लेते,
पर इन दोनों बंदरों का क्या भरोसा ? पिताजी के सामने वे लोग सच बोलने की होड़ लगा
देंगे ।
'सर्, मैंने एक कटहल
तोड़ लिया है,’ अर्दली सहमते हुए
बोला ।
'पर क्यों ? क्या तुम नहीं
जानते हो कि इसे बेच कर ख़ज़ाने में पैसा जमा करना
था ? न केवल पैसे से काम चलेगा,
इसे बेचने की तो मंज़ूरी भी चाहिए । कई दिन पहले
बड़े दफ़्तर को मैंने लिखा है, अब तक बेचने का
आदेश नहीं मिला । फिर तुमने क्यों तोड़ डाला एक कटहल, नित्यानंद ? अब मैं क्या करूँ?’
निरीक्षकजी काफ़ी दु:खी हुए और वे खुद को कोसने
लगे ।
दिन भर वे ख़ामोश रहे। किसी से बातें नहीं कीं, यहाँ तक कि अपनी गर्भवती पत्नी महामायाजी से भी
नहीं ।
दिन ढला । शाम की छाया रात को अँधेरा में तब्दील करने में लगी थी
। नित्यानंदजी और मनमोहनजी एक कुदाल लेकर कटहल के पेड़ की तरफ़ बढ़ने लगे । पेड़ की जड़
के पास नित्यानंद ने एक गड्ढा खोदा, तीन फूट का । फिर मनमोहनजी ने अपने ज़ेब से कुछ छुट्टे पैसे निकाले और एक-एक कर
गिनने लगे । कुल मिलाकर हुआ एक रुपया और एक चवन्नी । उन्होंने उसे गड्ढे में रख
दिया और मिट्टी से ढक दिया ।
अब मनमोहन जी शांत हो गए । उनके मन में कोई ग्लानि न थी । कटहल
के मूल्य के साथ-साथ वे जुर्माना भी भर चुके थे । और, जुर्माने की राशि थी एक चवन्नी ।
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भुबनेश्वर दिनांक 22-07-2007
Labels: Virasat