The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Tuesday, November 19, 2013

झूठ-मूठ: A Topical Fiction


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There is a report that the Archaeological Survey of India has finally abandoned digging its site at Daundiya Kheda village in Unnao and has started filling the trenches by sand. There is no trace of gold as prospected by one Shobhan Sarkar the seer. What the organisation found instead is some pottery relics that supposedly dates back to eighth century BC. Despite this fiasco, the seer insists that he would find the gold out. I'm quite intrigued by the developments. The whole thing appears like fiction. Even way back in May 2010, I had imagined such an eventuality. But then it shaped as fiction. Here's what I wrote then...
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झू ठ - मू ठ
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आजकल पब्लिक सबका मोल लगाती है। कोई अचंभे की बात नहीं कि नारायणपुर के राजा पोखर की भी आए दिन बोली लग जाती है। "पाँच एकड़ का यह तालाब अगर आज बेच दिया जाए तो कितने रुपये मिलेंगे?'' "कट्ठा के भाव तीस लाख लगाओ, तो भी यह तीस करोड़ बड़ी आसानी से लाएगा।'' "सो तो है, फिर शहर में ऐसी ज़मीन आजकल मिलती कहाँ है? भाव तो इससे आगे भी भाग सकता है, मुँह-माँगी क़ीमत ही मान लो, भई।''
                तालाब को देखने से लगेगा कि इसके खोदने वाले पर नाम कमाने की सनक ज़रूर सवार हुई होगी, वर्ना इसे क्यों शहर के बीचोंबीच, बिल्कुल रिहायशी इलाक़े में बनाता? पर असली बात कुछ और है। उस ज़माने में न शहर इतना फैला हुआ था न ज़मीन इतनी क़ीमती। तालाब के किनारे से जो सड़क गुज़रती थी वह तो बनारस तक थी, सो राहगीरों की ज़रूरतों के मद्देनज़र यह तालाब खुदवाया गया होगा। फिर भी लोगों का कहना सही है; सचमुच, इस तालाब के निर्माता के ऊपर नाम कमाने की सनक सवार थी। यह सुनने में आता है, तालाब की ख़ुदाई के बाद ज़मींदार राजा साहब ने वहाँ खड़े-खड़े भगवान से यह मिन्नत की थी, "हे ईश्वर, मेरे मरने के पश्चात् मेरे ख़ानदान में कोई न रहे।'' वह थी तो बड़ी मनहूस क़िस्म की मनौती, पर इसके पीछे छिपे रहस्य को भी समझ लेना चाहिए। राजा साहब यह नहीं चाहते थे कि उनके ख़ानदान की आने वाली पीढ़ियाँ इस मामले में घमंड से पेश आएँ। ज़ाहिर-सी बात है कि ऐसे लोग अपने-आपको रोकने में कतई समर्थ नहीं होते और दावा करने लग जाते कि राजा पोखर उनके दादा-परदादाओं की बनाई हुई कीर्ति है। बस, उससे किए कराए पर पानी फिर जाता और सारे ख़ानदान को नरक भी नसीब नहीं होता।
                इससे एक और भी अर्थ निकलता है। जिस चीज़ को उस पुण्यात्मा पुरुष ने सार्वजनिक उद्देश्य के लिए उत्सर्ग कर दिया था, उसे फिर से अख़्तियार में लाकर उनके दायाद और काम में लगा सकते हैं---यह आशंका भी राजा साहब को सताती रही होगी। अगर आजकल हम शहरी तालाबों की हालत को लेकर सोचें कि कैसे ये सब मिट्टी से भरवाए जाते हैं और कैसे उधर बहु मंज़िले मकान बन जाते हैं, तो पता चलेगा कि उस दूरदर्शी पुण्यात्मा पुरुष ने बिल्कुल सही सोचा था। वंश में कोई न रहे, यह मन्नत माँगकर उन्होंने बड़े आध्यात्मिक सामर्थ्य का परिचय दिया था।
                लगता है कि पिछले ज़माने में भगवान इंसानों की पुकार सुनने में देर नहीं लगाते थे। ऐसा नहीं तो राजा साहब के ख़ानदान में आज भी लोग ज़िंदा रहते और उस पोखर को अपना कहकर उसके ऊपर फिर से कब्जा जमा लेते या उसको भरवा कर किसी बिल्डर को अपार्टमंट या शॉपिंग मॉल बनाने हेतु सौंप देते। आजकल राजा पोखर म्युनिसिपैलिटी की संपत्ति है और उसका रख-रखाव भी म्युनिसिपैलिटी के कंधे पर है। इस मद में हर साल कुछ-न-कुछ राशि मंज़ूर होती है, सफ़ाई के नाम पर काम होता है---बस, खानापूर्ति ही कहिए। आज से दस या पंद्रह साल पहले जब पॉलिथिन, बोतल बंद पानी, तम्बाकू के पाउच का प्रचलन इतने बड़े पैमाने पर न था, तब तालाब का पानी शुद्ध हुआ करता था और उसमें मछली भी मिल जाती थीं। उसे बेचकर म्युनिसिपैलिटी को अच्छी आमदनी हो जाती थी, पर आजकल मछली नहीं पकड़ी जाती, क्योंकि इससे किसी को फ़ायदा नहीं पहुँचने वाला है। वजह बिल्कुल साफ़ है; इतनी प्रदूषित मछलियों को बेचकर म्युनिसिपैलिटी क्यों लोगों को मौत के मुँह धकेलना चाहेगी भला?               
                राजा पोखर का वर्णन करने के लिए किसी काव्य प्रतिभा की ज़रूरत नहीं, बल्कि कोई भी, जो उस पोखर के चारों तरफ़ एक चक्कर लगाने की हिम्मत रखता हो, इसका यथार्थवादी चित्रण कर सकता है। पिछले दस-एक साल नहीं, यह तो सालों से लोगों को पता था कि अगर किसी को कब्ज़ियत की शिकायत है और खुले मैदान में बैठकर उसे उस बीमारी से जूझना हो तो वह कहाँ जाएगा। सिर्फ़ इस वजह से पिकनिक के लिए किसी को राजा पोखर का चयन करते हुए नहीं सुना गया, जबकि कुछ ही साल पहले उसके भिंड पर काफ़ी छायादार पौधे हुआ करते थे। पता नहीं क्यों, एक साल सारे पेड़ एकाएक सूख गए, चिड़ियाँ बेघर हो गर्इं और किसी ने वहाँ फिर से पेड़ लगाकर उस भिंड को हरा-भरा करने की दिशा में सोचा तक नहीं। आजकल वहाँ नागफनी जैसे काँटेदार गुल्म भी देखने को नहीं मिलते; यहाँ तक कि तालाब में जो कमल के फूल खिला करते थे, वो भी खिलने बंद हो गए हैं। हाँ, पोखर में पानी के ऊपर छाली-सी एक परत आजकल साल भर देखने को मिलती है। पता नहीं वह चीज़ है क्या, पर लगता है कि यह तेल या धूल की परत होगी। लोग कहते हैं कि आगे चलकर यह जलीय खर-पतवार या शैवालों में तब्दील हो जाएगी। फिर पोखर सड़ी हुई जल-कुंभियों से अपने आप भर जाएगा।
                पहले लोग टूटा हुआ काँच, मिट्टी की हाँडी, ऐसे कई अनावश्यक घरेलू सामानों के अवशेषों को लेकर भिंड पर डाल दिया करते थे, पर आजकल वहाँ पॉलिथिन और प्लास्टिक के टूटे सामानों के अंबार लगे हुए हैं। सिर्फ़ इतना ही नहीं, लोग अपनी बेकार फ्रिज़ तथा कारों को भी वहाँ सड़ने-गलने के लिए छोड़कर चले जाते हैं। फिर शहरीकरण के चलते उसके चारों तरफ़ झुग्गी-झोंपड़ियाँ भी ख़ूब बस गई हैं और इस प्रकार राजा पोखर से पानी निकलने के रास्ते बिल्कुल बंद हो गए मानो। लोग कहते हैं, एक ज़माने में वहाँ से निकले नाले ज़मीन के अंदर दूर-दूर तक जाते थे, यानी गंगा या यमुना नदियों में गुप्त रूप से मिल जाते थे, पर ऐसा सबूत आजकल किसी को दिखाई नहीं देता। पुरातत्व विभाग इस पर रोशनी डाल सकता है, पर वे लोग भी आजकल बजट की तंगी के चलते ज़्यादा से ज़्यादा परियोजना हाथ में लेने से हिचकते हैं। बात जो भी हो, राजा पोखर का पानी वर्षों से वहीं जमा सड़ रहा है, उसके ऊपर जो तेल या किसी और चिकनी चीज़ की परत है, वह दिन-ब-दिन मोटी होती जा रही है और इसके अंदर कीचड़ कम, पॉलिथिन-प्लास्टिक जैसे दीर्घायु मलवे काफ़ी मात्रा में भर गए हैं।
                हर साल विजयादशमी के दिन पोखर के भिंड पर विशालकाय रावण का दहन होता है। पटाखे, चाँदी-सी चमकीली सजावट, टाट और डंडों का बना दानवीय देहावशेष राजा पोखर में मिल जाता है। सिर्फ़ रावण जैसे दैत्य की अंतिम यात्रा यहाँ समाप्त नहीं होती, अपितु यहाँ देवी-देवताओं का भी समागम  होता है। हर साल श्रीगणेश, काली माता, दुर्गा माता, ऐसे कई और देवी-देवताओं को, अपने-अपने भक्तों के आयोजन में शिरकत करने के बाद यहाँ आना होता है और वे सब अपने-अपने रंगीन जिस्म के साथ यहाँ जल समाधि ले लेते हैं। हाँ, और एक बात है---पता नहीं यह कहाँ तक सच है कि लोग कभी-कभी अपने पालतू कुत्तों को मृत्यु यंत्रणा में तड़पते देख उन्हें बाँधकर इस पोखर में विसर्जित कर देते हैं, ताकि उनकी यंत्रणा का अंत हो जाए। अगर यह सच है तो फिर राजा पोखर में देव, दानव और कुत्ते---सभी के लिए जगह उपलब्ध है। आध्यात्मिक लफ़्ज़ों में इस प्रकार के उदार भाव को नैसर्गिक जमावड़ा कहने में शायद भूल नहीं होगी।
                उस तालाब को लेकर राजनीतिक सरगर्मी भी अक्सर भड़क उठती है। नगरपालिका के चुनाव में इसे मुद्दा बनाया जाता है, रातों-रात आश्वासनों का पहाड़ खड़ा कर दिया जाता है। राजा पोखर को एक दर्शनीय स्थान बनाना है, इसके किनारे फूल-पत्तियों का बाग़ान बनाना है, औषधीय पौधों को लगाकर लोगों में, ख़ासकर नई पीढ़ी के सदस्यों के बीच आयुर्वेद तथा देशी चिकित्सा पद्धति के बारे में जागरूकता लानी है, इसे एक ऐसा पिकनिक स्पॉट के रूप में तैयार करना है जहाँ नौका से तालाब के अंदर सैर करने की सुविधा मुहैया हो, वग़ैरह, वग़ैरह। चुनाव का परिणाम आ जाता है और आश्वासन का यान वहीं का वहीं रुक जाता है।
                इस प्रकार, राजा पोखर की हालत में एक दिन सुधार हो सकता है, यह कोई दावे के साथ कहने में समर्थ न था। फिर भी, इसे मेरी कहानी में मोड़ समझ लीजिए कि एक दिन अचानक  नारायणपुर शहर में देश के विभिन्न प्रांतों से आए नौजवानों ने श्रमदान का एक शिविर डाल दिया। ये लोग चाहते थे कि शहर के लोगों के साथ मिलकर वहाँ कुछ ऐसा काम करें जिससे उनके सामने युवा शक्ति की एक मिसाल क़ायम हो तथा उन्हें समाज के लिए सोचने को मजबूर किया जा सके। यह नारायणपुर जैसे शहर के लिए था भी निहायत ज़रूरी। आयोजकों ने पहले से सोच रखा था कि इस बार राजा पोखर का कायाकल्प कराएँगे, वो भी बिल्कुल निःशुल्क। इस शिविर में देश के विभिन्न प्रांतों से लगभग साढ़े सात सौ नौजवान आने वाले थे और वे लोग नारायणपुर में एक पखवाड़ा बिताएँगे। इतने लोग अगर काम में लग जाएँगे तो देखते ही देखते राजा पोखर की उड़ाही हो जाएगी। श्रमदान कार्यक्रम के राष्ट्रीय संस्थापक श्रीमान देशप्रेमीजी ने भी आयोजकों के इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति पहले से दे रखी थी। उनकी सिर्फ़ एक ही शर्त थी---उस कार्य में स्थानीय लोगों से भी सहायता मिलनी चाहिए। इस मौक़े का लाभ उठाते हुए नारायणपुर बाशिदों को एक बार सहभागिता का पाठ भी पढ़ लेना चाहिए।
                जब बाहर से आए नौजवानों ने राजा पोखर की हालत में सुधार लाने का संकल्प ले लिया तो नारायणपुर के बाशिन्दों को इस काम में हाथ बँटाने में क्यों आपत्ति होती? सो, हर के नामी-गिरामी अख़बारों में इस संदर्भ में संवाद छप गए। श्रीमान देशप्रेमीजी ने शहरवासियों से यह अपील किया कि वे लोग बड़ी संख्या में राजा पोखर आएँ और श्रमदान कर बाहर से आए नौजवानों का उत्साह बढ़ाएँ। उनके साथ एक भेंट वार्ता भी अख़बारों में निकली, जिसमें कुछ नाज़ुक और कुछ बेतुके सवाल भी पूछे गए, जैसे---इस काम में जो पैसे लगेंगे, वह कहाँ से जुटाए गए हैं; जो इस काम में शिरकत कर रहा है, क्या उसे सरकारी नौकरी में प्राथमिकता मिलेगी; ऐसे शिविरों का आयोजन किसी प्रकार की प्रच्छन्न राजनैतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए तो नहीं हो रहा है; वग़ैरह, वग़ैरह। श्रीमान देशप्रेमीजी भी प्रसन्नचित्त हो सभी प्रश्नों के उत्तर देते गए। उनके अनुसार, शिविर में आए ख़र्च चंदा के रूप में दानशील लोगों से इकट्ठा किया गया है तथा इसके लिए किसी के साथ ज़ोर-जबरदस्ती नहीं की गई---यहाँ तक कि आलू, भिंडी भी सौंपकर लोगों ने इस आयोजन में अपना सहयोग दिया है। सबसे अहम बात यह थी कि श्रमदान में शामिल किए गए तमाम कार्य राजनैतिक दावँ-पेंच से दूर रखे गए हैं।
                राजा पोखर में पानी भी कम न था। पहले तो म्युनिसिपैलिटी सहमत हो गई थी कि पंप लगाकर पानी सुखा देगी, पर ऐन मौक़े पर मुक़र गई। पानी रहते हुए राजा पोखर की उड़ाही भी कैसे की जाती? फिर अड़चन दूर करने का रास्ता भी मिल गया---ट्यूबवेल गाड़ने के लिए बड़ी-बड़ी रिग मशीनों के साथ उनके मालिक जो विभिन्न प्रदेशों से आकर वहाँ व्यापार कर रहे थे उनसे संपर्क करने पर वे लोग नौजवानों का उत्साह देख राजा पोखर में से कुछ पानी निकाल देने को राज़ी हो गए। ख़ैर, वे लोग व्यापारी थे और मुफ़्त में भी किस हद तक काम करते? फिर भी कुछ पानी सूखने पर श्रमदान शुरू हो गया।

पोखर में से जो सब निकला उनकी सूची भी कौन बनाता? बहरहाल, उनमें से कुछ का नाम लेना सही होगा। आख़िर में सूचना की अपनी अहमियत होती है। निकाली गई वस्तुओं में थीं र्इंट, रावण, खपड़ैल, पॉलिथिन, अधजले टायर, मिट्टी के बने हाथी, हाँडी, बियर की टूटी बोतलें, आम की गुठलियाँ, आदमी की एक खोपड़ी, क्रिकेट के बल्ले, जंग लगे क़लईदार बरतन, बिजली के खंभों से गिरे विद्युतरोधी शंख, टूटे लैटर बक्स, ऐसी अनगिनत वस्तुएँ।
                राजा पोखर में क्या-क्या सब हो रहा है, यह देखने की उत्सुकता ने शहर के बाशिंदों को वहाँ खींच तो लाया, पर सब के सब भिंड पर खड़े-खड़े नौजवानों को ताकते रहे। हाँ, उन लोगों ने आपस में ख़ूब बातें कीं। "लगता है, म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों की कुछ साज़िश होगी, कुछ नहीं तो ये लोग समाप्त हुए कार्यों को दिखाकर आराम से काग़ज़ात दुरुस्त करेंगे और बिल ऐंठ लेंगे।'' दूसरे शख़्स ने कहा, "इस बार म्युनिसिपैलिटी के चुनाव में भालू दास तो ऐसे ही वोट बटोर लेगा, भई।'' तीसरा शख़्स इन लोगों की बातें सुनकर प्रतिक्रिया में कुछ कहना चाहता था, पर कहे तो कहे कैसे? मुँह पर तो खैनी रूपी ताला लग गया था! फिर भी उससे नहीं रहा गया। सो, बग़ल में मुँह घुमाकर उसने "पूऊ...उ...च'' कर थूक दिया जो एक सुपरसोनिक जेट बनकर श्रमदान में रत एक नौजवान के गाल पर जा पड़ा। बेचारा हतप्रभ हो गया, पर हिंदी तो नहीं जानता था। सो बग़ैर कुछ कहे वह तनिक मुस्कराया और अपने काम में लग गया।
                तब किसी ने नारा दिया, ""देश के नौजवान, लगे रहो।''
                और सबने जवाबी नारा दिया, "लगे रहो, लगे रहो, लगे रहो।'' प्रतिध्वनि से माहौल गुंजित हो गया।
                दिन भर जितना भी काम हो पाया, वह निहायत कम था। अगर पानी सुखाया नहीं जाएगा तो उड़ाही होगी कैसे? जो भी काम निकलेगा, वह हर साल म्युनिसिपैलिटी द्वारा संपन्न किए गए काम से भी कम होगा। फिर लोग बोलेंगे, "देखो, मज़ाक करना भी कोई इन लोगों से सीखे! पता नहीं, ये लोग भी लूटने की फ़िराक़ में तो नहीं हैं।'' संस्थापक श्रीमान देशप्रेमीजी को इसकी परवाह न थी। अगर लोगों की आलोचना से आहत होकर वे काम करना छोड़ देते, तो ज़िंदगी में कुछ नहीं कर पाते। आज सारे देश में श्रमदान की मुहिम छिड़ चुकी है। और यह कैसे संभव हुआ?
                परंतु नारायणपुर आकर देशप्रेमीजी को कुछ ख़ास देखने को मिला। यहाँ लोग बड़ी लगन से राजनैतिक चर्चा कर जाते हैं, हमेशा जासूसी में लगे रहते हैं कि इतने सारे आयोजन के पीछे किसी राजनीतिक पार्टी का हाथ तो नहीं है? कोई भी अब तक कीचड़ में उतर कर बाहर से आए नौजवानों की सहायता करने नहीं आया। इस प्रकार दूसरा दिन भी बीत गया, पर शहर के बाशिंदों के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया, बल्कि वे सब के सब दर्शक की भाँति भिंड पर खड़े रहे। श्रीमान देशप्रेमीजी सचमुच उलझन में पड़ गए। बाहर से आए हुए नौजवान जहाँ तक हो सके अपना श्रमदान कर बस कुछ ही दिनों में यहाँ से रवाना हो जाएँगे। ऐसी हालत में इस शिविर से कुछ ठोस नतीजा नहीं निकलने वाला है। नतीजा तो तब अच्छा माना जाएगा जब शहर के बाशिंदे तहे दिल से इस कार्य में अपना हाथ बँटाएँगे, किसी सार्वजनिक कार्य में शिरकत करने पर आत्मा कैसे निहाल हो जाती है, उसको भी महसूस करेंगे।
                तो अब देशप्रेमीजी को कुछ असाधारण तरक़ीब अपनानी पड़ेगी!
                दूसरे दिन अख़बार में एक छोटी-सी ख़बर निकली, "सुनने को मिला है कि राजा पोखर की उड़ाही में लगे एक नौजवान को सोने की एक र्इंट मिली, पर पता नहीं चला वह कौन है। इससे संबंधित विस्तृत विवरण, सूचना मिलते ही प्रकाशित की जायेगी।''
                लोगों को पहले से यह भनक थी---राजा पोखर कोई ऐसा-वैसा पोखर नहीं है। अतीत में अमीर लोग अपनी-अपनी धन-दौलतों को ऐसे ही छिपाया करते थे। ज़मीन के नीचे उसे गाड़कर यक्ष बना देते थे और उसकी हिफ़ाज़त के लिए किसी दीन-हीन विवश को ज़मीन में ज़िंदा दफ़ना देते थे। राजा साहब यानी जिन्होंने इस तालाब को वर्षों पहले खोदवाया था, हो सकता है कि उन्होंने किसी तांत्रिक की सहायता से ऐसा किया होगा। अगर ऐसा नहीं तो उड़ाही के समय मानव की खोपड़ी कैसे मिलती?
                बस, उसी दिन किसी दानशील व्यक्ति ने राजा पोखर को सुखाने के लिए पाँच-पाँच उच्च शक्ति वाले पंपों का इंतज़ाम कर दिया। फिर श्रमदान के लिए शहर के लोगों में एकाएक दिलचस्पी पैदा हो गई। नहीं, इसे सिर्फ़ दिलचस्पी कहना सटीक नहीं होगा, बल्कि लोगों का जोश देख उसे तो दीवानगी माना जा सकता था। शिरकत करने वालों की तादाद आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गई; शायद दस हज़ार या उससे भी अधिक श्रद्धालु दिन के नौ बजते ही उमड़ पड़े। नगर थाने से पुलिस वालों का एक दस्ता भी मौक़े पर आ पहुँचा। शांति में किसी प्रकार की विघ्न लाने की कोशिश को नाकाम करना उन लोगों का अब परम कर्तव्य बन गया। पाँच-छः घंटों में पानी काफ़ी हद तक सूख गया, पर पूरी मात्रा में पानी को सुखाने के लिए तथा पोखर को मैदान में तब्दील करने में और चार-पाँच घंटे लगते। देर इसलिए हो रही थी, क्योंकि कीचड़-मिश्रित पानी के घोल आहिस्ता-आहिस्ता बहकर गड्ढे में जमा होता था और पंप उसे सिर्फ़ थोड़ा-थोड़ा कर निकालने में समर्थ था। परंतु लोगों के पास और इंतज़ार करने का धैर्य न था। वे सब देश-सेवा के लिए अपने-आपको तैयार कर चुके थे।  
                लोग तालाब के अंदर घुस गए। सब एकाग्र होकर कीचड़ को फेंटने लगे, हथेली से महसूस करते गए, कुछ मतलब की चीज़ तो नहीं छूट गई? किसी उत्तर की आशा नहीं रखते हुए भी एक दूसरे को पूछते रहे, "क्या सोच रहे हैं आप, क्या कुछ बात बनेगी?'' कुछ लोग अपने-आपको भी कहते रहे, "क्या जाने किसके नसीब में क्या लिखा है?'' किसी को पसीना पोंछने की फ़ुर्सत न थी। किसी-किसी को तो सिंघी मछली ने काँटा भोंक दिया। और कहते हैं न, एक सिंघी सौ बिच्छू के बराबर, पर आहत व्यक्तियों को इसकी परवाह कहाँ? बाल्टियों तथा कुदालों के चट्टनों से, र्इंट से टकराए जाने पर जो झनझनाहट होती थी, वह लोगों के कोलाहल से मिलकर माहौल को उत्सव मुखरित करती थी। बाल्टियों में कीचड़ को भरकर लोग उसे ट्रैक्टरों में डालते गए। इतने गहरे तालाब से कीचड़ से भरी बाल्टियों को भिंड पर लाना और इसे लेकर ट्रैक्टरों में उड़ेलना कोई आसान काम न था। फिर भी लोग काम करते जा रहे थे; उनके दिल में श्रद्धा उमड़ रही थी, साथ जोश की बौछार भी होती रही।
                उस दिन किसी को कुछ न मिला, पर सबने यह सोचकर अगले दिन की प्रतीक्षा की कि पानी और सूख जाएगा, फिर सब चीज़ साफ़-साफ़ नज़र आएँगी। अगले दिन सुबह यह देखा गया कि पानी की मात्रा कुछ अधिक हो गई है। यह फालतू पानी भूमिगत गुप्त नालों से गंगाजी या यमुनाजी से रिसकर आया होगा, शायद। पर कोई रुका नहीं। और भी जोश के साथ कोशिशें जारी रहीं। ऐसे रोज़ सुबह राजा पोखर में पानी भर जाता था और दोपहर तक पंप उसे निकाल फेंकता था। लोग आसानी से कीचड़ निकाल रहे थे। पाँच दिन तक पूरे जोश से काम चलता रहा, और देखते ही देखते राजा पोखर का कायाकल्प हो गया। अब वहाँ कीचड़-कबाड़ों का नामोनिशान तक नहीं रहा।
                यह दूसरी बात है कि अख़बार वाले राजा पोखर से मिले उस सोने की र्इंट के बारे में और ख़बर प्रस्तुत करने में असफल रहे, फिर भी, वह ख़बर झूठ थी---ऐसा इल्ज़ाम उन पर किसी ने नहीं लगाया। आख़िर, अख़बारों की विश्वसनीयता को आजकल कौन नकार सकता है?
                अंत भला तो सब भला---जो भी हो श्रीमान देशप्रेमीजी ख़ुश थे। किसी ने फ़िल्मी स्टाइल में कहा, "मोगाम्बो ख़ुश हुआ।''
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मुज़फ़्फ़रपुर
24-05-2010
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By
A N Nanda
Bhubaneswar
19-11-2013
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Wednesday, November 13, 2013

Living with Mr Subzero - III

Ki Monastery Spiti
Spiti was the seat of Buddhism in the historical past and it exists as such even to this day. The second diffusion of Buddhism that was spearheaded by the king Yeshe Od (947-1024) and his trusted scholar friend Rinchen Zangpo (958-1055) has left innumerable historical artifacts for the present generation to see and wow. A visit to Kaza and around would not be complete without visiting a few monasteries. There were two of them in my itinerary: a short three-day visit would not accommodate more than that. The first one was Ki monastery.

Buddhist Manuscript
‘Look, where is it situated!’ I wondered at the first glance of Ki monastery. The hillock looked as if wrapped by a printed scarf of houses—nay, it looked from a distance as if little houses were crawling their way to the top. Ha-ha! It was as if a giant samosa placed on the craggy landscape.

Buddhist Painting
The monastery is a historical spot where the monks-in-making study their school curriculum in the morning as fixed by the government and the Buddhist philosophy in the afternoon as prescribed by its tradition. There are quite a few such monks belonging to different hierarchies of Buddhist education and spiritual attainment. We were greeted by the monk in charge of reception and given yummy cups of herbal tea. The kitchen with its low roof and very many items of utensil looked like a museum in the dimly lit ambience. Our teas finished, we went round the monastery and its various halls that specialized in Buddhist worship paraphernalia, following a conducted tour. The monk was trying his best to explain drawing parallel with the idols and gods of Hinduism yet I felt it would entail a serious study to know and retain what those philosophical tenets and their associated objects stood for. Among the idols one was Kuber. There were pictures of three Buddhas, the first one of smaller height which was pre-Buddha Buddha and the second was Buddha himself and the third was the picture of the Buddha of future named Maitreyi. And Maitreyi will be a tall and well-built personality. So, it adheres to the evolutionary pattern, say like Dashavatar of Hinduism: fish, tortoise, pig, lion-faced human, the dwarf…. There was a hall full of shelves with the scriptures translated into Bhuti language by Rinchen Zangpo (958-1055). I was told it would take nearly forty years for the monks-in-making to be proficient in Buddhist philosophy and there was some kind of certification system administered from the monastery of Hubli in Karnataka. To be successful in the philosophy test one should enter into debate with other monks and influence the jury that looks on, by one’s erudition.

River Spiti
The other monastery I visited on my way back in the afternoon was Tabo monastery. It is a historical heritage; the Archeological Survey of India has taken the charge of its preservation. There are paintings, quite invaluable in their historical contents. They are of Indian styles and there are paintings of Tibetan styles too. The pictures depict the life and teachings of Buddha, vibrant in colour at some places and faded at others. There are pictures of various mandalas the monks of the day are trying to relive for the prescribed Buddhist attainments and there are the portraits of various kings responsible for donations over a thousand years of its history. There are quite a few stupas in the campus of the monastery. And the whole architecture paraphernalia consists of mud and timber. I was reminded: there is no rain in the area and it may be one of the reasons why we still have them intact after so many years even if they are kuchcha in make.

Buddhist Stupa: Tabo Monastery
Recently the monastery completed its one thousand years of existence and a postage stamp was issued in its commemoration. The hall we went for taking tea after the visit was full of photographs of great personalities that visited the monastery. I found Mrs Indira Gandhi, the former Prime Minister of India had visited the spot. And there was a visitor book, too, that had so many nice comments about the place. When it was turn for me to record something, I just pondered for a minute. The spiritual leadership of India was the theme that struck me and I recorded my remarks saying how proud I felt realizing it. Even if it was for a moment only, I imbibed the ethos of the place. I believe India has the ability to do that again, its present decadence notwithstanding.

And then it was time to return.

The condition of road deserves a special mention. Going to Kaza and not mentioning the dread and beauty of the road, well, the picture would not be complete. We had to cross hills but our course mostly followed the river Spiti up to a place called Khab where Spiti merged with the Satluj. Then it was along the river bank of the Satluj. Somehow I felt, the River Spiti had more water to drain to the Satluj than the latter brought there from China to the confluence. And I felt the name of the river thereafter should have been determined on the basis of the contribution they make in shaping the river. In other words it should have been known as the Spiti, not the Satluj. Should I say it a historical naming blunder?

Miss Spiti
Oh yes, coming back to the road, it is flanked by the river on the one side and the hill on the other. Could there be hills without a rock in them? Yes, there were many that I came across. Some are in the process of making, yet shedding the extra soil around them. As though the hills were the weight conscious entities, seriously taking their gym routine from the time immemorial, and they would not stop until they manage to get a slim figure! Some have taken artistic shape: an imaginary lama or something. Some hills were only rubble heaps barely protected by the retaining walls from their being dumped onto the road. There is a spot named Marling Nala. Oh the dreadful spot. ‘Be aware of the shooting stones’ the roadside notice warned us. And it was enough to send shudders down the spine. But nothing happened. Rather it started snowing as the vehicle was crossing the stream.

The Angry Young Man
While crossing those crucial spots with amazement and trepidation, I was thinking of two eventualities, one humorous and the other apocalyptic. Let me talk about the humorous stuff first. The hills have so much of soil and chipped stones going waste. If the state of Kerala somehow gets one such hills, it could reclaim quite a bit of space out of the Arabian Sea. Isn’t Kerala the densest place today? There is no gap between villages: one passing through Kerala would not know when one village has ended and the other had started! And now let me tell the Apocalyptic thought. Every year so much soil is getting drained into the Satluj and going to Bhakra. How long will it take to fill its reservoir? Not for nothing the environmentalists clamour these days.
[Concluded]
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By
A. N. Nanda
Shimla
13-11-2013
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