The Unadorned

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Sunday, June 02, 2013

छोटू और शंकी


छोटू और शंकी
                इस घर में मुझे कोई प्यार नहीं करता, सब लोग डाँटते ही रहते हैं। क्या छोटा होना बुरी बात है? मैं अगर खेलने चला गया तो मेरी भूल, खेलते-खेलते दोस्त के यहाँ अटक गया तो भी भूल। टी. वी. पर कार्टून देखता तो मम्मी चिल्लाने लगती हैं। कॉमिक्स पढ़ूँ तो डाँट सुनकर उसे अधूरा छोड़ना पड़ता। चाकलेट खाने से दाँत ख़राब होते हैं। बिल्ली को छूने से बीमारी होने का डर रहता है। मुझे समझ में नहीं आता, आख़िर ये लोग चाहते क्या!
                मेरे दोस्त जीत को देखिए और देखिए उसके मम्मी-डैडी को। कितने अच्छे हैं वे लोग। जीत बिल्कुल डाँट नहीं खाता। उसके पास सारे खिलौने हैं--तरह-तरह की कारें, तरह-तरह की बंदूकें। उसके पास ऐसे खिलौने हैं कि सिर्फ़ दो मिनट में वह एक घर बना सकता है, फिर घर तोड़कर पुल बना सकता है। उसके पास ट्रेन-गाड़ी भी है और वह अपने-आप चलती है--छुकछुक, छुकछुक....। जीत जब भी अपने पिताजी से कुछ माँगता है, उसे मिल जाता है। और जीत की मम्मी? वे तो बहुत प्यारी हैं। जब भी मैं जाता, वे मुझे बहुत सारी चीज़ें खाने को देतीं---केक, पेस्ट्री, थाम्सप। मैं जब कभी उनके घर में कंप्यूटर से खेलना चाहता हूँ, वे कभी मना नहीं करतीं। जीत का कुत्ता ब्रुनो भी अच्छा है। वह सबको देखकर भौंकता, पर मुझे देखकर दुलार से दुम हिलाता है।
                काश, मुझे जीत के मम्मी-डैडी जैसे मम्मी-डैडी मिलते!
                आज मुझे पिताजी से बहुत डाँट मिली। आख़िर मेरा क्या दोष है? दोष यही कि मैंने अपनी टिफ़िन की डब्बी खो दी। न जाने वह कहाँ खो गई। डब्बी में तो कुछ रहता नहीं---सब दिन वही पराठे और आलू की भुजिया। पिछले तीन साल से, यानी कि जब से मैंने स्कूल जाना शुरू किया तब से, वही चीज़ें रहती हैं उस डब्बी में। मैंने तो कब का उसे खाना छोड़ दिया। हालाँकि यह बात मम्मी नहीं जानती है। पहले-पहल मैं डब्बी को बग़ैर खोले घर वापस लाया करता था, पर डाँट पड़ने लगी। मेरी गलती सिर्फ़ इतनी कि मुझे पराठे अच्छे नहीं लगते और इसलिए इन्हें लौटा लाया करता था। फिर नगरपालिका वाले कुत्तों को पकड़ कर शहर से दूर हमारे स्कूल के आस-पास छोड़ गए। कुत्तों में से दो तो हमारे स्कूल आते हैं और अब ये दोनों बड़े शौक़ से मेरे पराठे खा जाते हैं। सच में, उन दोनों को कोई आपत्ति नहीं। जब ये बड़े इत्मिनान से दुम हिलाकर पराठे खा लेते हैं तो मैं उनको क्यों न खिलाऊँ? आज पता नहीं डब्बी कहाँ छूट गई और इसलिए पिताजी ने मुझे फटकारा। सिर्फ़ इतना ही नहीं, मुझे दंड भी मिला---आज मुझे शाम का खाना रात दस बजे ही मिलेगा। पिताजी चाहते हैं कि मैं भूख से तड़पूँ, तब जाकर मुझे पता चलेगा कि टिफ़िन-डब्बे को कैसे सँभाल कर रखना होता है।
                मेरे दोस्त जीत के साथ उसके मम्मी-डैडी ऐसा बर्ताव कतई नहीं करते। उसे तो खाने के लिए रोज़ नई-नई चीज़ें मिलती हैं। कभी उसे केक मिलती तो कभी उसके डब्बे में ढोकले होते हैं, कभी समोसे, तो कभी हलवा। चाकलेट की बात तो पूछिए मत---ये तो हमेशा उसके पास रहते हैं। इसके बारे में तो सबको पता है, टीचरजी को भी। कभी-कभार जीत ने अपने डब्बे से मुझे ढोकला खिलाया है। कहता है कि ये उसे अच्छे नहीं लगते हैं, पर ये तो मुझे सचमुच टेस्टी-टेस्टी लगे! इस प्रकार और चीज़ें भी कितनी अच्छी लगतीं! ये सब कभी मेरी मम्मी की अक़्ल में नहीं आता है। पराठे को छोड़कर और कुछ डब्बे में रखने का नाम ही नहीं लेती। हमेशा कहती है कि वह अकेली है और तीन-तीन बच्चों का काम नहीं कर पाती। ऐसे ही कहती है वह। फिर मदद के लिए पिताजी को कहकर और एक मम्मी क्यों नहीं लाती?
                आज मैं होमवर्क नहीं करूँगा। नहीं करूँगा, नहीं करूँगा, कतई नहीं करूँगा। मुझे  शाम का खाना क्यों नहीं मिला, इसलिए नहीं करूँगा। टेबुल याद करके जाना है, अगर यह नहीं करूँ तो कल टीचरजी मेरी पिटाई करेंगी। ख़ैर, होने दीजिए पिटाई, मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार हूँ। भूखे पेट क्या काम करना ज़रूरी है? जिसको खाना नहीं मिलता, वह स्कूल नहीं जाता, पढ़ाई नहीं करता। दाई मुन्नीबाई का बेटा राम्बा भी तो मेरी ही उम्र का है, पर वह स्कूल नहीं जाता। एक बार मम्मी बोल रही थी कि राम्बा के घर खाने-पीने की क़िल्लत है। सो वह स्कूल नहीं जाता है। आज मेरा खाना बंद कर दिया गया। पता नहीं कब रात के दस बजेंगे और कब मुझे रोटी मिलेगी। अगर मैंने आज रात खाना नहीं खाया तो क्या सचमुच कल मुझे स्कूल जाना नहीं पड़ेगा? पता नहीं....पिताजी नहीं मानेंगे। मुन्नीबाई के घर राम्बा के लिए खाना नहीं, सो वह स्कूल नहीं जाता, बस्ती के और बच्चों के साथ मिलकर खेलता रहता है। आज शाम मुझे खाना नहीं मिला, फिर भी मुझे कल स्कूल जाना पड़ेगा। राम्बा कितना ख़ुश है। जीत भी ख़ुश है, राम्बा भी ख़ुश है---सारे बच्चे ख़ुश हैं, सिर्फ़ मुझे छोड़कर।
                अगर मेरा अपना भी एक कुत्ता होता तो कितना अच्छा होता! मैं उसका नाम रखता ट्रिनो और उसे मैं हमेशा अपने साथ रखता। वह मेरी मदद करता, मेरे साथ खेलने जाता, मेरा बस्ता ला देता, भाग-भाग कर मेरा बॉल ला देता, साथ-साथ दौड़ता, हम दोनों पार्क घूमने जाते। अभी जो मैं भूखे पेट तड़प रहा हूँ, अगर मेरे साथ मेरा ट्रिनो होता, क्या वह मेरी मदद नहीं करता? वह तो सीधे रसोई में घुसकर मेरे लिए कम से कम दो बिस्कुट तो ला ही देता! वाह! कितना मज़ा आता!
                बड़ी मुशकिल से मैंने शंकी को अपने घर लाया था। शंकी एक अच्छी क़िस्म की बिल्ली थी, जो किसी से लड़ती नहीं थी। हमेशा अपने शरीर को साफ़ रखने हेतु चाटती रहती थी। उसकी सफ़ाई तो देखते ही बनती, बिल्कुल शंख जैसी। वह इतनी ईमानदार थी कि सामने दूध की कटोरी कोई खुला छोड़ जाए, फिर भी वह उस तरफ़ नज़र तक नहीं घुमाती। जब तक खाने की चीज़ें रखकर शंकी का नाम लेकर पुकारा नहीं जाता, वह उसे नहीं खाती थी। वह चूहा मारती थी, पर उसे मेरे सिवाय किसी ने नहीं सराहा। उल्टे उसे जब देखो पिटाई मिलती थी। तो भला, फिर क्यों रहती शंकी हमारे साथ? एक दिन वह चली गई, फिर लौटकर नहीं आई। एक मैं ही हूँ, जो डाँट सुनकर, पिटाई खाकर भी यहाँ पड़ा हूँ। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मैं बिल्कुल लाचार हूँ।
                घर में हम लोग तीन बच्चे हैं---मैं, मेरी बड़ी बहन, और सबसे बड़ा भाई। मैं सबसे छोटा हूँ। भैया को आजकल मार नहीं पड़ती, क्योंकि वह इम्तहान में ढेर सारे अंक लाता है। दीदी लड़की है और उसे कोई नहीं डाँटता, कभी भी उसकी पिटाई नहीं होती। मम्मी बोलती है, दीदी की एक दिन शादी होगी और वह घर से चली जाएगी। बिल्कुल शंकी जैसी। इसलिए उसे कोई नहीं डाँटता। अच्छी बात है। मुझे भी ऐसी छूट मिलनी चाहिए। भैया जैसे अंक मैं कहाँ से लाऊँ? देने वाले तो मुझे नहीं देते, कंजूस कहीं के। पता नहीं, पिताजी क्यों इतने सारे अंक चाहते हैं। अंक क्या चाकलेट है कि ढेर सारे अंक होने पर पिताजी उसे चबाएँगे। अरे नहीं, पिताजी को मीठी चीज़ पसंद नहीं, शायद इसलिए वे ढेर सारे अंक माँगते हैं।
                जो भी हो, अपने घर में मुझे कोई प्यार नहीं करता। अब तक दस नहीं बजे हैं, फिर भी....अगर ये लोग मुझे प्यार करते तो क्या खाना नहीं ला देते? भैया एक बिस्कुट लाकर मुझे दे देता तो क्या पकड़ा जाता? वह तो अंक लाता है और पिताजी उस पर ख़ुश हैं। पकड़े जाने पर भी पिताजी उसे माफ़ कर देते। फिर भी वह ऐसा कुछ नहीं करता है। और दीदी? वह क्यों डरती है? अगर मेरे लिए बिस्कुट लाते-लाते वह पकड़ी भी जाएगी, तो क्या होगा? अरे हाँ, उसे तो फिर शादी नहीं मिलेगी, सो वह घर से बाहर नहीं जा पाएगी। वह क्या शंकी है कि जब मन किया, घर छोड़कर चली जाएगी! इस घर में रहने से बेहतर है बाहर चला जाना। सच में, दीदी अपनी शादी को बचाने की ख़ातिर मुझे बिस्कुट देने की भूल नहीं कर रही है। ठीक है, मुझे कोई बिस्कुट-फिस्कुट नहीं चाहिए, पर दीदी को शादी मिलनी चाहिए।
                क्या ऐसा नहीं हो सकता है---जीत की मम्मी मुझे इतना लाड़-प्यार करती हैं, फिर वे मुझे क्यों अपने घर पर रहने नहीं देतीं? शायद, इसलिए रहने नहीं देतीं कि मैंने रहने के लिए कहा ही नहीं। अगर मैं कहूँगा तो रहूँगा। वे तो बल्कि ख़ुश हो जाएँगी। मेरे लिए जीत के रूम में एक और खाट लगा देंगी, पढ़ने के लिए टेबुल और खेलने के लिए ढेर सारे नए खिलौने ला देंगी। फिर वे मेरे लिए साइकिल भी ख़रीद देंगी। मुझे लाल साइकिल चाहिए, जीत जैसी साइकिल के दोनों बग़ल दो छोटे-छोटे चक्के फ़ालतू रहने चाहिए। ऐसा होने पर साइकिल चलाते वक्त गिरने का डर नहीं रहेगा। फिर मेरे लिए नए ड्रेस, नए जूते भी आएँगे। जीत को कार में बिठाकर स्कूल छोड़ने उसके डैडी जाते हैं। फिर मैं जब वहाँ चला जाऊँगा तो मैं भी कार में बैठकर जीत के साथ स्कूल जाऊँगा।
                *         *         *         *         *         *
                कल मैंने खाया नहीं, ऐसे ही सो गया। अब सुबह हो गयी है लेकिन भूख नहीं, क्योंकि कल रात मैंने ख़ूब खाया...सपने में। कचौड़ी, गुलाब जामुन, जलेबी, हलवा---सचमुच जीत की मम्मी ने मेरे मनपसंद खाने बनाए थे। जैसे मैंने उनको सुनाया कि स्कूल से आने के बाद मैं बिल्कुल भूखा हूँ और टिफ़िन की डब्बी गुम हो जाने पर मेरा खाना बंद कर दिया गया है, वे तुरंत रसोई में चली गर्इं। इतनी सारी चीज़ें बनाने लगीं कि पूछो मत। मैं खाते-खाते बेदम हो गया। खाने की टेबुल के पास वे खुद बैठी थीं---वे खाती नहीं थीं, बल्कि देखती थीं कि मैं क्या-क्या पसंद करता हूँ। वे मेरे प्लेट में परोसती गर्इं और मैं खाता गया। बस, तबियत भर गयी।
                फिर खाने के बाद जीत और मैं, दोनों मिलकर खेलने गए। जीत के घर के सामने काफ़ी बड़ा बग़ीचा है और बग़ीचे में माली पानी पटा रहा था। जैसे मैंने माली अंकल से पानी का पाइप पकड़ने के लिए माँगा, उन्होंने ख़ुशी से मुझे दे दिया। वाह! बड़ा मज़ा आया। पानी पटाते-पटाते मैंने जीत को भिंगो दिया, फिर जीत ने मुझे। फिर हम दोनों घर लौटे। जीत की मम्मी ने हमें तौलिया लाकर दिया और हम दोनों कपड़े बदले। इसके लिए जीत की मम्मी ने हमें थोड़ा भी नहीं डाँटा। अगर मेरी मम्मी होती तो कितना डाँटती! फिर जाकर पिताजी से शिकायत करती, इसके लिए भी पिटाई होती।
                खेलने के बाद मैं घर चला आया। सोचता था कि जीत की मम्मी से बोल दूँ कि वे मुझे अपने ही घर पर रहने दें। पता नहीं क्यों मैं बोल नहीं पाया। अगर बोल देता तो आज सुबह मैं यहाँ नहीं, बल्कि वहाँ होता। थोड़ी-सी हिम्मत जुटा लेनी चाहिए थी। रोज़-रोज़ ऐसी फटकार सुनने से तो बच जाता! लाड़-प्यार पाने के लिए मैं नालायक इतना-सा काम नहीं कर पाया! मुझे पूरा-पूरा विश्वास है, मैं जब कपड़ा बदल कर घर लौट रहा था, जीत की मम्मी भी चाहती थीं कि मैं उनके यहाँ रुक जाऊँ। आने के समय उनकी आँखों से ऐसा ही आभास मिल रहा था। शायद वे इसलिए रुक गर्इं कि मैं उनकी बात नहीं मानूँगा, उनकी बात टाल दूँगा। जीत की मम्मी सचमुच भोली हैं---इतनी-सी बात समझ नहीं पा रही हैं कि उनके जिगर का टुकड़ा उनके पास लौटने के लिए कितना बेताब है! काश, उन्होंने थोड़ी-सी हिम्मत कर मुझसे पूछ लिया होता तो....। मैं तो उनके यहाँ रहने के लिए व्याकुल हूँ, वे भी मुझे साथ रखने के लिए उत्सुक हैं। फिर दोनों में से कोई भी मुँह खोलकर इस बात को बोलने की हिम्मत नहीं कर रहा है।
                जैसे भी हो, आज मैं जाऊँगा, और जीत की मम्मी से अपने मन की बात बोल दूँगा। कल रात सपने में बोल नहीं पाया, पर हक़ीक़त में बोलने में मुझे कोई हिचक नहीं। 
                                  *         *         *         *                 
               
                "आंटीजी, मैं आज से आप के यहाँ रहूँगा, घर नहीं जाऊँगा। आप मुझे रखेंगी न आंटी?'' मैंने जीत की मम्मी से बेरोकटोक पूछ डाला। मैं जानता था कि सीधी बात से ही काम बनने वाला है।
                "अरे, क्या यह पूछने वाली बात है? पगला कहीं का,'' आंटीजी ने ऐसे ही टोका और मैं उनके कहने के आशय को बिल्कुल समझ गया। मैं यह भी जानता था कि आंटीजी मुझे बिल्कुल मना नहीं करेंगी।
                "आंटीजी, आप कितनी अच्छी हैं, मुझे कितना दुलारती हैं, पर मेरी मम्मी इतनी अच्छी नहीं। अब पता चलेगा उसको। अब से तो मैं आपके यहाँ रहूँगा,'' मैंने इस प्रकार अपनी ख़ुशी का इज़हार किया।
                "नहीं बेटे, तुम्हारी मम्मी बहुत अच्छी हैं। मुझसे भी अच्छी। मैं जानती हूँ क्योंकि वह मेरी सहेली है, जैसे तुम और जीत,'' आंटीजी ने कहा। मैं आंटीजी की इस बात को समझ नहीं पाया।
                "अगर मम्मी अच्छी है और आपकी सहेली है तो फिर कोई बात नहीं। आपके यहाँ रहने पर वह एतराज़ नहीं करेगी,'' मैंने कहा।
फिर आंटीजी ने कुछ नहीं कहा। हमेशा की तरह जीत और मैं दोनों खेल में लग गए। वहाँ आज एक इक्वारियम ख़रीदा गया था। उसके अंदर लाल, पीली कई मछलियाँ तैर रही थीं, एक दूसरे के मुँह से मुँह जोड़कर बातें कर रही थी, एक दूसरे के पीछे भाग रही थी, अंदर कहीं छिपने की कोशिश कर रही थी। लगता था, वे सब ख़ुश थीं क्योंकि उन्हें उनका नया घर मिल गया।
                खेलते-खेलते दो घंटे बीत गए। आंटीजी ने हमें बुलाया और दूध में चाकलेट मिलाकर दोनों को एक-एक ग्लास पकड़ा दिया। हम दोनों दूध पीकर फिर कार्टून देखने बैठ गए। बस, कुछ ही देर में मैंने जब खिड़की से बाहर झाँका तो दूर से हमारे घर की ओर दो जन आते हुए दिखाई पड़े। वे दोनों और कोई न थे, बल्कि वे तो मम्मी और पिताजी ही थे। तो आंटीजी ठीक ही कह रही थीं---मम्मी और आंटी दोनों सहेली हैं। मम्मी तो आंटीजी के यहाँ कभी नहीं आती, फिर आज क्यों?
                मम्मी वहाँ पहुँचते ही फ़ौरन मेरे पास आ गई और मुझे अपनी गोद में उठा लिया। पता नहीं क्यों, वह मुझे और दिनों से ज्यादा प्यार करने लगी। अब मुझे बहुत अच्छा लगने लगा, ऐसा लगा कि मैं घर में सबका दुलारा हूँ, सबसे होनहार हूँ। ऐसा लगा कि मैं मम्मी को छोड़कर कई दिनों से बाहर घूम रहा हूँ और आज रास्ते में वह मुझे अचानक मिल गई। ऐसा लगा कि घर में गर्म-गर्म पकौड़े मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। मम्मी बोली, "जानते हो छोटू, आज कौन हमारे घर आया है?''
                मैं समझ नहीं पाया। वह कौन हो सकता है? ज़रूर मौसीजी होंगी। वही एक हैं जो मुझे हमेशा प्यार देती हैं। जब भी आतीं, झोली भरकर खिलौने, चाकलेट लाती हैं। फिर मैंने कहा, "क्या सचमुच मौसीजी आई हैं?''
                मम्मी ने कहा, "नहीं बेटे, मौसी नहीं। वह तो कल आएँगी।''
                "तो फिर कौन आया है हमारे घर में?'' मैंने अपनी उत्सुकता प्रकट की। अब मैं इस बात पर ख़ुश था कि मौसीजी कल आने वाली हैं।
                "अरे पगला, शंकी लौट आई है। वह तुम्हें खोज रही है,'' मम्मी बोली।
                "तो फिर मैं अब जाता हूँ,'' मैंने कहा।
                "तुम अपने पिताजी के साथ जाओ, मैं थोड़ी देर में आऊँगी। अभी मुझे आंटीजी से बहुत-सी बातें करनी है न।''
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बरौनी
                                                                                                                                                      09-09-2009
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By
A N Nanda
Shimla
02-06-2013
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6 Comments:

Blogger Daulat Ram, PA aps said...

Thanx Sir. I have achieved the hearted moral from "Chhotu & Sunki". Again Thanx.

6:24 AM  
Blogger The Unadorned said...

धन्यवाद, दौलत राम जी | मुझे प्रसन्नता है कि आपने इस कहानी को पढ़ने में समय दिया |

7:46 PM  
Anonymous Anonymous said...

I liked the story. Perhaps all kids would be thinking about their parents the same way . You have aptly described the feelings of all kids, about parents, friend's parents, pets etc.
Lt Col DKS Chauhan

9:30 PM  
Blogger The Unadorned said...

Thanks a lot, Col. Chauhan Saheb. Your comments will encourage me.

9:35 PM  
Blogger abanikanta said...

Emotional Bonding at its best

5:38 PM  
Blogger The Unadorned said...

Thanks a lot, Abani.

9:04 AM  

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