The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Thursday, November 15, 2012

डाकमणि [ Dakmani ]


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This particular story in my book "Virasat" was a favourite of many. I know at least three reputed magazines that had carried it in its original Hindi form. Once in a women's college of Patna, one symposium was organised to discuss the book and in that this story ''Dakmani'' was read. Then I had got it translated and posted in my blog which can be reached by this link. Recently a periodical published from Visakhapatnam had carried this as translated by me into English. Come to think of it, I had written this in fits and starts until that night in Sambalpur when I decided to finish it come what may. It was finished of course but then its original charm came only when I applied myself to to its revision. Anyway as they say the proof of pudding is in the eating. One needs to read both to compare, or at least one to get a feel of it.
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डाकमणि  
      डाकमणि आज अठारह साल की हो गई । उसकी चंचल चाहत भरी आँखें, सुडौल चेहरा, काले घने बाल, नम चमचमाते होंठ---बस, तारीफ़ करने वाला कभी थकेगा नहीं । वह ऐसी लड़की थी जो हर नज़र में देती थी नयापन का अनोखा अहसास । अपने रूप-रंग से तो वह ख़ुश थी ही, साथ ही उसे सबसे प्यारा लगता था अपना नाम---डाकमणि । चेहरे तो और लड़कियों के पास भी होते हैं, पर नाम ? इतना मिठासवाला नाम क्या और किसी का हो सकता है ?
      पढ़ाई में सबसे आगे थी डाकमणि । सभी अध्यापक इस प्रतिभाशालिनी की हर एक उपलब्धि से अपना नाम जोड़ने में लगे थे । अपनी कामयाबी की दास्तान अपनी माँ को सुनाते-सुनाते वह थक चुकी थी । मन की गहराई में वह सोचती थी, 'अगर मेरे पिताजी होते, तो वे भी मेरी कामयाबी पर कितना ख़ुश होते ?’ सहेलियों को डाकमणि जैसा रूपरंग और बुद्धि तो नसीब नहीं थी, पर सबके पास थे उनके अपने पिताजी । कितने ख़ुशनसीब थीं वे सब । 
      भगवान की दुनिया बड़ी विचित्र है और यहाँ सबको सब कुछ हासिल नहीं होता । ख़ुश रहने के लिए व्यक्ति को मिली हुई चीज़ से संतुष्ट रहना पड़ता है, न कि दुर्लभ वस्तुओं के लिए आँसू बहाना । बहुत कम उम्र में ही डाकमणि ने इस अकाट्य सत्य को समझ लिया था । इसीलिए वह अपने को ख़ूब सँवारती थी, ख़ूब होनहार बनाती थी खुद को--लिखने, बोलने, खेल-कूद और नृत्य अभिनय इत्यादि सभी क्षेत्रों में । इन अठारह सालों में किस-किस को अचंभे में नहीं डाली उसने ?
      अक्सर डाकमणि चाहती थी कि उसकी माँ उसे सारी बात बताए, सही-सही सुना दे उसे सारी अनसुनी बातें; पर कोई ज़रूरत नहीं पड़ी माँ को कि वह अपने अतीत के घाव अपनी लाड़ली के सामने खरोंचे । असल में, वह आजकल सुनने की आदी हो चुकी थी । अपनी बेटी की कामयाबी की दास्तान, रोज़ नई-नई बातें, उसमें जीने की नई उमंग ला देती थी 
      परंतु एक दिन डाकमणि ने अपने जन्म से जुड़ी सारी असलियत जान ली । वह किसी कहानीकार की कहानी से कम दिलचस्प न थी । सुनाने वाला कोई और न था; वह था एक बुज़ुर्ग डाकिया ।
      'बहुत दिनों की बात है बेटी, तब हम सब इस शहर के ख़ास महल डाकख़ाने में कार्यरत थे । वहाँ काम से किसी को फ़ुर्सत नहीं थी । डाकिये के हाथ में डाक, मानो ये कभी ख़त्म न होने वाली चीज़ थी । जितना भी बाँटो उससे कहीं ज़्यादा डाक आ जाती थी हमारे ख़ास महल डाकख़ाने में ।
      'इतनी सारी चिट्ठियाँ वितरण करने के बावजूद हम एक औरत को एक भी चिट्ठी देने में समर्थ न हो सके । संदेश की भूखी वह अबला डाकख़ाना खुलते ही वहाँ पहुँच जाती थी और  बरामदे पर बैठी रहती इस उम्मीद के साथ कि चिट्ठियों के ढेर में से उसकी भी एक चिट्ठी मिल जाए। लेकिन वह इतनी ख़ुशनसीब न थी । सारी डाक छँटाई के उपरांत वितरण के लिए बाहर भेज दी जाती थी । आख़िर में वह लौट जाती थी ख़ाली हाथ; यह थी रोज़ की  कहानी । लगता था कि उस औरत को चाहने वाला अब उसे भूल चुका है ।
      'बस, चंद दिनों के बाद उसमें एक परिवर्तन देखने को मिला । अब उसके पाँव भारी हो गए थे । एक अकेली औरत चिट्ठी की तलाश में, और अब वह इस हालत में---लोगों का कौतूहल बढ़ने लगा था । किसने क्या सोचा और किसने क्या समझा, यह तो उसके अपने संस्कार के ऊपर निर्भर करता था, पर मैंने सोचा कि यह औरत एक अच्छे ख़ानदान की है । शायद किसी ख़ास मजबूरी ने उसे यहाँ तक खींच लाया था । मुझे पूरी बात मालूम न थी, लेकिन एक दुखियारी के बारे में कुछ उल्टा-सीधा सोचने के पक्ष में मैं न था ।
      'फिर एक दिन उसकी एक चिट्ठी आ ही गई । यह एक पोस्टकार्ड था । संदेश कुछ अच्छा न था । लिखने वाले ने अपना निर्णय सुना दिया था कि वह लौटकर नहीं आने वाला है । अब वह अपना परिवार बसा चुका था । सरहद पार कर चुका था वह । पुराने रिश्तों को निखारना नहीं चाहता था वह ।
      'उस दिन जब वह औरत अपनी चिट्ठी के लिए डाकख़ाने के बरामदे में पहुँची तो मैंने ही उसे सूचना दी थी । ''बहन जी, आज आपका ख़त आया है । क्या आप उसे लेना चाहेंगी ?’’
      'शायद मेरी बातों से उसे संदेश की कठोरता के बारे में भनक मिल गई थी । वह पैर से सर तक काँप रही थी । लगता था कि उसमें सच्चाई जानने की हिम्मत न थी । शायद उसे सच्चाई की क्रूरता के बारे में पहले से ही अंदाज़ था । फिर अंत में बोली,  ''मंडलजी, ज़रा आप इसे पढ़कर सुना दीजिए ।’’
      'और मैंने उसे पढ़कर सुना दिया । असल में, विषयवस्तु थी नकारात्मक । भाग्य को कोसते हुए लिखा था कि सपने सच होने के लिए भाग्य का साथ होना ज़रूरी है, पर वह उतना ख़ुशनसीब न था कि अपने प्यार को वह सुखद अंजाम दे सके । ऐसी और भी कई बातें--साहित्यिक शब्दों की भूलभुलैया में से सच्चाई झाँक रही थी । वह शख़्स तुम्हारी माँ को छोड़ चुका था । प्यार के बहाने, भविष्य के सुनहरे स्वप्न का रंग भरकर, वह तो एक लड़की को उसके घर से भगाकर लाया था, पर चंद दिनों में वह स्वयं भाग गया कहीं और । एक असहाय लड़की यहाँ रह गई थी, ख़ास महल डाकख़ाने का चक्कर लगाने और एक चिट्ठी के इंतज़ार में वक्त गुज़ारने के लिए ।  
      'उस दिन पूरी चिट्ठी सुनाने का वक्त नहीं मिला था । तुम्हारी माँ प्रसव वेदना में तड़पने लगी थी । हमलोग डाक बाँटते हैं बेटी, कोई डॉक्टर नर्स तो हैं नहीं कि तुरंत कुछ कर पाते । तब तक लोगों का आवागमन डाकख़ाने में बढ़ने लगा था और डाकख़ाने के बरामदे में एक अनूठी घटना घट रही थी । हमलोगों में से एक-दो तो निकल पड़े रिक्शा बुलाने । मैं दौड़ा अपने टिफ़िन रूम की तरफ़ । वहाँ दो मेज़ों को जोड़कर मैंने एक खाट-सी बना दी । तुरंत तुम्हारी माँ के पास गया और उसे हाथ से सहारा देकर उठाया ।  ''बहनजी, तुम इस रूम के अंदर चलो ।’’ वह मेरी बात मान गई।
      'सारे डाकख़ाने में एक भी औरत न थी । हम मर्द लोग करते भी क्या ?
      'हर मर्द के अंदर एक औरत छिपी होती है और मेरे जमीर के अंदर वह औरत बोल रही थी, ''याद करो बेटा, तुमने कैसे अपनी माताजी को तड़पाया था इस दुनिया में आने के लिए ।’’ और मैं तुम्हारी माँ को रूम के अंदर ले जाकर दरवाज़े के पास खड़ा रहा । इंतज़ार करता रहा कि कब उसे अस्पताल पहुँचाऊँ ।
      'पर वही हुआ जो ख़ुदा को मंज़ूर था । बस दो-तीन मिनट के अंदर उस रूम से आवाज़ निकली, एक नहीं बल्कि दो-दो । एक थी रोने की आवाज़, नवागता लड़की की यानी तुम्हारी आवाज़, और दूसरी थी वेदना से उभर आने की धीमी-सी आह । मैं अंदर चला गया, सारी शर्म, हया को पीछे छोड़कर । मुझे मेरा कौतूहल अंदर ले गया था । किसी ज़रूरतमंद के पास खड़े होकर उसे दिलासा देने की इंसानी चाहत मुझे तुम्हारी माँ के पास ले गया था । मैंने तुम्हें अपने गमछा से ढक लिया था । पता नहीं कहाँ से यह लफ़्ज़ जुट गया मेरी जुबान में--मैंने ही तुम्हें पुकारा था, ''डाकमणि, तुम फ़िक्र न करो, बस, एंबुलेंस आने  ही वाला है । तुम डॉक्टर की हिफ़ाज़त में तुरंत चली जाओगी, हमें भूलकर ।’’
      'सचमुच तब तक एक ऑटोरिक्शा आ चुका था । तुम माँ-बेटी दोनों उस पर सवार होकर अस्पताल रवाना हो गइर्ं थीं । साथ में थे पोस्टमास्टरजी ।
      इस प्रकार आज डाकमणि ने मंडल डाकिये से अपने जन्म की कहानी सुनी । सोचने लगी---अक्सर बड़े शख़्सों की जन्म-गाथा किसी बड़ी दिलचस्प कहानियों से कम नहीं होती है, चाहे वह भगवान श्रीकृष्ण की हो या ईसा मसीह की । डाकमणि अब एक मिश्रित भावना की दौर से गुज़र रही थी । वह ख़ुश थी इसलिए कि विशेषताएँ उसके साथ जन्म से ही रही हैं, और वह दु:खी थी इस वजह से कि उसके पिता ने उसकी माता को असहाय छोड़ भाग गए थे । पता नहीं, वह अब कैसे पिताजी की कमी पूरा करेगी । वे तो अब उसकी नज़र से सरासर गिर चुके थे ।
      जन्म से पहले और सयानी होने तक उसकी माँ के साथ क्या-क्या गुजरा है, उसे सुनने के लिए डाकमणि बेताब थी । आज उसे एक बड़ी कामयाबी मिली । बाक़ी बातें वह ऐसे ही पता कर लेगी । कीचड़ से कमल खिलता है और कमल को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिए । इन जानकारियों के बिना कमल में इतनी खूबसूरती, इतनी ख़ुशबू कैसे आएगी ?

संबलपुर,  दिनांक 05-09-2007
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By
A N Nanda
Coimbatore
15-11-2012
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