दोस्त का नाम मुचकंद
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Here is something in Hindi for today's posting. This is a story in my book "Virasat". A post-office story, of course, for the entire book is devoted to that theme. All the thirty stories have something to do with post office and the stake-holders. This particular story I don't think got highlighted by the readers as they did for "Dakmani", "Room Number Three" but nonetheless I had enjoyed creating that. Especially the contact of the middle-aged policeman with the seven-year old boy who gave the clue to the policeman is my favourite twist. Hope the visitors to the blog will enjoy reading this. Possibly I'll publish its English version in this blog, but we have to wait.
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दोस्त का नाम
मुचकंद
वर्षों पुरानी बात है । चिराग़ दिल्ली राजपत्रित
प्रधान डाकघर को तब ख़ूब आमदनी होती थी । दिन में दो-दो बार रिज़र्व बैंक में रोकड़
जमा करने के बावजूद शाम तक ख़ज़ाने में ढेर सारे रुपये बच जाते थे । उन्हें गिनकर
बड़े-बड़े लोहे के संदूक़ों में रखकर सभी घर चले जाते थे । फिर दूसरे दिन दस बजे
उसमें से कुछ रोकड़ रिज़र्व बैंक को सौंप दी जाती थी । डाकघर में इतने रुपये जमा
होते थे कि मानो आस-पड़ोस के लोग कुछ खाते-पीते नहीं थे; सारी-की-सारी कमाई डाकघर के बचत खाते में जमा कर देते थे !
लक्ष्मी के इस प्रकार के आगमन से सब लोग ख़ुश थे,
सिर्फ़ डाकपाल शामलालजी को छोड़ कर । वे बेचारे
रात में अपने तनाव को लेकर डाकघर के बगलवाले मकान में रहते थे और भगवान से हमेशा
प्रार्थना करते थे, कि कुछ अनहोनी न
हो जाए । सुनसान अहाते में उन्हें ठीक से नींद नहीं आती थी । जिस दिन बचे हुए
रुपये ख़ज़ाने में जमा रखने की सीमा को पार कर जाते थे, वे रात भर बिल्कुल सोते ही नहीं थे । चूहा खोजती बिल्ली की
आहट से भी डाकपाल शामलालजी शोर मचाने लगते थे । इससे किसी को कष्ट हो या नहीं हो,
चौकीदार श्रवणराम की नींद ज़रूर हराम हो जाती थी
।
एक बार शाम के क़रीब आठ बजे हथियारों से लैस तीन
नौजवान डाकघर के अंदर घुस आए । उस समय श्रवणराम दरवाज़ा खिड़की बंद करने ही वाला था
। उसको और किसी काम में व्यस्त देखकर ये घुसपैठिये सामने के दरवाज़े से अंदर चले आए
। इन्हें न तो किसी ने रोका न टोका । काम आसान हो गया उनका । तीनों ख़ुश थे कि अंदर
जाने के लिए दरवाज़े पर लड़ना नहीं पड़ा । उन्हें लगा कि डाकख़ाने में प्रवेश करना तो
अड्डे पर खड़ी खाली बस में घुसने के बराबर है !
डाकघर के अंदर सन्नाटा था । मुख्य हॉल से सभी
डाक कर्मचारी चले गए थे । इसे देखकर तीनों सोचने लगे, 'काम आसान होता जा रहा है, हर कदम पर । अब हमें पहुँचना है सीधे मुक़ाम तक । कहाँ हैं
रुपये ?’
वे लोग चल पड़े ख़ज़ाने की ओर । वहाँ लोहे का बना
हुआ एक बड़ा सा पिंजरा था । अंदर जाने के लिए जो गेट था वह भी लोहे का था । पर सारी
चीज़ें लोहे की बनने से भी क्या फ़ायदा जब एक में भी ताला नहीं डाला गया ?
लोहे के पिंजरे में कार्यरत थे चार कर्मचारी ।
वे लोग रुपये गिनने में व्यस्त थे । किसी को और कहीं देखने की फ़ुर्सत न थी । यहाँ
तक कि मच्छर काटने पर अपने आपको एक थप्पड़ मारने का भी होश न था । लगता था, आज सारे चिराग़ दिल्ली वासियों ने आपस में
विचार-विमर्श कर अपने-अपने रुपये-पैसे प्रधान डाकघर में डाल दिये ।
बड़ी आसानी से तीनों नौजवान पिंजरे में दाख़िल हो
गए । एक के हाथ में थी पिस्तौल, बाक़ी दोनों के
हाथ में तेज़ धारवाला चाकू ।
'आप लोगों में से कोई कुछ भी हरकत नहीं करेगा और
सभी अपना-अपना मुँह बंद रखेगा,’ पिस्तौलवाला दाँत
पीसते हुए बोला ।
फिर दूसरे नौजवान ने आदेश दिया, 'सब लोग अब अपनी-अपनी मेज़ के नीचे बैठ जाएँ ।
कोई ऊपर ताकने की हिम्मत नहीं करेगा ।’
चारों कर्मचारी अपनी-अपनी टेबुल के नीचे बैठ गए,
कोई हिला तक नहीं । सभी जानते थे कि यह समय
सिर्फ़ प्राण बचाने का है, न कि जोखिम उठाने
का । टेबुल के नीचे मच्छर काटते ही जा रहे थे । तब उन लोगों को पता चला कि
अपनी-अपनी मेज़ों के नीचे कितनी गंदगी पड़ी हुई थी और कैसी-कैसी बू आ रही थी । एक
कर्मचारी ने तो मन ही मन सोच लिया था कि अगर वह वहाँ से बच निकला तो घर लौटते ही
पहले वह अपनी जुर्राबें साफ़ करेगा !
डाकू बेहद ख़ुश थे क्योंकि पैसे बटोरने के लिए
उन्हें कोई संदूक़ या अलमारी तोड़नी नहीं पड़ी । सारी गड्डियाँ टेबुल के ऊपर रखी हुई थीं
। डाका डालने का अगर इतिहास लिखा जाए तो यह होगी सबसे आसान घटना ! मन ही मन तीनों
ने क्या कुछ नहीं सोचा? फिर अपने को क़ाबू
में रखते हुए उन लोगों ने एक थैले में सारे रुपये भरा और उसे कंधे पर रखकर वहाँ से
रफ़ू चक्कर हो गए ।
जब वे लोग बाहर निकल रहे थे तो उन्होंने
चौकीदार श्रवणराम को देखा । उनमें से एक उसके पास आया, उसे कसकर पकड़ा और दूसरे ने उस चौकीदार की दोनों आँखों में
अमृतांजन का मोटा-सा लेप लगा दिया । बेचारा श्रवणराम भी क्या करता ? जिस्मानी ताक़त तो थी नहीं कि वह डाकुओं को
ललकारे । लड़खड़ाते हुए वह जा पहुँचा डाकपाल शामलालजी के सामने ।
तब तक शामलालजी के पास चारों-के-चारों खजांची
पहुँच चुके थे और डकैती का आँखों देखा हाल सुना रहे थे ।
फिर ख़बर पहुँच गई उस इलाक़े के डाक अधीक्षक तक ।
पुलिस को भी तुरंत इत्तला दे दी गई । तहक़ीक़ात होने लगी । चारों खजांचियों को जाना
पड़ा पुलिस स्टेशन । वहाँ पूछताछ होने लगी । पता नहीं कितने सारे सवालों का सामना
करना पड़ा उन लोगों को, मानो सचमुच वे
लोग चोरों का पता ठिकाना छिपा रहे हों । बाद में उन लोगों को छोड़ दिया गया ।
विभागीय जाँच-पड़ताल भी ऐसे ही चली । सबको पता
चल गया कि डकैती की राशि पैंतीस लाख से अधिक थी । उन दिनों लाख रुपये की राशि होती
थी काफ़ी बड़ी । तब लोग लखपतियों के बारे में चर्चा करते थे, करोड़पतियों के बारे में नहीं । “कौन बनेगा करोड़पति” तो आजकल
का टी. वी. धरबाहिक । खैर, विभागीय जाँच में आसानी से ख़ामियों की सूची बन गई,
जैसे पिंजरे में ताला क्यों नहीं लगाया गया था,
अंदर आने के दरवाज़े क्यों खुले थे, चौकीदार अपनी जगह से क्यों हट गया था, वगैरह, वगैरह ।
एक सप्ताह बीत चुका था । न पुलिस को कुछ सुराग़
मिला न उनके कुत्तों को । फ़ोटो तो बहुत खींचे गए, सवाल-जवाब तो बहुतों के साथ हुआ, पर कोई बता न पाया कि कौन थे ये डकैत।
मगर मामला तो सुलझना था । और यह सुलझ गया बड़े
आश्चर्यजनक तरीक़े से ।
उस दिन सरोजिनी नगर चौक के नज़दीक फ़ुटपाथ पर सात
साल के किसी लड़के को खेलते हुए एक पुलिसवाले ने देखा । वह लड़का अकेला था और उसका
खिलौना था साइकिल का एक ताला । लगता था उस ताले को किसी ने साइकिल की दुकान के
कबाड़ से उठा लाया हो । लड़का उस ताले को एक कील से खोलने का प्रयास कर रहा था ।
पुलिसवाले के अंदर से एक आवाज़-सी निकली और वह
अपने को मनवाने लगा, 'छोटा है पर
जानकार है। चलो तो सही एक बार उसके पास।’
पुलिसवाला उस लड़के के पास गया और उसे कसकर एक
थप्पड़ लगाया । बोला, 'तुम तो बड़े होकर चोर
ही निकलोगे । तुम्हें कोई और चीज़ न मिली खेलने के लिए ।’
लड़का रो पड़ा, सिर्फ़ आधा मिनट के लिए । शायद वह रोते-रोते सोच रहा था कि
किन लफ़्ज़ों से वह पुलिसवाले को गालियाँ दे । फिर वह बोल पड़ा, 'तुम बड़े पुलिसवाले बनते हो ? छोटे-छोटे बच्चों को पीटते हो ? ज़रा बोलो तो सही, क्या बिगाड़ा है मैंने ? जो डाकख़ाना लूटता है, तुम उसका क्या करते हो ?’
इतने छोटे बच्चे के मुँह से इतनी बड़ी बात ?
इसका मतलब, पुलिसवाले ने अपनी अंदर की आवाज़ सुनकर ठीक ही किया । लड़के
से पूछा, 'कौन है वह जो डाकख़ाना
लूटता है ? तुम उसे जानते हो ?’
'हाँ, मैं जानता हूँ । पर मैं क्यों बताऊँ यह बात तुम्हें ? तुम तो मेरे दोस्त नहीं हो और तुम मुझे पीटते हो ।’
पुलिसवाला स्वयं दो बच्चों का पिता था और वह
जानता था कि अब उसे क्या करना चाहिए !
'सुनो दोस्त, मुझसे गलती हो गई । मैं अपने दोस्त को पहचान न पाया । एक बार
तो मुझे माफ़ कर दो,’ पुलिसवाला
पुचकारा ।
'लो माफ़ कर दिया । अब सुनो । चोर का नाम बांगर
है और वह मेरी बहन से प्यार करता है । पिछले हफ़्ते चिराग़ दिल्ली डाकघर में जो
डकैती हुई है उसे बांगर ने ही किया है । उसके पास एक बंदूक है और वह मुझे उससे
खेलने नहीं देता । वह मेरा दोस्त नहीं है । उसे पकड़ लो । वह मेरी बहन को लेकर न
जाने कहाँ भाग गया है ।’
फिर एक साँस लेकर लड़के ने पूछा, 'तुम इसे गुप्त रखोगे न दोस्त ? किसी से नहीं कहना कि सारी बात तुमने दोस्त
मुचकंद से सुनी है ।’
पुलिसवाला मन ही मन ख़ुश हो रहा था । ऐसा मौक़ा
पुलिसवाले की ज़िंदगी में बार-बार नहीं आता । मानो अपनी तरक्की तो पक्की हो गई ।
उन्होंने फिर अपने दोस्त को दिलासा देकर बोला, 'कांस्टेबल दौलतराम जानता है, दोस्ती कैसे निभाई जाती है । तुम बेफ़िक्र रहो, दोस्त ।’
बड़ी आसानी से डाकू पकड़े गए । कुछ रुपये बरामद
हुए । एक तो सीमा पार काठमांडू भाग गया था, पर पुलिस से वह कितने दिन दूर भागता ?
कितनी आसान थी वह डकैती और कितना आसान बन गया
उसे सुलझाना !
ब्रह्मपुर, दिनांक 17-08-2008
Labels: short story, Virasat
5 Comments:
Very nice story.The best thing about it was simple hindi.Otherwise hindi witers only write complex words and make it impossible to read anything.
प्रिय Anonymous 3mik
धन्यवाद । सरल भाषा में लिखना इसलिए पड़ा क्योंकि मुझे इससे ज्यादा हिंदी मालूम नहीं । हाँ, मातृभाषा हिंदी होती तो शायद बात कुछ अलग होती ।
ए एन नन्द
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कौन कहता है कि आप हिंदी कम जानते हैं? एक हिंदीभाषी भी इतनी अच्छी हिंदी नहीं लिख सकता। बहरहाल, यह कहानी उन लापरवाह कर्मचारियों के लिए एक सबक है जो अपनी जिम्मेवारी ठीक से नहीं निभाते। जिनकी आदत हर चीज को हल्के से लेते हैं। यह भी सही है कि हथियारबंद डकैतों का सामना निहत्थे लोग नहीं कर सकते, लेकिन उसे बाधित तो कर ही सकते हैं।सर, बधाई हो - कहानी बहुत अच्छी बनी है। आपका - जयकृष्ण रजक।
जयकृष्ण जी,
कहानी के बारे में आपका विचार पढ़ कर मुझे काफ़ी प्रसन्नता हुई । सोचता हूँ, अगले कुछ दिनों में "विरासत" में से खास-खास कहानियाँ चुन कर इस ब्लॉग में सामिल कर लूँ । पढ़ने वालों के पास कहानी पहुँच जाए, चाहे वह किसी भी माध्यम से क्यों न हो, यह हर कहानीकार की इच्छा होती है । धन्यवाद ।
ए एन नन्द
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