The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Tuesday, March 22, 2011

A Review: A Pleasant Surprise

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A writer loves to be praised and sometimes, faced with encomiums, he can go to the extent of suspending his disbelief. But there are occasions pleasant surprises do come his way. Shri Naval Kishore Kumar's review in his website Apna Bihar came as a pleasant surprise to me. In fact I waited for something like that. Whatever was said by Sanjeev on the day of the release of "Ek Saal Baad" was not received by the audience just because he is a great fellow in Hindi literature. A writer should always treat his readers with respect and he who follows that courtesy eventually succeeds. With his permission, let me copy and paste the content in my blog.
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एक साल नहीं, हज़ार साल के बाद भी खून के छींटे
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कहानियों को पाठक बनकर पढ़ने में जो मज़ा हैं, वह एक सर्वज्ञाता होने का ढोंग कर पढ़ने में नहीं मिल सकता हैऐसा मैंने अपने जीवन में असंख्य बार महसूस किया हैअलबत्ता एक पाठक होने पर आप भी महसूस कर सकेंगे लेखक अथवा कहानीकार के वास्तविक सृजन क्षमता कीयदि आपने पहले ही अपने मन में यह बिठा लिया कि अमुक तो केवल बेसिर-पैर की बात ही लिखता है अथवा अच्छा उसकी लिखी कहानियां हैं तो निस्संदेह अच्छी होंगी, आपकी पाठकता का सत्यानाश हो जाएगा

एक दिहाड़ी पत्रकार को इतनी फुर्सत नहीं मिलती है कि वह खबरों के अलावा भी कुछ लिख पढ़ सकेयह एक दुर्भाग्य मेरा भी हैलेकिन यह मेरा सौभाग्य भी है कि चाय के साथ बिस्कुट खाते वक्त या फिर सुबह-सुबह बाथरूम में बैठकर अखबार के बजाय कहानियां और कविताओं को पढ़ने का मौका मिल जाता हैपिछले दिनों में एक कार्यक्रम में बतौर पत्रकार शामिल हुआउस कार्यक्रम में हंस के उपसंपादक संजीव जी मुख्य अतिथि थेउनके अलावा बिहार सरकार में श्रमसंसाधन विभाग के महासचिव व्यास जी मिश्र भी उपस्थित थेअवसर था पोस्टल डिपार्टमेंट में कार्यरत वरिष्ठ पदाधिकारी श्री एन नन्द द्वारा लिखित कहानी संग्रह "एक साल बाद" के विमोचन कापत्रकार होने के कारण जो बातें मैंने उस समय सुना और समझा था, उसे उसी दिन अपने अखबार के बाबा आदिम ज़माने के कंप्यूटर पर टाईप कर चुका थाअलबत्ता मुझे यह याद नहीं है कि वह रपट छपी अथवा नहीं, लेकिन मेरे पास उस कार्यक्रम का मूल अवशेष रह गया थायानि मेरे पास "एक साल बाद" की एक प्रति मौजूद थी

करीब 20-25 दिन बाद होली आते-आते मेरे पास पहुँचने वाली पुस्तकों की संख्या बढ़कर 26 हो चुकी हैंमैं उस वक्त स्वयं दुविधा में पड़ गया जब मेरे पास फुरसत के दो दिन थेमैंने अपने केबल आपरेटर से निवेदन कर दो दिन के लिए केबल कनेक्शन हटवा लिया था, ताकि मैं इन दो दिनों के अन्दर केवल किताब पढ़ सकूंपहली किताब जो मेरे सामने आई, वह थी देवेन्द्र शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक "भूख का असली चेहरा"। पुस्तक ज्ञानवर्द्धक थी, इसलिए पूरी किताब 3-4 घंटे के अन्दर एक सांस में पढ़ गयाइसके बाद जब मैंने एन नन्द की कहानी संग्रह "एक साल बाद" को पढ़ना शुरू किया, तो मुझे अपने पूर्व के फैसले पर चिंता हुईमैंने सोचा था कि इसमे कोई ऐसी बात नहीं होगी, जल्द ही मेरा मन उकता जाएगा और फिर तीसरी किताब को भी पढ़ने का मौका मिलेगामेरी सोच गलत थी

पुस्तक वाकई बहुत अच्छी है और जितनी अच्छी इसकी प्रिंटिंग है, उससे भी अच्छी इसकी कहानियाँ हैंपहली कहानी विदाई, जो पिता और बिन माँ की बेटी के बीच के रिश्ते को जगजाहिर करती हैइस कहानी में मुझे अपने आने वाला भविष्य नज़र आयाभगवान मुझे भी बेटी दी हैं और संभवतः इस कहानी में जिन परेशानियों का ज़िक्र श्री नन्द ने कहानी के नायक पिता यानि अमरेश बाबू के लिए किये है, शायद आने वाले 18 सालों के बाद मुझे भी उन परेशानियों से दो चार होना पड़ेगाअंतर केवल इतना है कि मेरी पत्नी अभी जीवित हैं और मुझे माँ की ज़िम्मेदारी का निर्वहन नहीं करना पड़ रहा हैलेखक के भावों की खुबसूरती देखिये - "मेरी बेटी जहाँ जायेगी, कम से कम वहां बड़ा परिवार नहीं होना चाहिए, उसे ननद का ताना नहीं सुनना पड़े"। आज की परिस्थिति में ये शब्द हर पिता के लिए प्रासंगिक हैंइसकी वजह चाहे जो भी हो, लेकिन यह ऐसी शर्त है, जिसे पढ़े-लिखे लोग हर हाल में पूर्ण होते देखना चाहते हैंचाहे इसकी कीमत अधिक क्यों चुकानी पड़े

एन नन्द की किताब को पसंद करने की दूसरी और सबसे मजबूत वजह हैं "छोटू और शंकी"। श्री नन्द ने अपनी दूसरी कहानी में मेरे बचपन को उकेर दिया हैबचपन में मेरे पास भी एक शेरू था, ठीक वैसे ही जैसे छोटू के पास शंकी नामक बिल्ली हैअपने हिस्से का दूध शेरू को पिलाकर पिताजी से मार खाना उस वक्त भी अच्छा लगता था और आज भी वे पल गुदगुदाते हैंहालांकि इस कहानी में कुछेक जगह छोटू की जगह स्वयं श्री नन्द दिखाई पड़ेबच्चों के मुंह से सरल और सुस्पष्ट शब्द ही अच्छे लगते हैंअब बच्चा यदि उर्दू और हिंदी के तत्सम शब्दों का धाराप्रवाह प्रयोग करे कृत्रिमता के बंधन में दम तोड़ने लगता है

तीसरी कहानी "मुछंदर का कमाल" तो वाकई कमाल थाअंत तक मैं समझ सका कि मैं श्री नन्द को पढ़ रहा हूँ या फिर भागवत शरण उपाध्याय द्वारा लिखी पुस्तक "खून के छींटें" कोवास्तव में अपनी तीसरी कहानी में श्री नन्द ने वही लिखा है जो दुर्भाग्य से हमारे समाज की परंपरा रही हैंक्षत्रियों और ब्राह्मणों के बीच वर्चस्व की लड़ाई का लम्बा इतिहास है जो वर्त्तमान में भी जारी है और भविष्य में भी जारी रहेगीलेकिन रसोइये ब्राह्मण द्वारा बेजात कमली को स्वीकार करना आज के दौर में ब्राह्मणों की मजबूरी को ही साबित करता है

अन्य कहानियाँ भी अत्यंत ही दिलचस्प हैंकिताब की रोचकता बनी रहे, इसलिए "एक साल बाद" की कहानी का अंत करना आवश्यक हैएक बार फिर श्री एन नन्द के प्रयासों की सराहना मैं इसलिए करना चाहता हूँ क्योंकि ये उड़िया भाषी हैं और ब्युरोक्रेट होने के बावजूद उम्दा साहित्यकार हैं

समीक्षक - नवल किशोर कुमार
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By
A. N. Nanda
Muzaffarpur
22-03-2011
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2 Comments:

Anonymous A. K. Sinha said...

प्रिय नन्द जी,
31 मार्च की शाम आपके कमरे से निकलते समय मैं यह सोच ही रहा था कि पटना जाकर सबसे पहले “एक साल बाद” पढूंगा और वादे के अनुसार अपनी प्रतिक्रिया से आपको अवगत कराऊंगा. मुझे जरा भी इन्तजार नहीं करना पड़ा और कार्यालय के पुस्तकालय हेतु आपके हस्ताक्षरों से सुसज्जित प्रति उसी शाम पढ़ पाने का अवसर मिला. या यों कहें कि मैंने समय के प्रवाह के विपरीत जाकर पहले तो “एक साल बाद” पढ़ा और फिर आज “विरासत”.
स्पष्टतया लेखनी ने नयी मंजिलें तय की हैं. भाषा का प्रवाह और उसकी प्रासंगिकता बाँधे रखती है. लेखक ने समाज के कई वर्गों और बच्चों की भी मानसिकता को बखूबी पकड़ा है. प्रथम दृष्टि में कई कहानियों का कथ्य उनके पात्रों की सरकारी सेवा और इसके अनुभवों के इर्द-गिर्द ही सिमटा दिखाई देता है, परन्तु जल्दी ही उनके अन्य पहलुओं से साक्षात्कार होता है. कई कहानियों का अंत अप्रत्याशित है और यही उनकी विशेषता भी है. पुस्तकों की आशातीत सफलता के लिए मैं अपनी संपूर्ण शुभकामनाएँ व्यक्त करता हूँ.

आपका
आलोक सिन्हा
डा. व. दू. लेखा परीक्षा कार्यालय, पटना.

8:01 AM  
Blogger The Unadorned said...

मैं अभिभूत हूँ, सिन्हा जी; आपकी उत्साहवर्धक बातें मेरे लिए काफी महत्त्व रखती हैं। अगर इस पर पूरी समीक्षा लिख सकेंगे और किसी पत्रिका में छापवाएंगे तो मुझ जैसे नौसिखुआ लेखक को पाठकों के और करीब जाने का अवसर मिलेगा। अगर पत्रिका में छपवाने में कठिनाई होगी तो में उसे अपनी ब्लाग में ज़रूर सामिल कर लूँगा।

ए एन नन्द

9:11 AM  

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