The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Monday, July 12, 2010

A Review to Record

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I've been considering if I should post a full review of my book "Virast" but the fear that it would be a long post has been a dissuading factor. Today I received a copy of "Sammelan Patrika", the research quarterly of Hindi Sahitya Sammelan, Prayag, Allahabad where a beautiful review of my book has been published. It's a respectable magazine and the review in it is a rare honour for "Virasat". So, I decided to relax the rule of blogging and went ahead with typing the text. It is a good way of keeping a record.
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तलाश की छ्टपटाहट
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समीक्षाकार- श्री नन्दल हितैषी
67/45 छोटा बगहारा प्रयाग
इलाहाबाद- 211 002
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साहित्य की कथा-विधा ने आज जो रूप या आकार लिया है, वह कई आन्दोलन से गुज़रने के बाद अपने कथ्य और शिल्प का प्रतिफलन हैं तमाम सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनैतिक सन्दर्भों को समेटे मानवीय संवेदनाओं को तलाश ही कहानी की केन्द्रीयता हैं मनुष्यता का रेखांकन ही आज के इस बाजारवादी दौर में एक अहम् मुद्दा भी है

कथा लेखन एक मुश्किल विधा है यह 'मुश्किल' तब और बढ़ जाती है, जब कहानियों का सारा सन्दर्भ एक ही 'कंटेंट' पर आधारित हो . एन. नन्द का कहानी संग्रह 'विरासत' भीड़ से अलग हट कर एक ऐसा संग्रह है, जिसमें तीस कहानियाँ हैं महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सभी कहानियों के केंद्र भारतीय डाक विभाग अपनी पूरी गारिमा, त्रासदी और मानसिकता के साथ उभरता है, सामान्य रूप से जो एक मुश्किल काम है

रचनाकार . एन. नन्द 1982 बैच के भारतीय डाक सेवा के चर्चित अधिकारी हैं ज़ाहिर है उन्होंने विभागीय सारे सन्दर्भों को बहुत नज़दीक से देखा, समझा और टटोला है और अपने गहन अनुभव से उन्हें कहानियों का आकार दिया है, अपने भाषा और शिल्पगत संस्कार के हवाले से। जन्म से रचनाकार अहिन्दीभाषी क्षेत्र का रहा चूंकि रचनाकार कवि भी है, इसीलिए मानवीय सरोकारों का पक्षधर भी रहा है, जो सहज और स्वाभाविक भी है 'इन हारानेस' अंग्रेजी कविता संग्रह कलकाता से पूर्व में ही प्रकाशित हो चुकी है उसी क्रम में ' रिमिक्स आफ ऑर्किड' अंदमान और निकोबार द्वीप समूह दृश्य बंध पर आधारित अंग्रेजी कहानी संग्रह भी पूर्व में प्रकाशित हो चुकी है यानी कि कविता और कहानी से रचनाकार बराबर जुड़ा है और इसी मनुष्यता की तलाश वाली मानसिकता ने 'विरासत' कहानी संग्रह में खुद को विस्तारित किया है

आज स्थिति यह है कि धीरे-धीरे डाक विभाग आमआदमियों या व्यवसाय से दूर होता जा रहा है. अब कोई नायिका अपने प्रिय की पाती का इंतज़ार नहीं करती, कोई भी माँ-बाप अपने बेटे-बेटियों के पत्रों की आस नहीं लगाते और ना ही कोई व्यवसायी डाकिये की राह देखता है। आज यह सब काम मोबाईल फोन ने संपन्न करने का ठेका ले रखा है। दावा तो यहाँ तक है कि 'कर लो दुनिया मुट्ठी में' एक समय था जब डाकिया दुःख-सुख का संवाहक हुआ करता था। सच तो यह है कि इन्ही खातो-किताबत से इतिहास का मोड़ बदल जाता था।

'विरासत' कहानी-संग्रह में डाक-विभाग के कई आयाम, कई सन्दर्भ और उसी बहाने आदमी की सोच के पर्त-दर-पर्त खुलते जाते हैं। इन कहानियों में हास्य के साथ करुणा भी पाठकों को अपना सहज बोध कराती है। आप-बीती ही नहीं, जग बीती का तकाजा भी अर्थ को विस्तार देता है। रचनाकार की भाषा शिल्प के कसाव को मजबूत करती है। 'बुखार' शीर्षक से पहली कहानी जो मुझे एक सार्थक 'लघु कथा' लगती है, द्वीप समूह में डाक और पार्सल वितरण के पूर्व उसकी पावती के लिए कई परेशानियों से होकर गुजरना पड़ता है। बुखार की हालत में भी डाक-रनर अपने दायित्वों के प्रति इतना सजग है कि पानी में गिरते-गिरते भी वह डाक/पार्सल थैले को डेक पर ही फ़ेंक देता है। कसी हुई भाषा का एक उदाहरण देखें--"नवम्बर का महीना थामानसून अपनी वापसी गश्त में निकोबार के लिए गज़ब की बारिश लाया थाहालांकि उस जहाज़वाले दिन बारिश का प्रकोप कुछ घट गया था, पर रुक-रुक कर बूंदा-बूंदी होती रहीजहाज़ ने आकर कार निकोबार समुद्र किनारे से तक़रीबन एक किलोमीटर की दूरी पर लंगर डालापिटर ने बड़े सबेरे उठ कर एक बरसाती उढ़ ली और जेट्टी की और चल पडा"

'संकटमोचन ताबीज' भी एक कसी हुई लघु कथा कही जा सकती है की कहानी! कहानियों में जहां सब कुछ कह देना एक आवश्यकता हो सकती है, वहीं लघु कथा में उसका 'अनकहापन' ज़रूरी होता है। वस्तुतः लघु कथा जहां समाप्त होती है, वहीं से प्रारंभ होती है उसकी सोच, कुछ-कुछ बोध कथाओं की तरह। 'संकटमोचन ताबीज' एक अजीब मानसिकता की रचना है। आरम्भ में तो ऐसा नहीं लगता कि यह कहानी डाक विभाग से संबंधित होगी, लेकिन जल्दी ही एक पर्स (बटुआ) की खोजबीन में डाक विभाग से टकराहट हो ही जाती है। दोस्ती के सामने एक बड़ा-सा प्रश्न चिह्न लगाती हुई कहानी या लघु कथा! रचना समाप्त होती है इन शब्दों के साथ--"चकित होकर वह विशाल की और रहस्यभरी नज़रों से देखता रहासोच रहा था, क्या दस साल काफी थे एक दोस्त को पहचानने के लिए" रचना का अनाकहापन यही से अपने सोच को विस्तारित करता है।

कुछ इन्हीं सन्दर्भों में 'इंसाफ के लिए' शीर्षक भी लघु कथा की श्रेणी में गिनाई जा सकती है, गलत आदमी के गलत कारनामे, तथाकथित वकीलों की चालाकी और मक्कारी। इस कथा के सन्दर्भ में कुछ तकनीकी खामियाँ भी पाठकों के जेहन में कौंध सकती हैं, जैसे कोई भी व्यक्ति सरकारी कार्यालय (डाक घर) की कुर्सियां, टेबुल आदि से कोर्ट के फैसले के बावजूद भी अकले खुद उठाकर नहीं ले जा सकता है, जबकि इस रचना में एक वकील द्वारा ऐसा कुछ कर दिया जाता है। कुछ कागज़ी कार्रवाई भी अपेक्षित होती ही है।

छोटी-छोटी घटनाओं को कहानी का रूप देना फौरी तौर पर सहज नहीं होता, लेकिन जब ये घटनाएँ किसी मौलिक रचनाकार से होकर गुजरती हैं तो उस साधक के लिए सहज हो जाती हैं। 'दो ताबूत' शीर्षक कहानी से ऐसी ही धारणा रचनाकार के प्रति रेखांकित होती हैं।

इस संग्रह की उपलब्धि कही जानेवाली कहानियों में क्रमशः 'कबूतरों के साथ', 'रामजी का रजिस्टर', 'कालीचरण की बेटी', 'क्या जात है आपकी', 'डाकमणि', 'इज्ज़त' और 'किसकी सुनें' आदि को गिनाया जा सकता है। ये संदर्भित सारी कहानियाँ परंपरा से अलग हटकर मानवीय सरोकारों को तलाशती भी हैं और जनहित में तराशती भी हैं। 'कबूतरों के साथ' एक छटनी करनेवाला साधारण से कर्मचारी का भावात्मक ह्रदय परिवर्तन कथानक के अनुसार होता है, जो कहीं से अस्वाभाविक नहीं लगता हैं। कहानी की सकारात्मकता पूरी शिद्दत के साथ उभरती हैं। कुछ इन्हीं सन्दर्भों में 'रामजी का रजिस्टर' मानवीय संवेदनाओं और आत्मबल को बढ़ाती है। कहानी के प्लाट के लिए मानो रचनाकार को भटकना नहीं पड़ता है। इसी तरह कहानी 'कालीचरण की बेटी' आज के इस दौर में बाप-बेटे की मानसिकता यानी कि पीढ़ियों के गैप पर आधारित है। बेटी बाप के प्रति अधिक सजग और तत्पर दिखाई देती है, जबकि बेटे के सन्दर्भ में रचनाकार कहानी के अंत में स्वीकारता है "सरकारी नौकरी तो उसे नसीब नहीं हुई, मगर यह सुनाने को मिला कि विशु (बेटा) पंचायत के मुखिया के लिए इस साल चुनाव लड़ने जा रहा हैं"

निश्चय ही 'क्या जात है आपकी' कहानी एक कसी हुई सार्थक कहानी कही जा सकती है। मंदाकिनी नाम की एक ऐसी लड़की जो प्रगतिशील विचारों की है, उसने नौकरी चुनी भी तो डाक विभाग की। उसने यह सेवा इसलिए चुनी कि उसे भारत के कोने-कोने से अनुभूति हासिल हो और वक्त आने पर वह सृजनशील रचना के क्षेत्र में अपने कदम रख सके। जिस मंडल में मंदाकिनी प्रशिक्षण के लिए जाती है, वह क़ानून व्यवस्था की दृष्टि से बिलकुल अशांत था। बात-बात में हिंसा पर उतर आने वाले लोग और उनकी मानसिकता। एक तहकीकात के सिलसिले में इस डाक-निरीक्षक को बीहड़ गांव में जाना पड़ता है। क़ानून व्यवस्था के रखवाले पुलिस मोहकमा भी उसे वहां जाने से रोकता है। लेकिन मंदाकिनी अपना इरादा नहीं बदलती। उस धुर बीहड़ गाँव में घुसते ही साइकिल से आता हुआ एक व्यक्ति दिखाई देता है। साम्यवाद के उस इलाके में आगंतुक ने मंदाकिनी से पूछा क्या जात है आपकी? मंदाकिनी का उत्तर होता है 'पोस्ट आफिस' गरीब बृद्ध लोगों के रूपए गबन करने के जुर्म में सरदार ने उस बहके हुए धोखेबाज कर्मचारी को क्या दंड दिया यह बात तो मंदाकिनी जान पाई, लेकिन दोपहर तक उसे सारे रुपये और सम्बंधित लोगों के बयान मिल चुके थे। इस एक अच्छी सकारात्मक सोच की कहानी में पहला पैराग्राफ अनावश्यक-सा लगता है। दूसरे पैराग्राफ से भी कहानी अपनी सार्थकता सिद्ध करने में समर्थ है।

'डाकमणि' कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है! एक सुन्दर सुशील लड़की, अपने आचरण से सबका दिल जीतनेवाली। नालायक पिता ने उसकी माँ को छोड़कर दूसरा घर बसा लिया है। माँ ने भी अपनी दास्तान उसे कभी नहीं सुनाया है या उसने ज़रुरत नहीं समझी, लेकिन एक दिन लड़की ने अपने जन्म से जुडी सारी असलियत जान ली। वह किसी कहानीकार की कहानी से काम दिलचस्प थी। सुनानेवाला कोई और था, वह था एक बुजुर्ग डाकिया। वस्तुतः जब वह कन्या पेट में थी तभी उसके पिता कमाने परदेश चला गया था। पत्नी बिना नागा प्रतिदिन डाकघर इस आशा से जाती है कि शायद उसके पति की कोई चिट्ठी आज मिल जाए। लेकिन निराशा ही उसकी नियति बनती जा रही थी और एक दिन डाकघर में ही उसकी प्रसब पीड़ा अपने चरम पर थी। सहृदय डाककर्मियों ने विशेष रूप से उस बुजुर्ग डाकिया ने पुरुष होते हुए भी अपने चादर में ओढाकर वहीं लम्बी मेज पर लिटा दिया, एम्बुलेंस आने तक एक कन्या का जन्म हो चुका था और उसी बुजुर्ग डाकिये ने नामकरण भी कर दिया था 'डाकमणि' वस्तुतः हर मर्द के अन्दर एक औरत भी छिपी होती है और हर औरत में एक मर्द भी। 'इज्ज़त' कहानी को भी लघु कथा की श्रेणी में रखा जा सकता है।

'विरासत' कहानी इस संग्रह की मानो केन्द्रीयता भी है और डाक विभाग की त्रासदी भी। मगनलाल नामक एक युवा मैट्रिक परीक्षा में ९३ प्रतिशत अंकों से उतीर्ण होता है, लेकिन डाक विभाग में एक साधारण-सी नौकरी की आवश्यकता ने निश्चय ही उसका पूरा कैरियर ही खा लिया। दो-तिन बार विभागीय निरीक्षक पद कि परीक्षा देता है, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते पढ़ाई के अभाव में सफलता नहीं मिलती है। नतीजन डाक सहायक पद पर ही संतोष करना पड़ता है। मुश्किल से खर्चा चल रहा है परिवार का, दोनों बच्चे भी बड़े हो रहे हैं। अपनी स्थिति के मद्देनज़र उसने सोच रखा है कि अपने बच्चों को कभी भी डाक विभाग की नौकरी में नहीं लायेगा, लेकिन एक दिन वह अपने बड़े बेटे को लेकर डाक निरीक्षक के सामने जा खडा होता है। चतुर्थ श्रेणी का एक पद पास के ही किसी डाकघर में अस्थाई रूप से खाली है। निरीक्षक महोदय लडके से मुखातिब होते हैं। "कल से जाओ काम पर और मेरी बात पर ध्यान दो, हर इतवार तुम्हे मेरे घर पर आना पडेगा...अगर काम सही ढंग से सिखाना है तो.... और जल्दी नौकरी पक्की करवानी है तो!" यानी कि बतौर विरासत एक बेटे को भी डाक विभाग में अति साधारण नौकरी बेगारी के साथ करनी ही पड़ी। कहना होगा कि यह परम्परा या विरासत आज किसी भी सरकारी सेवाओं में अपना दायरा बढ़ा रहा है।

'वह अमर रहे' शीर्षक रचना अपने अनकहेपन को अपनी बुनावट और शिल्प के कसाव द्वारा स्थापित तो करती है, क्योंकि किसी भी कहानी का समापन ही उसके वृत को पूरा करती है। 'लेन-देन के बीच में' इस कहानी का अंत अपनी मर्यादा के साथ हुआ है, फिर भी यह एक ऐसी रचना है जो अपने घटनाक्रम के कारण कहानी बनते-बनते रह जाती है। 'जुर्माना' शीर्षक की कहानी अपने समापन बिंदु तक आते-आते बनावटी लगती है। इसके बावजूद भी एक अच्छी कहानी है। संग्रह की अन्य कहानियों में एक तथाकथित धार्मिक उन्माद, कार्यालय में पूजा-पाठ और अब तो मंदिर-मस्जिद के प्रतीकात्मक निर्माण भी होने लगे हैं। इसे संविधान की उदारता कहा जाए या अपनी-अपनी राजनीति? 'ज्वालाराम पकौड़ीवाला' तक आते-आते आज के दौर में आदमी का शातिराना अंदाज़, कुछ श्रम और कुछ ज्यादा ही प्रारब्ध और सबसे ज्यादा मक्कारी भरी चालाकी उजागर होती है, जहा नैतिकता जैसे शब्द और सोच बेमानी लगते हैं।

. एन. नन्द की भाषा सहज, सरल और प्रवाही है। कहीं-कहीं तो वे जैसे मुहावरे तलाशते हुए ही नहीं, बल्कि गढ़ने से चलते हैं। यथा 'भाव की जगह मतलब', 'जीतनी सुंदरी उतनी अनपढ़', 'बगुले की चोंच बढे तो मछलियों पर विपत्ति', 'पूछने से पहले मदद और माँगने से पहले दान', 'डाकखाने का काम भरोसे का', 'बच्चों की दोस्ती भी बाप के काम आती है' आदि-आदि।

कभी-कभी ऐसा लग सकता है कि नन्द जी कहानी लिखते नहीं, बल्कि सुनाते से चलते हैं, जो कथा लेखन के लिए एक अच्छी बात है।

कुछ संदर्भित खामियों के बावजूद 'विरासत' की अधिकांश कहानियाँ पाठकों को बांधती है और रेखांकित करती है। आज की तमाम-तमाम विसंगतियों, आदमियत के तलाश की छटपटाहट इन कहानियों की विशेषता है। एक सन्दर्भ विशेष से जुड़ने के कारण इन रचनाओं की सार्थकता और भी बढ़ जाती है।
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Posted by

A. N. Nanda
Muzaffarpur
13-07-2010
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