Chase It Hard
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आवार्ड की तलाश में
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जो सत्य है, उसका सुन्दर होना लाजिमी है। वह मंगलमय भी होता है। भाव की पूर्णता के लिए इस हकीकत को हम मुहावरे के रूप में व्यक्त करते हैं, एक साथ, यानी सत्यम-शिवम्-सुन्दरम। चाहे हम किसी कहानी या कविता की औपचारिक समीक्षा करने में जुटे हों या नाटक या सिनेमा से सम्बंधित अपनी-अपनी राय देने में, हमारा ध्येय वही सत्यम-शिवम्-सुन्दरम ही होता है। अगर कोई संगीत, सुनने वाले के सरदर्द का कारण बन जाए, भले पाश्चात्य संगीत लॉबी उसे ग्रैमी आवार्ड से ही क्यों न सम्मानित कर दे, वह शिव यानी मंगल से लैस नहीं होता है। फ़िल्म के बारे में यह नियम और भी शख्त रूप में लागू होती है। किसी गरीब को विष्ठा के गड्ढे में डुबोकर एक देश तथा उसकी निर्धनता के बारे में अफवाह फैलाकर ऑस्कार सम्मान जीता जा सकता है, पर यह न सत्य है, न सुन्दर। यह तो किसी के मंगल के लिए भी उद्दिष्ट नहीं है, बल्कि सरासर अर्धसत्य। किसी फिल्म का बाक्स ऑफिस पर हिट हो जाना क्या उसकी सफलता का एक ही मापदंड हो सकता है? खैर, प्रचार तंत्र में अपार सामर्थ्य होती है; इसके सहारे भद्दी चीज़ भी बाज़ार में उतार कर लोगों में प्रचलित की जा सकती है। इससे क्या?
अब सवाल है कि मैं क्यों इन सैद्धांतिक बातों का ज़िक्र कर रहा हूँ? क्योंकि मैंने हाल ही में आमिर खान की फिल्म 'पिपली लाइव' देखी है। इससे पहले जो फिल्म देखने का मौका मिला था, इत्तिफ़ाक़न वह भी आमिर खान अभिनीत 'थ्री इडियट्स' ही था। अब एक साथ दोनों फिल्मों के बारे में कहना चाहता हूँ। हालांकि मुझे डर है कि जिसके बारे में लोग तारीफ़ का पुल बाँधे जा रहे हैं, इसके बारे में भलाबुरा कहने पर क्या लोग मेरा उपहास नहीं उडाएँगे? फिर भी...
पहले सुन्दरता के बारे में कह दूँ। फिल्म में दर्शकों को संडास, पेशाबदान दिखाना क्या ज़रूरी था? क्या इसके बिना 'थ्री इडियट्स' नहीं बन सकती थी? कपडे पहनने के लिए होते हैं; उसे उतार कर किस प्रकार का फैशन यानी सुन्दरता लाने में यह फिल्म सफल हुई? बात और भी संगीन हो जाती है जब कपड़ों का ऐसा बेढंगा इस्तेमाल करने वाला लड़का होता है। क्या फिल्म के माध्यम से समलिंगी दुराचार को लोगों में फैलाने का मक़सद तो नहीं? बिगत दिनों में जब फिल्मों में औरतों के पहनाबों को लेकर आलोचनाएँ होती थीं, तब फिल्म वाले कहते थे कि ऐसा करना उनकी मज़बूरी है, क्योंकि यह दर्शकों की मांग है। क्या आजकल दर्शकों की मांग यह भी होने लगी कि फिल्म वाले लड़कों के पेंट पहनने नहीं पहनने को लेकर परीक्षण करें? दूसरा उदहारण शब्दों के गलत इस्तेमाल से सम्बंधित है। मैं मानता हूँ कि इससे बेजोड़ हँसी आती है, पर इसके लिए भूल सिर्फ नादानी से होनी चाहिए। पर गलतियाँ ऐसी न हों कि सुनने वालों को उसका बनावटीपन मालूम पड़ जाए। 'थ्री इडियट्स' में एक अहिन्दीभाषी को हिन्दी बोलावा कर हँसी लाने की कोशिश निहायत भद्दी है। इससे तो अहिन्दी भाषी हिन्दी बोलने में और भी डरेंगे। असल बात यह है कि हँसी लाने के लिए जो गलतियाँ की गईं, यह सब नादानी कम बल्कि बोलने वाले की चालाकी ही दर्शाता है। 'धन' को 'स्तन' पढ़ने में विशुद्ध हास्य कहाँ? जो व्यक्ति भरी सभा में इतनी सफाई से हिन्दी पढ़ लेता है, वह क्या इन लफ़्ज़ों के अर्थ को नहीं जानता है? तीसरा उदहारण और भी भयानक है। औरतों की प्रसव वेदना भगवान के द्वारा ब्रह्माण्ड की सृष्टि के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए। इस ईश्वरीय प्रक्रिया की गरिमा को महत्वहीन बनाने में सुन्दरता नहीं। क्या एक असहाय पूर्णगर्भा महिला को वेक्यूम क्लीनर की सहायता से ज़बरदस्ती प्रसव करवाना भयानक नहीं? चौथा उदाहरण के तौर पर में जिसका ज़िक्र करने जा रहा हूँ, वह न केवल भद्दी है, बल्कि सरासर अशालीन है। क्या दोस्ती में एक दोस्त को दूसरे की माँ के बारे में उल्टा-सीधा कहने का हक मिल जाता है? वैश्वीकरण तथा उदारीकरण के चलते ये सब क्या आजकल मान्य होने लगा है? या उस फिल्म ने बच्चों को मॉडर्न होने का पाठ पढ़ाने का बीड़ा उठाया है? ऐसे कई उदहारण, सुन्दरता से कोसों दूर।
क्या 'पिपली लाइव' ने उस सुन्दरता को हासिल कर पाया है? इसमें भी वही बात, कुछ हद तक असंस्कृत, पर बोलने वालों से ऐसे लफ़्ज़ों की अपेक्षा की जा सकती है। यानी नेचरल डायलॅग। फिर सुन्दरता हासिल करने में अड़चन कहाँ? बात आकर अटक जाती है नज़रिए पर। किसानों का खुदकुशी करना कोई मामूली बात तो नहीं कि उस पर हास्य रस भरा नौटंकी या मसखरेबाजी कर लिया जाए। पूरे फिल्म में कहीं यह कहा नहीं गया कि आखिरकार यह किसान खुदकुशी क्यों करते हैं? मुझे नहीं लगता कहानी लिखने वाले को इसकी जानकारी है। एक जगह तो ऐसा कहा गया कि ॠण माताजी की इलाज के लिए लिया गया था और गिरवी रखी गई ज़मीन ऋण का चुकता न होने पर नीलाम होने वाली थी। और भी एक खेतिहर को बंज़र ज़मीन को कोड़ते हुए देखा गया, जो अपनी ज़मीन खो चूका था। मिटटी लेकर इंट बनाने वाले को बेचता था। उसने भी एक दिन खुदकुशी कर ली। पर क्यों? सच यह है: किसान मरते हैं इसलिए कि खेती में जो लागत बैठती है पैदाबार उतनी नहीं होती। इससे ऋण बढ़ता जाता है, यानी यह है ज़मीनी हकीकत। क्या 'पिपली लाइव' में इसकी भनक है? मसले के विस्तार की बात तो छोडिये। यहाँ स्वांग का विस्तार तो देखिये, कैसे दर्शकों को विष्ठा के रंग के बारे में भी सुनना पड़ता है।
मुझे लगा कि आवार्ड लेने के लिए कुछ आम तरकीबें होती हैं, जिन्हें यहाँ भी अपनाई गई। इसमें एक तो यह है कि फिल्म ऐसे बने जो आवार्ड देने वालों को यानी पाश्चात्य समीक्षाकारों को भाए। अगर ' स्लमडॉग मिलेनियर ' को आस्कर लेने हेतु विष्ठा का इस्तेमाल करना पड़ा, फिर 'पिपली लाइव' क्यों पीछे रहेगा भला? वह तो एक कदम आगे जाकर उसका रंग विश्लेषण करेगा और रंग से मनोवैज्ञानिक तरजुमा। वाह! ऐसा होता जाएगा तो आमिर खान को भी एक दिन 'वो' मिल जाएगा, जिसके लिए वे जी-जान से प्रयासरत हैं। 'लगान' जैसे सर्वोत्तम फिल्म की कद्र कर नहीं पाए तो कुछ भद्दी कहानियों को समझ कर तो आवार्ड दे दें। भगवान के लिए इस गरीब की झोली में कुछ दे दें।
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By
A. N. Nanda
13-10-2010
Samastipur
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Recently the editor of a newly launched magazine वातायन प्रभात asked me for a write-up on the recent film of Amir Khan. I had absolutely no idea what he was going to do with my writing, whether he would publish a full-length review of the film or he was interested in collecting my views on the movie. I attempted a 1000-word article and submitted. Now I came to know that he was going to publish a topic where the views of some more people would also be culled. I don't know what kind of abridgment the editor has applied on my article. I thought I can bring it in the shape of a blog post.
==============================आवार्ड की तलाश में
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जो सत्य है, उसका सुन्दर होना लाजिमी है। वह मंगलमय भी होता है। भाव की पूर्णता के लिए इस हकीकत को हम मुहावरे के रूप में व्यक्त करते हैं, एक साथ, यानी सत्यम-शिवम्-सुन्दरम। चाहे हम किसी कहानी या कविता की औपचारिक समीक्षा करने में जुटे हों या नाटक या सिनेमा से सम्बंधित अपनी-अपनी राय देने में, हमारा ध्येय वही सत्यम-शिवम्-सुन्दरम ही होता है। अगर कोई संगीत, सुनने वाले के सरदर्द का कारण बन जाए, भले पाश्चात्य संगीत लॉबी उसे ग्रैमी आवार्ड से ही क्यों न सम्मानित कर दे, वह शिव यानी मंगल से लैस नहीं होता है। फ़िल्म के बारे में यह नियम और भी शख्त रूप में लागू होती है। किसी गरीब को विष्ठा के गड्ढे में डुबोकर एक देश तथा उसकी निर्धनता के बारे में अफवाह फैलाकर ऑस्कार सम्मान जीता जा सकता है, पर यह न सत्य है, न सुन्दर। यह तो किसी के मंगल के लिए भी उद्दिष्ट नहीं है, बल्कि सरासर अर्धसत्य। किसी फिल्म का बाक्स ऑफिस पर हिट हो जाना क्या उसकी सफलता का एक ही मापदंड हो सकता है? खैर, प्रचार तंत्र में अपार सामर्थ्य होती है; इसके सहारे भद्दी चीज़ भी बाज़ार में उतार कर लोगों में प्रचलित की जा सकती है। इससे क्या?
अब सवाल है कि मैं क्यों इन सैद्धांतिक बातों का ज़िक्र कर रहा हूँ? क्योंकि मैंने हाल ही में आमिर खान की फिल्म 'पिपली लाइव' देखी है। इससे पहले जो फिल्म देखने का मौका मिला था, इत्तिफ़ाक़न वह भी आमिर खान अभिनीत 'थ्री इडियट्स' ही था। अब एक साथ दोनों फिल्मों के बारे में कहना चाहता हूँ। हालांकि मुझे डर है कि जिसके बारे में लोग तारीफ़ का पुल बाँधे जा रहे हैं, इसके बारे में भलाबुरा कहने पर क्या लोग मेरा उपहास नहीं उडाएँगे? फिर भी...
पहले सुन्दरता के बारे में कह दूँ। फिल्म में दर्शकों को संडास, पेशाबदान दिखाना क्या ज़रूरी था? क्या इसके बिना 'थ्री इडियट्स' नहीं बन सकती थी? कपडे पहनने के लिए होते हैं; उसे उतार कर किस प्रकार का फैशन यानी सुन्दरता लाने में यह फिल्म सफल हुई? बात और भी संगीन हो जाती है जब कपड़ों का ऐसा बेढंगा इस्तेमाल करने वाला लड़का होता है। क्या फिल्म के माध्यम से समलिंगी दुराचार को लोगों में फैलाने का मक़सद तो नहीं? बिगत दिनों में जब फिल्मों में औरतों के पहनाबों को लेकर आलोचनाएँ होती थीं, तब फिल्म वाले कहते थे कि ऐसा करना उनकी मज़बूरी है, क्योंकि यह दर्शकों की मांग है। क्या आजकल दर्शकों की मांग यह भी होने लगी कि फिल्म वाले लड़कों के पेंट पहनने नहीं पहनने को लेकर परीक्षण करें? दूसरा उदहारण शब्दों के गलत इस्तेमाल से सम्बंधित है। मैं मानता हूँ कि इससे बेजोड़ हँसी आती है, पर इसके लिए भूल सिर्फ नादानी से होनी चाहिए। पर गलतियाँ ऐसी न हों कि सुनने वालों को उसका बनावटीपन मालूम पड़ जाए। 'थ्री इडियट्स' में एक अहिन्दीभाषी को हिन्दी बोलावा कर हँसी लाने की कोशिश निहायत भद्दी है। इससे तो अहिन्दी भाषी हिन्दी बोलने में और भी डरेंगे। असल बात यह है कि हँसी लाने के लिए जो गलतियाँ की गईं, यह सब नादानी कम बल्कि बोलने वाले की चालाकी ही दर्शाता है। 'धन' को 'स्तन' पढ़ने में विशुद्ध हास्य कहाँ? जो व्यक्ति भरी सभा में इतनी सफाई से हिन्दी पढ़ लेता है, वह क्या इन लफ़्ज़ों के अर्थ को नहीं जानता है? तीसरा उदहारण और भी भयानक है। औरतों की प्रसव वेदना भगवान के द्वारा ब्रह्माण्ड की सृष्टि के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए। इस ईश्वरीय प्रक्रिया की गरिमा को महत्वहीन बनाने में सुन्दरता नहीं। क्या एक असहाय पूर्णगर्भा महिला को वेक्यूम क्लीनर की सहायता से ज़बरदस्ती प्रसव करवाना भयानक नहीं? चौथा उदाहरण के तौर पर में जिसका ज़िक्र करने जा रहा हूँ, वह न केवल भद्दी है, बल्कि सरासर अशालीन है। क्या दोस्ती में एक दोस्त को दूसरे की माँ के बारे में उल्टा-सीधा कहने का हक मिल जाता है? वैश्वीकरण तथा उदारीकरण के चलते ये सब क्या आजकल मान्य होने लगा है? या उस फिल्म ने बच्चों को मॉडर्न होने का पाठ पढ़ाने का बीड़ा उठाया है? ऐसे कई उदहारण, सुन्दरता से कोसों दूर।
क्या 'पिपली लाइव' ने उस सुन्दरता को हासिल कर पाया है? इसमें भी वही बात, कुछ हद तक असंस्कृत, पर बोलने वालों से ऐसे लफ़्ज़ों की अपेक्षा की जा सकती है। यानी नेचरल डायलॅग। फिर सुन्दरता हासिल करने में अड़चन कहाँ? बात आकर अटक जाती है नज़रिए पर। किसानों का खुदकुशी करना कोई मामूली बात तो नहीं कि उस पर हास्य रस भरा नौटंकी या मसखरेबाजी कर लिया जाए। पूरे फिल्म में कहीं यह कहा नहीं गया कि आखिरकार यह किसान खुदकुशी क्यों करते हैं? मुझे नहीं लगता कहानी लिखने वाले को इसकी जानकारी है। एक जगह तो ऐसा कहा गया कि ॠण माताजी की इलाज के लिए लिया गया था और गिरवी रखी गई ज़मीन ऋण का चुकता न होने पर नीलाम होने वाली थी। और भी एक खेतिहर को बंज़र ज़मीन को कोड़ते हुए देखा गया, जो अपनी ज़मीन खो चूका था। मिटटी लेकर इंट बनाने वाले को बेचता था। उसने भी एक दिन खुदकुशी कर ली। पर क्यों? सच यह है: किसान मरते हैं इसलिए कि खेती में जो लागत बैठती है पैदाबार उतनी नहीं होती। इससे ऋण बढ़ता जाता है, यानी यह है ज़मीनी हकीकत। क्या 'पिपली लाइव' में इसकी भनक है? मसले के विस्तार की बात तो छोडिये। यहाँ स्वांग का विस्तार तो देखिये, कैसे दर्शकों को विष्ठा के रंग के बारे में भी सुनना पड़ता है।
मुझे लगा कि आवार्ड लेने के लिए कुछ आम तरकीबें होती हैं, जिन्हें यहाँ भी अपनाई गई। इसमें एक तो यह है कि फिल्म ऐसे बने जो आवार्ड देने वालों को यानी पाश्चात्य समीक्षाकारों को भाए। अगर ' स्लमडॉग मिलेनियर ' को आस्कर लेने हेतु विष्ठा का इस्तेमाल करना पड़ा, फिर 'पिपली लाइव' क्यों पीछे रहेगा भला? वह तो एक कदम आगे जाकर उसका रंग विश्लेषण करेगा और रंग से मनोवैज्ञानिक तरजुमा। वाह! ऐसा होता जाएगा तो आमिर खान को भी एक दिन 'वो' मिल जाएगा, जिसके लिए वे जी-जान से प्रयासरत हैं। 'लगान' जैसे सर्वोत्तम फिल्म की कद्र कर नहीं पाए तो कुछ भद्दी कहानियों को समझ कर तो आवार्ड दे दें। भगवान के लिए इस गरीब की झोली में कुछ दे दें।
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By
A. N. Nanda
13-10-2010
Samastipur
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Labels: Movies
1 Comments:
great post in hindi, anybody can view and read.
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