My Speech II
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M y S p e e c h . . .
A. N. Nanda
Patna
24-12-2009
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Today I was awarded "Kamleshwari Sahitya Samman - 2009", by Jan Sahitya Parishad, Fatuha, Patna for my maiden work in Hindi, a short story collection entitled "Virasat". The citation speaks in many sweet words about my book and if I'm to translate just its opening paragraph, it should read something like this: "The stories of Shri A. N. Nanda, the eminent story writer in Hindi who hails from Orissa, present a lyrical flow that is full of empathy and warmth depicting the life of the people working in the post office. With an unadorned yet gripping style, the stories have the power to attract and hold the readers". Let me quote from it, "हिंदी के सुप्रतिष्ठित ओड़ियाभाषी कथाकार श्री ए. एन. नन्द की कहानियोंमें डाक जीवन की समग्र संवेदना का ललित कथा प्रवाह है। श्री नन्द के खुरदुरे शिल्प में भाषिक सौष्ठव के बीच कथा प्रवाह का संवेग पाठकों को बाँध रखने की क्षमता रखता है।" Many poets, story writers, critics, lyricists, editors attended the function. From among them at least the name of one invitee I should mention who impressed me the most. He was one Mr Sagar Tripathy from Mumbai who besides heading Prithvi Group of Companies in the city, also composes wonderful poems, ghazals and shayaris. I could take down a few of the couplets and I'm going to quote one such couplet in my blog before I go on to key in my speech. The couplet is:
"इबादत, अर्चना, पूजा, बड़ी मन्नत से आती है,
महत भगवत्कृपा से बेटियां जन्नत से आती हैं । "
================================="इबादत, अर्चना, पूजा, बड़ी मन्नत से आती है,
महत भगवत्कृपा से बेटियां जन्नत से आती हैं । "
M y S p e e c h . . .
श्रद्धेय रामयतन बाबू, जन साहित्य परिषद, फतुहा के तमाम साहित्यप्रेमियो, डॉ शिवनारायण जी, मुंबई से आए हुए मेहमान श्रीमान सागर त्रिपाठी जी तथा गुजरात से आए हुए श्रीमान लक्षमन दुबे जी, समवेत सुधी वृंद, देवियो और सज्जनो....
मेरे लिए यह एक बेहद ख़ुशी का मौका है कि मैं इस भव्य समारोह में शिरकत कर रहा हूँ। सचमुच, आप लोगों ने मुझे प्रोत्साहन देने का निर्णय कर मुझे यह अहसास दिलाया कि साहित्य साधना में साधक को खुद को कभी निसंग समझना नहीं चाहिए; समय पर उसे साथी और दिग्दर्शक ऐसे ही मिल जाते हैं।
किसीने कहा है:
कौन कहता है कि आसमाँ में सुराग नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो, यारो।
मेरी कोशिश का नतीजा आप लोगों के सामने है, बाक़ी मूल्यांकन आप लोगों में हाथ में। मैं तो सिर्फ लेखनी के द्वारा खुद को ढूँढने में लगा था और देख रहा था कि क्या ओडिशा की दाल मगध में पक सकती है? मुझे विश्वास था कि यह संभव है। अगर उस दिन मगध से आए अशोक महाराज को कलिंगवासियों की आवाज़ भाई थी तो आज हो सकता है कि कलिंग से आए एक लेखक की भाषा मगधवासियों को भाए। विचारों का आदान-प्रदान तो सदियों से चला आ रहा है।
आगे चलता हूँ, और भी बातें हैं। हर आफिस कार्यालय होता है, लेकिन पोस्ट ऑफिस घर होता है, यानी डाकघर। जब मुझे मानवीय संपर्कों को लेकर कुछ लिख डालने की प्रेरणा हुई, तो मैंने चुना डाकघर। आखिर डाकघर तो संपर्कों का संस्थान है और उसकी शुरुआत तो प्रेम से ही हुई। कालिदास के "मेघदूत" से लेकर रवीन्द्रनाथ द्वारा रचित "पोस्ट आफिस" तक यही अहसास को चित्रित करते हैं । मैं भी जुट गया "विरासत" की खोज में। इंसान कभी-कभी सोचने लगता है कि अगर मैं कल न रहूँ तो कम से कम एक will तो लिख जाऊं ताकि भविष्य के लिए कुछ बच जाए। आज की बदलती हालात में जब डाकघर कुछ नया तलाशने में लगा है, कायाकल्प करने में जुटा है, ऐसी स्थिति में मैंने भी सोचा कि और देर होने से पहले कुछ लिख डालूँ ताकि भविष्य के लिए इतिहास भी बच जाए। "विरासत" आपके सामने है, मूल्यांकन के लिए।
अब मैं आगे बढ़ता हूँ, कुछ आपबीती बातों को लेकर। ट्रेन में थर्ड क्लास बोगी अब नहीं है लेकिन साहित्यिक दुनिया उसकी परंपरा को भूली नहीं। जब तक मैं प्लेटफार्म पर हूँ और बोगी में घुसने की कोशिश करता हूँ तो अन्दर वालों को कोसता रहता हूँ कि वे लोग मेरे अन्दर जाने का रास्ता रोक रहे हैं। फिर जैसे भी हो मैं अन्दर घुस जाता हूँ। अब मुझे लगता है कि यह मेरी जिम्मेदारी है कि मैं भी बाहर से आने वालों को अन्दर आने से रोकूँ। क्या इस सिलसिला का कोई अंत है?
आज की दुनिया हर क्षेत्र में यह देखती है कि क्या प्रस्तुत किया गया है, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इसे किस तरह प्रस्तुत किया गया है। चाकलेट खाने के लिए कितने आवरणों को निकाल फेंकना पड़ता है--संसार भर में अब कचरों के पहाड़ बन गए हैं। साहित्य तब बच पाएगा जब हमें क्या प्रस्तुत करना है, इस पर ध्यान रहेगा न कि कैसे प्रस्तुत करना है, इसमें ही उलझ जाने पर। "विरासत" पाठकों के नज़र में कतई नहीं आती अगर मैं हिम्मत जुटा कर और खर्च उठा कर तथा प्रकाशकों के ना-ना से न डर कर इसे किताब के रूप में सब के सामने नहीं लाता। "विरासत" तो विरासत है; अपने बलबूते पर आगे निकलने के लिए मैंने इसे छोड़ दिया है--बिल्कुल कैक्टस की तरह। चाहे वह रेगिस्तान में कैक्टस की तरह आगे बढे या बगीचे में गुलाब की तरह। शर्त है कि इसे बिना सहारे के बढ़ते जाना है।
आज आप लोगों की "विरासत" के प्रति आदर देख मुझे लगता है कि इस कैक्टस रुपी "विरासत" को आप लोग गुलाब का रूप देकर ही छोड़ेंगे। धन्यवाद।
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Byमेरे लिए यह एक बेहद ख़ुशी का मौका है कि मैं इस भव्य समारोह में शिरकत कर रहा हूँ। सचमुच, आप लोगों ने मुझे प्रोत्साहन देने का निर्णय कर मुझे यह अहसास दिलाया कि साहित्य साधना में साधक को खुद को कभी निसंग समझना नहीं चाहिए; समय पर उसे साथी और दिग्दर्शक ऐसे ही मिल जाते हैं।
किसीने कहा है:
कौन कहता है कि आसमाँ में सुराग नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो, यारो।
मेरी कोशिश का नतीजा आप लोगों के सामने है, बाक़ी मूल्यांकन आप लोगों में हाथ में। मैं तो सिर्फ लेखनी के द्वारा खुद को ढूँढने में लगा था और देख रहा था कि क्या ओडिशा की दाल मगध में पक सकती है? मुझे विश्वास था कि यह संभव है। अगर उस दिन मगध से आए अशोक महाराज को कलिंगवासियों की आवाज़ भाई थी तो आज हो सकता है कि कलिंग से आए एक लेखक की भाषा मगधवासियों को भाए। विचारों का आदान-प्रदान तो सदियों से चला आ रहा है।
आगे चलता हूँ, और भी बातें हैं। हर आफिस कार्यालय होता है, लेकिन पोस्ट ऑफिस घर होता है, यानी डाकघर। जब मुझे मानवीय संपर्कों को लेकर कुछ लिख डालने की प्रेरणा हुई, तो मैंने चुना डाकघर। आखिर डाकघर तो संपर्कों का संस्थान है और उसकी शुरुआत तो प्रेम से ही हुई। कालिदास के "मेघदूत" से लेकर रवीन्द्रनाथ द्वारा रचित "पोस्ट आफिस" तक यही अहसास को चित्रित करते हैं । मैं भी जुट गया "विरासत" की खोज में। इंसान कभी-कभी सोचने लगता है कि अगर मैं कल न रहूँ तो कम से कम एक will तो लिख जाऊं ताकि भविष्य के लिए कुछ बच जाए। आज की बदलती हालात में जब डाकघर कुछ नया तलाशने में लगा है, कायाकल्प करने में जुटा है, ऐसी स्थिति में मैंने भी सोचा कि और देर होने से पहले कुछ लिख डालूँ ताकि भविष्य के लिए इतिहास भी बच जाए। "विरासत" आपके सामने है, मूल्यांकन के लिए।
अब मैं आगे बढ़ता हूँ, कुछ आपबीती बातों को लेकर। ट्रेन में थर्ड क्लास बोगी अब नहीं है लेकिन साहित्यिक दुनिया उसकी परंपरा को भूली नहीं। जब तक मैं प्लेटफार्म पर हूँ और बोगी में घुसने की कोशिश करता हूँ तो अन्दर वालों को कोसता रहता हूँ कि वे लोग मेरे अन्दर जाने का रास्ता रोक रहे हैं। फिर जैसे भी हो मैं अन्दर घुस जाता हूँ। अब मुझे लगता है कि यह मेरी जिम्मेदारी है कि मैं भी बाहर से आने वालों को अन्दर आने से रोकूँ। क्या इस सिलसिला का कोई अंत है?
आज की दुनिया हर क्षेत्र में यह देखती है कि क्या प्रस्तुत किया गया है, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इसे किस तरह प्रस्तुत किया गया है। चाकलेट खाने के लिए कितने आवरणों को निकाल फेंकना पड़ता है--संसार भर में अब कचरों के पहाड़ बन गए हैं। साहित्य तब बच पाएगा जब हमें क्या प्रस्तुत करना है, इस पर ध्यान रहेगा न कि कैसे प्रस्तुत करना है, इसमें ही उलझ जाने पर। "विरासत" पाठकों के नज़र में कतई नहीं आती अगर मैं हिम्मत जुटा कर और खर्च उठा कर तथा प्रकाशकों के ना-ना से न डर कर इसे किताब के रूप में सब के सामने नहीं लाता। "विरासत" तो विरासत है; अपने बलबूते पर आगे निकलने के लिए मैंने इसे छोड़ दिया है--बिल्कुल कैक्टस की तरह। चाहे वह रेगिस्तान में कैक्टस की तरह आगे बढे या बगीचे में गुलाब की तरह। शर्त है कि इसे बिना सहारे के बढ़ते जाना है।
आज आप लोगों की "विरासत" के प्रति आदर देख मुझे लगता है कि इस कैक्टस रुपी "विरासत" को आप लोग गुलाब का रूप देकर ही छोड़ेंगे। धन्यवाद।
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A. N. Nanda
Patna
24-12-2009
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