The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Thursday, October 29, 2009

Thank You Professor

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Professor Gopabandhu Mishra, Department of Sanskrit, Banaras Hindu University apologizes for his delay in communicating his feedback on my book "Virasat", saying that his daughter took his copy away to her hostel and only when she returned it, he was able to go through it from end to end. But never mind Professor, I take it as kudos from both of you. I've the benefit of receiving feedback from two of my avid readers. Let me reproduce that here in my blog.
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विरासत - एक अथक कहानी

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'क्या उसे मालूम नहीं पोस्ट आफिस लोगों के दिल में बसता है' (पृ। 61)। सचमुच, सारे दिलवाले जिस रथ में सवार हों उस रथ को दिशा देनेवाला सारथी भी कितना बड़ा दरियादिली होगा? 'विरासत' की सारी कथाएँ मन को छू जाती हैं। कुछ तो दिल की गहराई
में उतर कर उस में जगह ले लेती हैं आधुनिकता के प्रभाव से रुक्ष-सा नौजवान कामेश्वर दादाजी की मृत्यु की भावना से जब नरम पड़ता है तो केवल उसी का नहीं, कहानी के पाठक का दिल भी दुःख-सुख के साथी डाकिए के लिए द्रवित होने लगता है (वह अमर रहे) कटहल पेड़ की जड़ में अपने अज्ञान किंतु परिचित अपराध के लिए जुर्माना भरते मनमोहनजी का सहज मूल्यबोध हमारी सोई हुई मूल्य चेतना को झकझोर देता है, डाकमणि की माँ की प्रसूतिवेदना हमें सहानुभूति से ओतप्रोत कर देती है कालीचरण के बेटे की नालायकी जितना कष्ट नहीं देती है, उससे कई गुणा संतोष दे जाता है यह समाचार कि कालीचरण हार्ट सर्जरी के बाद सम्पूर्ण स्वस्थ हो गया इस छोटी-सी कथा में कथाकार ने मुख्य पात्र कालीचरण की मानसिक, आर्थिक एवं पारिवारिक परिस्थिति के साथ पाठक को पूर्णतः एकाकार बनादेने में सफलता प्राप्त की है पीटर का निर्मल डाक वाहक का जीवन उतनी निर्मलता पाने का यत्न कराने के लिए पाठक को प्रेरित करता है अपने अयोग्य पुत्र को अनचाही विरासत सौंपने वाले विवश पिता मगनलाल की अंत: पीडा सभी की पीडा बन जाती है बड़े अधिकारी का अनकहा अप्रकाशित हादशा मन ही मन अहंकारी एवं रुक्ष अधिकारियों के प्रति पाठकों के मन में अश्रद्धा जगाने में सफल रहा है यद्यपि कथाओं मेंगुदगुदाने एवं हँसाने की सामग्री पर्याप्त है तथापि मूलतः कथाओं में संवेदनशीलता अधिक संपूरित है एवं ठीक सेसंप्रेषित हो जा रही है डाकमणि की माँ, मनमोहन जी जैसे आधारभूत पात्र और उनकी भावनाएँ केवल जीती जगती नही हैं, अपि तू निरंतर भावात्मकता एवं संवेदनशीलता को खाते जा रहें समाज को मृतसंजीवनी मंत्र दे रही हैं एवं निरंतर जगाती हैं कथाकार . एन. नन्द की लेखनी ऐसी सारस्वती साधना में निरंतर लगी रहे - यही शुभकामना है
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A. N. Nanda
29-10-2009
Muzaffarpur
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