ब्राह्मण, साहब और तेंदुआ: जहाँ गालियाँ बनीं संस्कृत, और तेंदुआ बना कुत्ता
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Here's the Hindi version of the story you waited to read. I hope the humorous moments from the original story have been conveyed accurately. I invite you to read, enjoy, comment, and share. Happy reading!
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ब्राह्मण, साहब और तेंदुआ:
जहाँ गालियाँ बनीं संस्कृत, और तेंदुआ
बना कुत्ता
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बहुत समय
पहले हमारे गाँव में एक ब्राह्मण रहता था, जो
“विशेष” था—पर वह आदरणीय अर्थ में नहीं, बल्कि एक
अजीब और नकारात्मक अर्थ में।
उन दिनों, एक ब्राह्मण से अपेक्षा की जाती थी कि वह अपने गुरु के चरणों में
बैठकर दस–पंद्रह साल तक संस्कृत सीखे, बेतुकी
सजाओं को सहते हुए, और शब्दशः
शास्त्रों को कंठस्थ करे। मगर हमारे इस “विशेष” ब्राह्मण को ऐसा कोई कष्ट नहीं
उठाना पड़ा। उसने बिना गुरु के क्रोध झेले संस्कृत पर “प्रभुत्व” पा लिया।
असंभव
लगता है?
मुझे भी कभी ऐसा ही लगा था। लेकिन जल्द ही मुझे जवाब मिल गया—उसकी
संस्कृत दरअसल गालियों का अथाह खजाना थी।
सच्चे
पंडितों के लिए गालियाँ देना सख़्त वर्जित था। लेकिन उसके लिए संस्कृत और गाली—एक
ही बात थी। और अपनी “भाषाई शस्त्रशाला” का प्रयोग करने में वह कभी असफल नहीं हुआ।
फिर भी, वह पंडितों की भीड़ में जीना जानता था। जब भी किसी के घर संस्कृतज्ञ
ब्राह्मण भोजन के लिए जाते और शास्त्रोक्त मंत्रोच्चार कर यजमान को आशीर्वाद देते, तो यह ब्राह्मण सीधा चेहरा बनाए केवल होंठ हिलाकर उनकी नकल करता और बच
निकलता।
कभी–कभी, जब किसी परिवार में श्राद्धपक्ष चल रहा होता और इसलिए वे स्वयं मंदिर
में पूजा नहीं कर सकते थे, तो उनकी जगह यह
ब्राह्मण बुलाया जाता। लेकिन वहाँ उसने अपनी गाली-भाषा का प्रयोग करने की हिम्मत
नहीं की। हाँ, थोड़ी बहुत जुगाड़बाज़ी ज़रूर, मगर देवताओं का अपमान कभी नहीं।
फिर भी, लोग उससे डरते थे। वेद–पुराणों की विद्वता के लिए नहीं, बल्कि उसकी गालियों की बेमिसाल पकड़ के लिए। उसकी मौजूदगी ही भीड़ को
खामोश करने के लिए काफ़ी थी, क्योंकि कोई भी
उसके संस्कृत रूपी हथियार का शिकार नहीं होना चाहता था।
स्वच्छता
भी उसके गुणों में नहीं थी। उसका जनेऊ, जो
सामान्यतः उज्ज्वल और श्वेत होना चाहिए था, ढीला
लटकता,
मैला और काला हो चुका था—मानो धूप से झुलसी उसकी देह के रंग में घुल
गया हो। उसकी धोती भी उसी कहानी की गवाही देती थी। कोई दस–बारह साल पहले मिली थी, अब किनारों से उधड़ी हुई, फटकर
चिथड़ों में बदलने की कगार पर।
अन्य
ब्राह्मणों को पूजा–अर्चना के अवसरों पर, यजमानों
से नई धोती मिल जाती थी। पर हमारा “छाया संस्कृत” विद्वान कभी स्वतंत्र रूप से
अनुष्ठान कराने योग्य नहीं समझा गया। इसलिए उसे धोती पाने का अवसर ही नहीं मिलता।
वह वर्षों से उसी पुरानी धोती में गुज़ारा कर रहा था—नियति की टाँकों से जोड़ी और
मजबूरी की सिलाई में पहनी जाती रही।
विवाह भी
उसके लिए दुर्भाग्य साबित हुआ। वह अविवाहित किसी आध्यात्मिक संकल्प या ब्रह्मचर्य
व्रत के कारण नहीं था, बल्कि इसलिए कि
कोई परिवार अपनी बेटी ऐसे वर को नहीं देना चाहता था, जिसके पास
“शुद्ध” संस्कृत का ज्ञान न हो। उस पवित्र योग्यता के बिना वह कभी योग्य वर नहीं
माना गया।
इसलिए, वह अकेला ही जीता रहा। अपनी एक एकड़ की ज़मीन से किसी तरह जीवन काटता।
ब्राह्मण होने के कारण हल चलाना धर्म–विरुद्ध माना जाता था, सो वह यह काम दूसरों पर छोड़ता। बाकी सारे काम वह ख़ुद करता। रोज़ धूप
में झुलसता, दिन–दिन भर खेत में पसीना बहाता।
धीरे–धीरे उसका शरीर श्रम की लकीरों से भर गया। उसकी देह और अधिक काली, उसका ढाँचा और दुबला होता गया—यहाँ तक कि वह पुजारी से ज़्यादा किसान
लगता था।
उसके बारे
में और भी बहुत-सी बातें हैं, मगर एक घटना ऐसी
थी जब उसका “विशेष” हुनर बिल्कुल काम आया।
एक गर्म
दोपहर,
एक तेंदुआ गाँव में भटक आया और उसे उसका घर आराम की शरणगाह लगा। भीतर, मिट्टी के बर्तनों के पीछे एक अंधेरा कोना था। कालिख से काले हो चुके
घड़ों से रगड़ खाकर तेंदुए की सुनहरी खाल पर धूसर धब्बे पड़ गए। वह शाही जानवर अब
जंगल का राजा कम और एक मैले–कुचैले कुत्ते जैसा ज़्यादा लग रहा था।
उसी घड़ी, ब्राह्मण खेत से लौटा। भूख और प्यास से व्याकुल, केवल मट्ठा–भात की कामना लिए। वह उस अँधेरे कमरे में घुसा जहाँ बर्तन
रखा था। तभी, तेंदुआ धीरे–धीरे बाहर निकला, आदमी से बेपरवाह, थके कुत्ते की चाल
से।
क्षण भर
को ब्राह्मण पहचान नहीं पाया। उसने सोचा पड़ोसी का काला कुत्ता भीतर आ गया है। और
यह छोटी बात नहीं थी—कुत्ता अगर भात–पानी के घड़े वाले कमरे में घुस जाए, तो गाँव की प्रथा के अनुसार घड़ा अशुद्ध मानकर फेंकना पड़ता।
आधा भूखा
वह आदमी ग़ुस्से से भर गया। अपनी भूख भूलकर वह कुत्ते समझे जानवर के पीछे दौड़ा, चिल्लाता, हाथ लहराता। जब
क़रीब पहुँचा, तभी असलियत सामने आई—वह कुत्ता नहीं, बल्कि कालिख से सना हुआ पूरा का पूरा तेंदुआ था, जिसे लड़ाई से ज़्यादा नहाने की ज़रूरत थी।
ख़बर जंगल
की आग की तरह फैली और ज़िला कलेक्टर के कानों तक पहुँची। वह अंग्रेज़ कलेक्टर
शिकार का शौक़ीन था—ख़ासकर बाघों का। तेंदुआ भी उसके लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं।
उसने बिना देर किए गाँव की ओर दौरा तय कर लिया।
दोपहर तक
कलेक्टर और उसका लाव–लश्कर गाँव पहुँच गया। उन्होंने हर जगह तलाश की, मगर शाम तक तेंदुए का कोई अता-पता नहीं मिला। सूरज ढलने ही वाला था कि
अधीर साहब ने कहा—“कम से कम उस गवाह को तो लाओ, जिसने
तेंदुए को देखा है।”
और बुलाया
गया किसे?
हमारे छाया संस्कृत विद्वान को! पूरे गाँव में और किसी को नहीं, सिर्फ़ उसी को। यह कम बात नहीं थी।
वह
जैसे–तैसे सज–धज कर आया—वही पुरानी फटी धोती, ऊपर का
बदन नंगा,
बस मैला जनेऊ लटकता हुआ। उसे देखकर कलेक्टर अपनी हँसी रोक न सका।
ठहाकों पर ठहाके मारता रहा, इतना कि दस मिनट
तक सँभल ही न सका। अंततः उसने हँसी का कारण बताया—दरअसल ब्राह्मण की दयनीय
शक्ल–सूरत ही उसके लिए मनोरंजन बन गई थी।
फिर उसने
सवाल रखा—क्या उसने सचमुच तेंदुए को देखा था? शपथ लेकर
कहे।
अब तक
हमारा संस्कृत–गाली विद्वान क्रोध से लाल हो चुका था। वह अपनी ताक़त जानता था, अपनी भाषा जानता था, और पलटवार का
वक़्त भी पहचानता था। साहब ने उसके चिथड़ों पर हँसी उड़ाई थी। जवाब भी चुभता हुआ
होना था।
अचानक
उसने धोती उतार फेंकी, अपने गुप्तांग को
हाथ में पकड़कर गरजा:
“जिस अंग को मैं पकड़ रहा हूँ—जो स्वयं भगवान शिव का जीवित अवतार
है—उसकी सौगंध खाकर कहता हूँ कि मैंने तेंदुआ देखा है। तुम शिव में विश्वास करते
हो?
तुम पाश्चात्य लोग धर्म नहीं जानते। आओ, इस अंग को
छुओ और पुण्य कमाओ!”
साहब का
चेहरा सुर्ख़ हो गया। उसके सब्र का बाँध टूट गया। उसने एक पल भी और ठहरना गवारा
नहीं किया, घोड़े पर सवार हुआ और गाँव छोड़ दिया।
किस्मत से, हमारे ब्राह्मण पर कोई कानूनी गाज़ नहीं गिरी। पुलिस नहीं आई, कोई दंड नहीं मिला—हालाँकि उसने एक सम्मानित अंग्रेज़ अफ़सर के सामने
अपनी नग्नता दिखाई थी। शायद भीतर से कलेक्टर ने अपनी भूल समझ ली थी: उसने एक ग़रीब
की इज़्ज़त का मज़ाक उड़ाया था। और ग़रीब से ग़रीब प्रजा में भी अपनी अडिग
आत्मसम्मान की लौ जलती रहती है।
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By
अनन्त नारायण नन्द
भुवनेश्वर
31-08-2025
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Labels: Hindi stories, Humour, short story
2 Comments:
बहुत सुंदर सर
कहानी आपको अच्छी लगी, यह सुनकर संतुष्टि हुई। ब्लॉग में समय-समय पर आकर पुरानी कहानियां पढ़ सकते हैं। सब 2006 से लेख यहां मिल जाएंगे।
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