The Unadorned

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Saturday, August 09, 2025

हल्लीबोल! हुल्लीबोल!

 



हल्लीबोल! हुल्लीबोल!

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यह वह कहानी है, जिसे मैंने बहुत, बहुत पहले सुना था — और जो बरसों तक आकार लेने की प्रतीक्षा करती रही। यह न केवल आधी सदी पहले गाँव के लोगों की गहरी गरीबी का चित्र खींचती है, बल्कि एक ऐसे प्रसंग को भी संजोए है जिसमें हँसी के पीछे कहीं एक दुख छिपा है।

आनंदपूर्वक पढ़िए।

ओ हाँ, दो दिन पहले इसकी अंग्रेज़ी संस्करण भी मैंने साझा किया था।

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पचास साल बीत गए, लेकिन उस दिन की खुशबू अब भी मेरी यादों में तैरती है — जैसे किसी भूले-बिसरे चूल्हे से उठता धुआँ।

एक सुबह, हमारे गाँव में एक बुनकर का परिवार आ पहुँचा — पिता, लकड़ी के करघे का बोझ झुकाए; माँ, कपड़ों की एक पोटली संभाले; और दो बच्चे, जैसे ढीले धागे, पीछे-पीछे उछलते-कूदते। वे अपना पुराना घर क्यों छोड़ आए, यह मैंने कभी नहीं जाना। पर मैंने अनुमान लगाया — जब ज़मीन न हो, और आपका धंधा धागे, रंग, और कपड़े को फिनिश करने के लिए तीखी गंध वाले रसायनों पर निर्भर हो, तो एक खराब मौसम ही आपको सड़क पर ला सकता है।

हमारे गाँव में तब कोई पक्का मकान नहीं था। हम मिट्टी की दीवारों के पीछे और पुआल की छतों के नीचे रहते थे, चौड़े-खुले वरांडे जिनसे दुनिया में साँस आती-जाती थी। बुनकर का परिवार भी एक ऐसे ही वरांडे के नीचे ठिकाना बना बैठा, उनका चूल्हा खुले आसमान के तले। उनका खाना उतनी ही आसानी से देखा जा सकता था, जितनी आसानी से चाँद — उबला चावल, जंगली हरी पत्तियाँ, चुटकी भर नमक, थोड़ी-सी मिर्च और इमली की एक बूँद।

फिर आया बकरे का दिन — गाँव में दावत का मौका। उन दिनों माँस तराजू पर तौलकर कागज़ में नहीं बिकता था। वह ताड़-पत्ते की पुड़िया में आता था — हर भुगतान करने वाले परिवार को एक पुड़िया। जब सब ले चुके, तो थोड़ा-बहुत बच गया। किसी ने बुनकर के परिवार को याद किया और उन्हें एक पुड़िया मुफ़्त दे दी।

उसमें ज़्यादातर आँत थी — लिपटी हुई, फिसलन भरी, चमचमाती — जिस पर माँस का नाममात्र अंश चिपका था। लेकिन जैसे ही उन्होंने उसे हाँडी में डाला, जादू शुरू हो गया। पानी सिसकने लगा, भाप ऊपर की ओर मुड़ती चली गई, और माँस की हल्की-सी खुशबू हवा में ऐसे फैल गई जैसे कोई त्यौहार शुरू हो गया हो।

तभी बच्चे शुरू हो गए। नंगे पाँव, धूल में कूदते-घूमते, अपनी ही ताल पर ताली बजाते, उन्होंने एक नई कविता गा डाली —

हल्लीबोल! हुल्लीबोल!

क्या खुशबू है, वाह!

हल्लीबोल! हुल्लीबोल! हल्लीबोल!

भगवान भी जानें स्वाद, सिर्फ गंध से वाह!

उन्हें यह पता नहीं था कि जो वे गा रहे हैं, वह असल में भगवान का नाम है — हरी बोल यानी भगवान का नाम जपो। वे बार-बार गाते रहे, जैसे किसी आदिवासी शादी में गाँव का ढोल बज रहा हो, हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। उनके लिए वह एक शाही दावत थी।

मैं भी हँसा — भला कैसे न हँसता? उनकी खुशी रोशनी की तरह निर्मल थी। लेकिन भीतर कहीं एक गाँठ-सी बन गई। मन ने चाहा, काश उनका गीत किसी बड़े भोज, किसी बड़े संसार के बारे में होता — न कि उन बचे-खुचे आँत के टुकड़ों के बारे में, जिनमें बस उम्मीद की खुशबू थी।

फिर भी, वह स्वर आज भी मेरे भीतर गूंजता है, पचास साल बाद भी —
हल्लीबोल! हुल्लीबोल!भूख की वह धुन, जिसे खुशी का पहनावा पहना दिया गया था।

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By

अनंत नारायण नंद

भुवनेश्वर, 09/08/2025 

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