The Unadorned

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Saturday, August 23, 2025

ख़ज़ाने की गठरी

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यह उसी कहानी का हिन्दी रूप है जिसे मैंने दो-तीन दिन पहले डाला था। सोचा, आपमें से कुछ लोग इसे हिंदी में भी पढ़ना पसंद करेंगे, तो यह कोशिश की है। आपको शुभ सप्ताहांत और आनंददायक पठन की शुभकामनाएँ।

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ख़ज़ाने की गठरी

मैं इसे लोककथा कहता हूँ, कोई अनुभव-कथा या प्रसंग नहीं। क्यों? क्योंकि यह मैंने पहली बार पचास साल पहले सुना था, उन बुज़ुर्गों से जो तब पहले ही पचास की उम्र पार कर चुके थे। इसका मतलब यह घटना कम से कम सौ साल पुरानी रही होगी। जब मैंने इसे सुना, मैं अभी किशोर भी नहीं था। और हर लोककथा की तरह, यह भी बार-बार सुनाए जाने पर और समृद्ध हो गई—एक सामान्य प्रसंग से कहीं अधिक मनोरंजक, व्यंग्यपूर्ण और यादगार।

उन दिनों दहेज का वह रूप नहीं था, जैसा आज हम जानते हैं—जहाँ दूल्हे का लालची पिता, दुल्हन के परेशान पिता के सामने अपनी बेहिसाब माँगें रखता है और बेचारा किसी तरह उन्हें पूरा करने की कोशिश करता है, ताकि बेटी का दाम्पत्य सुखमय हो सके। उस समय रीति बिलकुल उलटी थी: दुल्हन का पिता दूल्हे से कन्यादान के एवज़ में “कन्या-मूल्य” प्राप्त करता था। इस वजह से विवाह युवा पुरुषों के लिए बड़ा महँगा सौदा था, और बहुत से लोग जीवनभर अविवाहित रह जाते थे क्योंकि वे इतनी बड़ी रकम जुटा नहीं पाते थे।

इस कथा में, एक अनाथ युवक ने, अपने गाँव के मुखिया की मदद से, चार सौ रुपये की भारी-भरकम कीमत पर अपने लिए दुल्हन ढूँढ़ निकाली। सोचिए ज़रा—आज से सौ बरस पहले चार सौ रुपये में या तो दो एकड़ ज़मीन खरीदी जा सकती थी या बीस गायें!

बातचीत पूरे छह महीने तक चली—दशहरे के बाद शुरू हुई और होली पर जाकर पूरी हुई। दुल्हन का पिता एक पैसे भी कम करने को तैयार न हुआ, और अंततः वही जीता।

शादी के दिन दूल्हा पालकी में सवार होकर दुल्हन के गाँव पहुँचा। पालकी चार लोगों के कंधों पर थी। उसके साथ गाँव का मुखिया और बीस आदमी बाराती बने हुए थे। न कोई नाच-गाना, न बैंड-बाजा। उन दिनों औरतें बारात में शामिल नहीं होती थीं; वे घर पर रहकर शंख बजातीं, चावल की वर्षा कर आशीर्वाद देतीं, और शंख-घंटी की ताल पर हुलहुली (उलुलेशन) करतीं—वह जीभ से तालु पर बजाई जाने वाली गूँजती ध्वनि, जिसे पूर्वी भारत में शुभ माना जाता है। और हाँ—गपशप भी करतीं, कभी दूल्हे की तारीफ़, तो कभी उसकी खिंचाई। लेकिन इस मामले में दूल्हा सबकी नज़रों में सम्मानित था—क्योंकि कोई साधारण आदमी चार सौ रुपये की रकम जुटा ही नहीं सकता था।

विवाह की सबसे महत्वपूर्ण रस्म वह थी, जब दूल्हे की हथेली दुल्हन की हथेली पर रखी जाती थी और दोनों हाथ नारियल से सुशोभित कलश पर टिकाए जाते थे। ठीक उसी क्षण गाँठ बाँधने से पहले, दुल्हन के पिता ने पैसे देखने की माँग की। दूल्हे के लोगों ने एक टिन का बक्सा पेश किया और गंभीरता से कहा कि उसमें पूरे चार सौ रुपये रखे हैं। लेकिन विपत्ति आ गई: वे उस बक्से की चाबी अपने गाँव में ही भूल आए थे!

ज्योतिषी ने चेतावनी दी कि यदि शुभ मुहूर्त निकल गया, तो कन्या का भाग्य शापित हो जाएगा—वह जीवनभर विधवा ही रहेगी। समय पर चाबी मँगाना असंभव था। गाँव की पगडंडी इतनी ऊँच-नीच और लहरदार थी कि कोई भी अनाड़ी साइकिल सवार कई बार धड़ाम से गिर पड़ता। यही कारण था कि जब कभी कोई साइकिल गाँव तक आती, तो लोग उसे चलाते नहीं, बल्कि हाथ से पकड़कर खींचते हुए पैदल चलते। वैसे भी, गाँव में साइकिल थी ही नहीं, इसलिए बक्से की चाबी तुरंत लाना तो नामुमकिन ही था।

दुल्हन का पिता, अपनी बेटी का भाग्य बिगड़ते देख, जोखिम लेने को तैयार नहीं था। उसने घोषणा कर दी कि यह विवाह अब नहीं होगा—और खुलकर पूछा कि यदि कोई और योग्य पुरुष है तो वह उसकी बेटी का हाथ थाम ले। लेकिन कोई सामने आने की हिम्मत न जुटा सका, क्योंकि सब दूल्हे के गाँव के मुखिया से डरते थे। बस एक ढीठ आदमी ने हिम्मत दिखाई। उसने प्रस्ताव रखा कि वह दुल्हन को अपनी तीसरी पत्नी बनाएगा, और इसके लिए पाँच सौ रुपये देने को तैयार है—यानी तयशुदा रकम से सौ रुपये ज़्यादा! लेकिन उसे ज़ोर-ज़ोर से हूट कर भगा दिया गया, क्योंकि दुल्हन उसकी पोती की उम्र की थी।

तब एक समझौते का रास्ता निकाला गया। दुल्हन के पिता को केवल यह भरोसा चाहिए था कि बक्से में सचमुच पैसे हैं। इसलिए बक्से को उठाकर हिलाया गया। उसमें से झंकार की आवाज़ आई—ठक-ठक, छन-छन। सबको यक़ीन हो गया कि उसमें सिक्के हैं। दुल्हन का पिता मान गया। विवाह की रस्में पूरी हुईं, गठबंधन की गाँठ बंधी, और दुल्हन ससुराल विदा कर दी गई।

लेकिन बाद में, जब चाबी पहुँची और बक्सा खोला गया, तो सच्चाई सामने आई। अंदर ढेरों लोहे के टुकड़े और मिट्टी के बर्तनों के टूटे हुए खंड भरे थे। सबसे नीचे केवल पाँच रुपये पड़े हुए थे।

यही था चार सौ रुपये का ब्याह—शान-ओ-शौकत से शुरू होकर खोखली गूँज पर ढह गया।

उपसंहार

रीतियाँ बदलती रहती हैं। कभी कन्या-मूल्य लिया जाता था, बाद में उसकी जगह दहेज ने ले ली। और अब सुनने में आता है कि कहीं-कहीं कुछ लड़कियाँ शादी सिर्फ़ इसलिए करती हैं कि जल्दी तलाक़ लेकर गुज़ारे-भत्ते (अलिमनी) के एवज़ में मोटी रकम वसूल सकें। कौन जाने—क्या यह भी एक दिन परंपरा बन जाए? शायद हाँ, शायद नहीं। पर एक बात तय है: समाज के गणित में रीतियाँ बदलती हैं, आदतें बदलती हैं, और परिवर्तन ही शाश्वत नियति है।

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By

अनन्त नारायण नन्द 

24-08-2025 

भुवनेश्वर 

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1 Comments:

Anonymous Anonymous said...

वैवाहिक समारोह की बहुत सामयिक विश्लेषण युक्त जानकारी सर

6:23 PM  

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