Virasat: A Review
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The hundred-eighth issue of the quarterly house magazine of CAG, New Delhi, April-June, 2014, "लेखपरीक्षा-प्रकाश" carried a review of my short-story collections "विरासत", a book published way back in 2008. It's heartening to know that Virasat is able to attract readers' appreciation even though six years have passed in the meanwhile. Thank you Mr Gupta. I can see that you have attempted the review of the book after going through all its stories including its preface. Reviewers these days do the selective reading of the book they review and end up producing shallow contents, but you have done justice to the work you have taken up.
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दास्तान डाक विरासत की
मदन लाल गुप्ता
कार्यालय महालेखाकार, हिमाचल प्रदेश,
शिमला – 3
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एक अहिन्दी भाषी लेखक द्वारा हिंदी कहानी में पैठ
बनाना धारा के विरुद्ध तैरने का सामान है । हिंदी के अलावा किसी भी भारतीय भाषा
में किसी भी विधा में लेखन एक सामान्य बात है । भारतीय भाषाओँ में अनेक लेखक अपनी
भाषाओँ में साहित्य सृजन कर रहे हैं । किन्तु जब एक अहिन्दी भाषी साहित्य रचता है
और वह भी हिंदी में तो मामला सुरुचिपूर्ण हो जाता है । इसे एक ओर तो साधारण सोच के
मुताबिक हिंदी के प्रति प्रेम के रूप में लिया जा सकता है किन्तु इससे आगे सोचने
पर यह हिंदी और हिंदी साहित्य के प्रति समर्पण की बात प्रतीत होती है ।
ए. एन. नन्द का हिंदी में कथा संग्रह “विरासत” कई
दृष्टिओं से सोचने पर मजबूर करता है । रचनाकार ने तमाम बाधाओं और कठिनाईयों के
बावजूद हिंदी में कहानियाँ लिखीं । इस कठिन सफ़र का उल्लेख प्राक्कथन में मिलता है ।
लेखक हिंदी में लिखने का सफ़र तैर कर पूरा किया है । हिंदी में लिखने की प्रेरणा व
प्रोत्साहन के सफ़र में कुछ ने इन्हें सीधा पुरस्कार पाने का सपना दिखा दिया ।
हिंदी व कहानी सुधारने के प्रयास में जब लोग अपनी दक्षता का पूरा उपयोग करने लगे
तो कहानीकार को आपत्ति होना स्वाभाविक था । ऐसे में ‘अहिन्दी भाषी हिंदी लिखने को
बेताब’ जैसा दर्जा भी इन्हें मिलाने लगा । बावजूद इस सब के एक अहिन्दी भाषी कथाकार
ने हिंदी कहानी में अपना स्थान बनाया, यह स्वागत योग्य है ।
संग्रह की अधिकांश कहानियाँ डाकतार विभाग, डाकघर,
डाकिया, डाकघर के कर्मचारी, लैटर बॉक्स के इर्द-गिर्द घूमती है । ‘बुखार’ कहानी का
डाकिया पीटर हो, डाकघर के गेस्ट हाउस का ‘कमरा नं 3’ हो, डाकघर में कंप्यूटर आगमन
में ‘तीसरा कम्प्यूटर’ हो या सिगरेट की लत छुड़ाने ने के लिए ‘रामजी का रजिस्टर’ हो
सब कहानियों में डाकघर और उसका समूचा परिवेश छाया हुआ है । डाकिया पीटर बुखार से
पीड़ित होते हुए भी डाक के थैले ले जाने के लिए समुद्र के पानी में गिरने पर भी
थैलों को बचाता है । डाकघर में अपना खोया हुआ पर्स, जिसमे संकटमोचन तावीज़ था,
प्राप्त करना ‘संकटमोचन तावीज़’ कहानी में दो दोस्तों की दास्तान के बहाने बखाना
गया है तो ‘दोस्त का नाम मुचकंद’ कहानी में डाकघर में डकैती का वर्णन है जिसमे
लोहे के पिंजरे में घुस कर डकैत सारे नोट एक थैले में भर कर ले जाते हैं । अंत में
डाकू आसानी से पकडे जाते हैं ।
‘कबूतरों के साथ’ कहानी में एक कबूतरबाज़ की
दास्तान है । रामखिलावन ब्राह्मण होकर भी दफ्तर की भवन में कबूतरों को मार कर खा
जाता है । दफ्तर का एक साथी प्रभुदयाल उसे डराता है कि यह कबूतर जो उसने मारा है,
पिछले जन्म में छंटाई सहायक था जिसने मरते दम तक चिट्ठियों का साथ नहीं छोड़ा । संयोग
से रामखिलावन बीमार हो गया और उसे पेट का कैंसर हो गया । मरने से पहले एक बार उसने
दफ्तर जाने की सोची । जब वह दफ्तर आया तो सभी कर्मचारी रात की डियूटी पर तैनात थे ।
अंत में रामखिलावन कबूतरों के पास गया तो कोई भी कबूतर उससे नहीं डरा ।
‘बादशाह’ एक व्यंग्य रचना है जिसमें मंत्री के घर के सामने गड़े लेटर बॉक्स में कोई आग लगा देता है । यह मामला तूल पकड़ लेता है और उग्रवाद से लेकर विदेशी हाथ होने तक अंदेशा किया जाता है । पुलिस कमिश्नर की वैठक के बाद और खोजी कुत्तों की सहायता से तहकीकात आरम्भ होती है । बदमाशों की लिस्ट निकालकर खोज की गई किन्तु सब बेकार । अंत में एक पागल, जिसे बादशाह कहते थे इस जुर्म में जेल में डाल दिया गया जिसे कुछ वर्ष बाद कोर्ट ने बरी भी कर दिया । ‘इंसाफ के लिए’ भी ऐसी ही व्यंग्य रचना है जिसमें वकील मित्रभानु डाक कर्मचारी से उलझने के सम्बन्ध में बदला लेने के लिए एक बीस साल पुराने कार्ड को लेटर बॉक्स में डाल देते हैं जो ताज़ा मुहर लगाकर उन्हें वितरित फिर से हो जाता है । बस वकील उस कार्ड को लेकर अखबारों में खबर देने के साथ पचास हज़ार हर्जाने के लिए उपभोक्ता फोरम में भी शिकायत डाल देता है । कोर्ट से जुर्माने भरने के बदले डाकघर की कुरसी मेज तक नीलाम हो जाते हैं ।
ए. एन. नन्द की कहानियों में डाक है, डाक छंटाई
करने वाला है, डाक वांटने वाला डाकिया है, जादुई लेटर बॉक्स है, लेटर बॉक्स जलाने
वाले हैं, डाकघर में जमा पूंजी है तो उस पर डकैती डालने वाले भी हैं; डाक और तार
जैसे एक से विभागों में बढ़ती दूरियाँ भी हैं ।
डाक तार विभाग कभी एक होते हुए उनकी साथ लगी
कॉलोनियों में एक दीवार खड़ी कर दी गई जिसे डाक के कर्मचारियों ने पुलिस के
हस्तक्षेप से पहले तुड़वा डाला । आधी टूटी दीवार अब बच्चों के आँखमिचौनी खेलने के लिए जगह
बन गई । अपना सेवाकाल पूरा करते हुए पैंतीस साल के तजुर्बे के बाद अंत में अपने ही
इलाके में चीफ पोस्टमास्टर जनरल बन कर आना बहुत सुखद था भारतेंदु के लिए कि अपने
क्षेत्र के लिए कुछ काम कर पाएँगे । किन्तु घर का हाल यह था कि अब तक अपने रहने के
लिए मकान तक नहीं बनवा पाए थे । मकान बनवाने के तरीके तो माह्तहत (?) लोग सुझा रहे
थे, मगर उनके पास अभी ज़मीन ही नहीं थी । आखिर डाक लाने और ले जाने वाले एक शख्स
रूंगटा बिना कमिशन लिए ज़मीन दिलाने का वादा किया । रूंगटा ने अग्रिम ले लिया, रिटायरर्मेंट
तक ज़मीन नहीं ढूँढ पाया । आखिर उन्हें अपनी पैतृक ज़मीन में ही घर बनाना पड़ा ।
‘जुर्माना’ कहानी में डाक निरीक्षक मनमोहन का
तबादला ऐसी जगह होता है जहाँ सरकारी आवास के पीछे कटहल का पेड़ था । उस पेड़ में चार
कटहल लगे । पिछले साल सरकार को कटहल बेच कर इस मद में एक ही रुपया मिला था । इस
साल वे ज्यादा से ज्यादा पैसे उगाह कर सरकार को देना चाहते थे । एक बार मनमोहन के
बाहर गश्त पर जाने के समय नित्यानंद अर्दली ने एक कटहल तोड़ लिया और मनमोहन की
पत्नी ने मजे से पांच-पांच सब्जियाँ बना कर खाई । मनमोहन जब वापिस लौटे तो उन्हें
बहुत दुःख हुआ और पेड़ के पास गड्ढा खोद कर उसमे एक रूपया कटहल का और चवन्नी
जुर्माने के दबा दिए । ‘विरासत’ कहानी का मेधावी मगनलाल मेट्रिक में तिरानवे
प्रतिशत अंक लेकर पास हुआ किन्तु पिता ने उसे डाक विभाग में डाक सहायक लगवा दिया ।
उसके साथी अच्छी-अच्छी नौकरियों में लगे । दिन भर नौकरी करने के कारण वह विभागीय परीक्षाएँ
भी नहीं दे पाया और तीन बार असफल हो गया । उसके दो बच्चे भी मैट्रिक में फेल हो गए
। इन नाकामियों से वह अपना मानसिक संतुलन तक खो बैठा । उसने मन बनाया था कि अपने
बेटे को कभी डाक विभाग में नहीं लगवाऊँगा किन्तु अंत में अपने मैट्रिक फेल लडके को
डाक वाहक ही लगवाना पडा ।
संग्रह के तीस कहानियाँ हैं या यूं कहें तीस छोटी
कहानियाँ हैं । ये इतनी छोटी भी नहीं की इन्हें लघु कथा का रूप दिया जाए । किन्तु
छोटी होने से ये अपनी बात सीधे-सीधे पाठकों तक पहुँचाने का काम करती हैं । इन
कहानियों की दूसरी विशेषता डाकघर परम्परा से जुड़ा है । क्योंकि कथाकार इसी विभाग
में कार्यरत है । अतः डाक परम्परा, जिसने हमारे जीवन में एक भावनात्मक भूमिका
निभाई है, आज विलुप्त होने के कगार पर है । प्रत्येक भारतीय, विशेषकर ग्रामवासी
जिस कदर डाक, डाकघर से जुड़ा रहा है, वह अदभुत है । आधुनिक तकनीक, तेजी से बदलती
सूचना प्रौद्योगिकी और बदलते समय के प्रभाववश आज डाकघर और डाक परंपरा एक विरासत
बनती जा रही है । पत्र, जो एक सशक्त माध्यम था संपर्क का, जिसका इंतज़ार लगा रहता
था पल-पल, छिन-छिन, आज इतिहास होता जा रहा है ।
एक ही विषय, एक ही भावभूमि पर लिख पाना एक चुनौती
भरा काम होता है । इसमे एक रसता और नीरसता हो जाने का भय बना रहता है । संग्रह की
लगभग सभी कहानियाँ डाक व डाकघर पर होते हुए भी नीरस नहीं है । इन में विविधता और
सरसता बराबर बनी रहती है ।
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Posted by
A. N. Nanda
Shimla
14-02-2015
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Labels: Book Review, Virasat