The Unadorned

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Monday, September 02, 2013

मुछंदर का कमाल: A Love Story

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A story in Hindi now, now that we are in the fortnight to celebrate the success story of Hindi, the lingua franca of India. It's from my book, "एक साल बाद". I loved writing this and enjoy reading it at suitable intervals. Hope it might interest my blog readers.
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मुछंदर का कमाल


यह क़िस्सा राजा-रजवाड़े के समय का है, जिसे मैंने किसी जानकार शख़्स से सुना था। सही जगह पर सही मोड़ लेते हुए उसने उस कहानी को इस कदर मिर्च-मसाले के साथ प्रस्तुत किया था, मानो वह खुद उस घटना के समय मौजूद रहा हो। सच तो यह है कि उसने इसे किसी से सुना था, फिर विश्वसनीय लगने पर इसे याद कर लिया। समयानुसार, श्रोताओं की पसंद का ख़्याल रखते हुए वह विस्तार से इसमें फेर-बदल भी करता रहता, पर उसने असली चरित्रों के साथ छेड़छाड़ कतई नहीं की। इसे तो कहानी बनाने वाले की पात्र के साथ वफ़ादारी क़रार दिया जाना चाहिए न!
                ख़ैर, मैंने जिससे यह कहानी सुनी थी, वह गुज़र चुका है। अब मुझ पर यह घोर ज़िम्मेदारी है कि इस कहानी को मैं आगे बढ़ाऊँ, पर मुझमें उतनी क़ाबलियत कहाँ कि मैं इसे बेशक दिलचस्प रूप में प्रस्तुत कर सकूँ? अगर मैं अपनी ज़िम्मेदारी से चूक गया या आवाज़ तेज कर इसे श्रोताओं के सामने प्रस्तुत न कर पाया तो यह कहानी आजकल के ध्वनि प्रदूषण में कहीं गुम होकर रह जाएगी। सो, जैसे भी हो, मैं अब इसे लिख डालता हूँ। फिर यह खो जाने के ख़तरे से मुक्त हो जाएगी।
                भले यह कहानी राजा-रजवाड़े के समय की हो, परंतु इसका नायक कोई राजकुमार या चक्रवर्ती सम्राट नहीं है। वह तो एक बावर्ची है, नीलगढ़ राजमहल में खाना बनाने वाला बावर्ची।
                चलो, मैं इसे शुरू से सुनाता हूँ, यानी उसके चयन प्रक्रिया से लेकर। राजपाट करने वाली हस्तियों के लिए पकवान बनाने की बात, सो बावर्ची भी अति उत्तम या सर्वोत्तम दर्जे का होना चाहिए। फिर सर्वोत्तम शब्द का अर्थ भी कुछ अलग था। वह बिल्कुल असली ब्राह्मण होना चाहिए क्योंकि उसके द्वारा बनाए गए ख़ानों को न केवल राजवंश के सदस्य खाने वाले थे, बल्कि नीलगढ़ राजवंश की कुल-देवी को भी उन पकवानों को प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाना था। अगर किसी दूसरे जात का बावर्ची होता, तो उसके द्वारा बनाए गए पकवान खाकर क्या कुल-देवी बीमार न पड़ जातीं? दूसरा मापदंड यह था कि उस ब्राह्मण को, पकवानों को ज़ायक़ेदार बनाने की सारी विधियाँ भी मालूम होनी चाहिए, क्योंकि राजवंश के लोग और कुल-देवी सब के सब मांसाहारी थे। इस पर सवाल मत पूछिए, खाने-पीने के मामले में सबको अपनी-अपनी पसंद की चीज़ चुनने की आज़ादी है, चाहे वह देवी माता हों या इंसान। तीसरी शर्त, यह बावर्ची के पहनावे से संबंधित था। उसको जाँघिया या गंजी पहनने की छूट न थी। इसका कारण यह था कि ये वस्त्र सिले-सिलाए मिलते हैं। स्वर्ग में तो सिलाई मशीन है नहीं, सो वहाँ से आए देवी-देवता भी कैसे उन्हें पहन कर आते? और जिसे देवी-देवता नहीं पहनते हैं, उनके लिए जो खाना बनाएगा, वह कैसे उन वस्त्रों का इस्तेमाल कर सकता? ऐसी और भी कई पाबंदियाँ थीं, पर आख़िर में वह पाबंदी जो इस कहानी से ताल्लुक़ रखती है, उसे मैं बताकर आगे बढ़ता हूँ। वह थी जूते-चप्पल पहनने से संबंधित। चूँकि बावर्ची को रसोई में रहकर खाना बनाना था और राजमहल स्थित कुल-देवी के मंदिर में जाकर प्रसाद चढ़वाने का इंतज़ाम करना था, सो उसे जूते-चप्पल पहनने की अनुमति नहीं थी।
                फिर राज्य में ढिंढोरे पिटवाए गए, "सुनो, सुनो, सुनो, वर्णश्रेष्ठ ब्राह्मण लोग सुनो। बोलने में मेरी गलती हो, फिर भी सुनो, सुनने में गलती हो तो और जानकारों से पूछकर जानो। नीलगढ़ के प्रतापी-देवतुल्य-शत्रुविदारक-महाराजाधिराज श्रीमान महेंद्र मर्दमहान की राज पाकशाला में बावर्ची का एक पद रिक्त है। उस पद को भरने हेतु एक स्वच्छ-सुशील, दक्ष-दुरुस्त ब्राह्मण चाहिए। वहाँ जिसे काम करने की इच्छा हो, वह कल प्रस्थान करे।''
                प्रतापी-देवतुल्य-शत्रुविदारक-महाराजाधिराज श्रीमान महेंद्र मर्दमहान की पाकशाला में काम करने की सारी योग्यताएँ रखने वाला शख़्स आख़िर मिल ही गया। उसका भी नाम था महेंद्र मिश्र। राजा के बावर्ची का नाम राजा के नाम के साथ कैसे बराबरी कर पाता? सो राजा मर्दमहान के आदेशानुसार महेंद्र मिश्र का नाम परिवर्तित कर दिया गया। वह अब "महेंद्र'' से "मुछंदर'' और "मिश्र'' से "सूपकार'' यानी मुछंदर सूपकार बन गया। अचरज करने की कोई बात नहीं, क्योंकि यह पुराने ज़माने का रिवाज़ है। सिर्फ़ कुछ ही साल पहले किसी राष्ट्र के साम्यवादी आलाकमान ने अपने हमशक्ल को क्या मृत्युदंड नहीं दिया था? दोष उसका यही था न, वह कुदरती तौर पर आलाकमान का हमशक्ल होकर इस दुनिया में आया था। अगर यह आजकल के युग में संभव है तो फिर राजा-रजवाड़े के समय में क्यों राजा अपने हमनाम को नामच्युत नहीं करते?
                मर्दमहान की सेवा में कैसे पूर्ण रूप से एक मर्द ही चुना जा सकता था? हर्गिज़ नहीं। वह कार्य श्रीमान मर्दमहान करने ही नहीं देते! सो मुछंदर सूपकार को न मूँछें रखने की इजाज़त थी, न शत प्रतिशत पुरुष की आवाज़ में बातें करने की। सिर्फ़ दूर से उसकी बातें सुनकर कोई भी अनजान आदमी इस भ्रम में आ सकता था कि कहीं नज़दीक में एक औरत चल-प्रचल तो नहीं कर रही है? इस मामले में और एक बात है। शिव भगवान अर्धनारीश्वर हैं, यानी एक मर्द में औरत और एक औरत में मर्द होना महज़ एक कल्पना ही नहीं, बल्कि कुदरती वास्तविकता भी है। क्या आजकल के वैज्ञानिक ऐसी बात नहीं करते हैं? वे लोग अब कहते हैं कि मातृ-गर्भ में जन्म से महीनों पहले तक तय नहीं हो पाता है कि भ्रूण से लड़का होगा या लड़की। जैसे-जैसे जन्म की तारीख़ नज़दीक आती है, या तो उसमें पुरुष प्रधानता या नारी प्रधानता का विकास होता है और अंत में या तो एक बाबू जन्म लेता है या बेबी। ख़ैर, मैं अपनी कहानी को वैज्ञानिकों से दूर रखूँ तो भला ही होगा।
                मुछंदर सूपकार ने कार्य में योगदान करने के पहले दिन से ही राजमहल में कार्यरत कर्मचारियों के लिए बनी आचार-संहिता को आत्मसात कर लिया था।  सुबह कब उठना है, रात में कब सोना है, क्या क्या खाना है, किनको दूर से प्रणाम करना और किनको पास जाकर हुजूर बोलना है, कहाँ किस आवाज़ में बातें करनी हैं, वग़ैरह, वग़ैरह। छुट्टी मिलती थी साल में सिर्फ़ दो दिन, वह भी बहुत गिड़गिड़ाने पर। दिन-रात मिलाकर चार बार नहाना पड़ता था, किसी तालाब में नहीं बल्कि पाकशाला के बग़ल में स्थित एक प्राचीन कुएँ से पानी निकाल कर। नीलगढ़ में कड़ाके की ठंड पड़ती थी और उस हालत में चार-चार बार नहाना! बाप रे बाप, कहानी कहते हुए जाड़े से मेरे भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, मुछंदर बेचारे का क्या हाल होता होगा!
                नियमों को तोड़ने पर दंड का प्रावधान तो था ही, पर ब्राह्मणों के लिए लिखी गई दंड-संहिता राजा मर्दमहान के पुस्तकागार में नहीं थी। वह पुस्तक ताड़ के पत्तों पर लिखी गई होगी और लाइब्रोरियन को शायद यह पता नहीं चला होगा कि रियासत के दीमकों को ताड़ के पत्तों का स्वाद मिल चुका था। हो सकता है, नीरा बनाने वालों के यहाँ से दीमक भागकर राजमहल के सिपाहियों की आँखों में धूल झोंकते हुए पुस्तकागार में घुस गए होंगे। ख़ैर, श्रीमान मर्दमहान ज्ञानी भी कम न थे। सो उन्होंने ब्राह्मणों के लिए हल्के-फुल्के दंड निर्धारित कर दिए। उसमें एक ऐसा भी था कि गलती पकड़े जाने पर एक ब्राह्मण राज-कर्मचारी को मंदिर में रखे बरतनों को इमली से घिसकर चमकाना होगा। केवल इसी कारण से देवी मंदिर में पीतल के बने बरतन सोने जैसे चमकते थे। मुछंदर सूपकार को यह दंड पिछले छः महीनों में दो बार मिल चुका था और उसने पाकशाला के अपने तमाम कामकाज निबटाने के बाद रात भर देवी मंदिर के आँगन में अकेले बैठकर बरतन साफ़ किया था। रात के सन्नाटे में चुड़ैल नहीं टपक पड़े, इसके लिए वह गायत्री मंत्र भी गुनगुनाता था, "ऊँ भूर्भुव: स्व:.....''
                इतनी सारी अड़चनों के बावजूद मुछंदर बड़े धैर्य के साथ राजमहल में काम करता रहा। उसका कारण न सिर्फ़ उसे मालूम था, बल्कि और दो जन भी उसके बारे में वाक़िफ़ थे। एक तो बेचारा इस कहानी का लेखक, और दूसरी शख़्स थी कमली, यानी राजमहल में जूठे बरतनों को साफ़ करने वाली और महल के अंदरूनी हिस्से में झाड़ू देने वाली नौकरानी। कमली अपनी जात के बारे में खुद नहीं जानती थी, उसे तो राजमहल में इतनी छोटी उम्र में लाया गया था कि उसकी जात के बारे में कुछ तय नहीं हो पाया। लोगों से उसने सुना था कि उसे वर्तमान राजा श्री मर्दमहान के पिता श्रीमान जंगबहादुर के आदेश पर जंगल से लाया गया था। हाँ, उस ज़माने में राज परिवार के लोग जंगल में शिकार किया करते थे। शिकार में बाघ-भालू तो मिलने बंद हो गए थे, पर एक इंसान का बच्चा राजा श्रीमान जंगबहादुर को उस दिन दिख गया था। वह तो एक सुंदर गुड़िया निकली। फिर वह बच्ची राजमहल के झाड़ू-पोंछा करने वालों के साथ ही पल बढ़ गई। अब उसकी भी वही जात बन गई जो उसके पालनहारों की थी।
                कमली अब बड़ी हो गई और राजसेवा में लग गई। देखने में ठीक-ठाक थी, राजमहल में काम करने का भी कुछ असर रहा होगा। सबको अंदाज़ हो गया कि कमली को आजकल सिर्फ़ जुबान के सहारे बात करने की ज़रूरत नहीं। उसका जिस्म भी ख़ामोशी से बहुत कुछ कहने लगा था। उस भाषा को जो सबसे ज़्यादा समझता था, वह था मुछंदर। एक कारण और भी था---कमली ठीक मुछंदर के डेरे के नज़दीक रहती थी। दिन-रात राजसेवा में बाधा न हो, सो उनके रहने का इंतज़ाम राजमहल के पास स्थित क़िले के अंदर किया गया था।
                मुछंदर को रसोई में घुसते हुए कमली रोज़ देखती और एक मुस्कान फेंक देती थी। इसके बदले में उसे क्या करना चाहिए, यह मुछंदर को मालूम न था। मालूम करने के लिए वह कोशिश भी क्यों करता? दोनों के अपने-अपने काम थे, दोनों की अलग-अलग जात। क्या मुछंदर को रात भर बैठकर देवी मंदिर के आँगन में फिर से बरतन माँजना था? पर वह ज़रूर एक बात सोचने लगता। "मैं देवी मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के लिए रसोई बनाता हूँ और इसलिए मुझे सिले हुए कपड़े यानी जाँघिया और गंजी पहनना मना है। कमली को तो और काम मिले हैं, फिर वह क्यों चोली के बिना तन को ऐसे साड़ी में लपेट कर घूम रही है?'' कुछ देर सोचने के बाद जब उसे कोई सुराग़ नहीं मिलता तो वह उसे ऐसे ही मन से निकाल देता, "छोड़ो इस बात को। कुछ होगा। औरतों के लिए राजमहल में कुछ अलग-से नियम होंगे।'' फिर रसोई के अंदर जाकर काम में लग जाता था, दिन भर क्या, आधी रात तक उसे फ़ुर्सत नहीं मिलती। रात में महल के अहाते होकर गुज़रते वक्त मुछंदर सोचता, "अगर कमली यहाँ होती तो मैं उसे एक बार ताक लेता।'' फिर उसे समय का पता लग जाता था। "ख़ैर, मैं भी कैसा बुद्धू हूँ! अगर कमली होती भी तो इस अँधेरे में उसे मैं थोड़े न देख पाता!''
                एक दिन मुछंदर को महल में जाते हुए देखकर कमली ने उसका रास्ता रोक लिया। "मुछंदर, मैं तुमसे कुछ पूछ सकती हूँ?''
                पहले तो मुछंदर को अंदाज़ न हुआ कि लड़की क्या बोल सकती है। "ज़रूर कुछ ख़ास सवाल  होगा, नहीं तो पूछने से पहले अनुमति क्यों माँगती?''
                "पूछो, क्या पूछना है, जल्द पूछो। मुझे चूल्हा जलाने की जल्दी है।'' मुछंदर ने कहा। फिर कमली ने पलटवार किया, "कुछ नहीं, ऐसे ही।''
                इस प्रकार दो दिन तक बेचारी कोशिश करती रही, पर कुछ न बोल पाई। फिर मुछंदर ने सोचा, "अगर दंड मिलेगा तो एक रात मंदिर में बरतन माँज दूँगा, अब तो कमली से पता कर लेना चाहिए आख़िर वह पूछना क्या चाहती है।'' फिर उसने आवाज़ में कोमलता लिए पुचकारते हुए कमली से पूछा, "कहो कमलनयनी, बात क्या है?''
                कमली खिलखिलाती हुई हँस पड़ी। फिर कहा, "मुछंदर, तुम रात में चप्पल पहन कर क्यों सोते हो?''
                मुछंदर चौंक गया। वह तो दरवाज़े को अंदर से बंद करके सोता है, फिर कमली को कैसे पता चला कि वह चप्पल पहन कर सोता है? बात तो सच है, पर है बिल्कुल अंदरूनी।
                "क्या तुम दरवाज़े के छेद से सब कुछ देखती हो, कमली?'' मुछंदर ने उल्टे प्रश्न किया।
                "हूँ, क्या तुम मुझे नहीं देखते हो? तुम तो मुझे घूर-घूर कर देखते हो,'' कमली ने मुस्कुरा कर मुँह बनाते हुए कहा। फिर अपना प्रश्न दोहराया, "अब तो बोलो क्यों चप्पल पहन कर सोते हो?''
                "तो सुन इसका राज। पगली, इन्हें सोते हुए नहीं पहनूँगा, तो दिन में काम करते समय मुझे कौन पहनने देगा, भला? फिर ज़िंदगी वगैर चप्पल की गुज़र जाएगी और मैं ऐसे एक दिन मर जाऊँगा,'' मुछंदर ने बड़े सरल ढंग से यह जवाब दिया।
                "ओ मुछंदर, मरे तेरा दुश्मन। क्यों तुम सुबह-सुबह इतनी मनहूस बात बोलते हो?'' कमली सचमुच दु:खी हो गई और उसके होंठों से मुस्कान उड़ गई।
                कल तक जो दिल की धड़कनें थीं आज आत्मा की पुकार बन गई हैं। अब आँखों का मिलन चाहत का गुलाब बनकर दोनों के अगल-बगल खिलने लगा। कमली सोचती थी कि वह मुछंदर के साथ राजमहल से कहीं दूर भाग जाए, पर कहाँ? ऐसे भागने का मतलब था मौत को न्योता देना। मुछंदर कमली की बातों में नहीं आना चाहता, वह तो बड़ा डरपोक था। हमेशा वही एक बात बोलता रहता, "देख कमली, सब्र का फल मीठा होता है। सब्र करो, कुछ-न-कुछ रास्ता तो निकल ही जाएगा।''
                रास्ता तो निकलना ही था। आख़िर में बहती धारा को पर्वत भी नहीं रोक सकता।
                लोग मुछंदर और कमली के प्यार को कई नाम देने लगे। किसी ने कहा, "जश्न-ए-मोहब्बत'' तो किसी ने "शानदार दीवानगी'', किसी ने उसे "आँखमिचौनी'' क़रार दिया तो किसी ने "मेल-मिलाप''। सबको ईष्र्या थी, सब लग गए थे बिगाड़ने का रास्ता खोजने में, बदनामी फैलाने में। मुछंदर डर गया कि किसी-न-किसी दिन प्रतापी-देवतुल्य-शत्रुविदारक-महाराजाधिराज श्रीमान महेंद्र मर्दमहान के क्रोध की आग में वे दोनों ज़िंदा जल जाएँगे। लोग वही देखना भी चाहते थे। प्यार में तबाही दुनिया वालों के लिए बिल्कुल दिलचस्प नज़ारा होता है। यह हर युग की विडंबना है, शैतानी त्रासदी है।
                एक दिन सचमुच श्रीमान मर्दमहान से दोनों प्रेमियों को बुलावा आ गया। महाराजाधिराज के समक्ष शिकायत प्रस्तुत हुई, उसकी छानबीन चली, फिर निर्णय--सारे काम एक ही दिन में होने थे। आरोप-पत्र पढ़ा गया। "अपनी-अपनी औक़ात को भूलकर, अपने-अपने कर्तव्यों में ढीलापन लाकर, आचार-संहिता की धज्जियाँ उड़ाकर, धर्म को नकारते हुए, जात-पाँत के बंधनों को तहस-नहस कर, लोगों की चेतावनियों को अनसुना कर, कुल-देवी के पवित्र स्थान को कलुषित कर...मुछंदर सूपकार और कमली दोनों ने राजमहल के परिसर में अपने नापाक प्यार का ढोंग रचाया, जिसके चलते अब कमली के गर्भ में पाप पल रहा है। इस आरोप को क़बूल करने का मौक़ा अब दिया जाता है। दंड से बचने हेतु उन दोनों को हिदायत दी जाती है कि वे अपना-अपना दोष क़बूल कर लें।''
                "मैं क़बूल करती हूँ,'' कमली ने कहा। मुछंदर की ओर देखकर उसने आँखों से कुछ ऐसा इशारा भी किया जिससे मुछंदर अचंभे में पड़ गया, पर कमली की ख़ामोश सलाह को नज़रंदाज़ नहीं कर पाया।
                "मैं भी कबूल करता हूँ,'' मुछंदर ने कहा।
                अब क़बूलनामा लिखा गया और उस पर दोनों प्रेमियों ने अपने-अपने अँगूठे के छाप लगाए। फिर दंड सुनाने का वक्त आया। सब ख़ामोश थे, उत्सुक थे क्योंकि प्यार करने के जुर्म की सजा सिर्फ़ सजा-ए-मौत होती है।
                सभा की नीरवता को भंगकर श्रीमान मर्दमहान ने दंड सुनाया।
                "हम प्रतापी-देवतुल्य-शत्रुविदारक-महाराजाधिराज श्रीमान महेंद्र मर्दमहान यह आदेश देते हैं कि मुछंदर और कमली आज से सेवामुक्त हुए। हम उन दोनों की निष्कपट सेवा की क़द्र करते हुए उनके द्वारा नादानी में किए गए जुर्म को माफ़ करते हैं और कमली के गर्भ में पल रहे बच्चे को वैध मानते हैं। मुछंदर और कमली के बीच अब से पति-पत्नी का रिश्ता हमें मंज़ूर है और सेवामुक्त होने के एवज़ में उन्हें पाँच-पाँच हज़ार मुद्राएँ दी जाएँ।''
                मुछंदर कमली के साथ अपने गाँव लौट आया और एक सुखी संसार बसाया। पर उसके मन में एक सवाल कई बार आया, "जब मैंने शादी से पहले कभी कमली को छुआ तक नहीं, कैसे मेरा बच्चा उसकी कोख में आ गया?'' ऐसे सवाल के तुरंत बाद उसका जवाब भी मुछंदर के मन में आ जाता था, "पगली ने मेरा अँगोछा सूँघ लिया होगा और ऐसे मेरा बच्चा उसकी कोख में आ गया होगा। जैसे भी हो, कमली ने राजकुमार सरीखे लड़के को जन्म दिया। इसके लिए कमली मेरे शत प्रतिशत प्यार का हक़दार है।''
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By
A N Nanda
Shimla
2-9-2013
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1 Comments:

Anonymous Sandeep Ahire said...

nice love story...

7:12 AM  

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