Another Story from "Virasat"
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It's time to go back to my first book of short story collection in Hindi, "Virasat". [विरासत ] I've chosen a very simple but humorous one and plan to translate the same into English shortly. Happy reading.
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आख़िर अड़चन क्या
है ?
डाकख़ाने में अँग्रेज़ी और हिंदुस्तान में अँग्रेज़
तक़रीबन एक ही समय में आए थे। इसका मतलब यह नहीं कि सभी डाकख़ानेवाले अँग्रेज़ी लिखने, बोलने में माहिर
हैं। कभी-कभार ऐसा लगता है कि अँग्रेज़ी लिखना उन लोगों की मजबूरी है। और नतीजा ? मजबूरी में
निपटाए गए सारे काम गड़बड़ी में समाप्त होते हैं, और इसे लेकर कहानी भी बन जाती है।
अब जो कहानी मैं सुनाने जा रहा हूँ, वह एक सच्ची घटना
पर आधारित है। यहाँ पर पात्रों का परिचय देना और घटनास्थलों के नाम याद करना कठिन
है। इसलिए मैं कल्पना के सहारे ही आगे बढ़ना चाहता हूँ। आख़िर नामों में रखा क्या है?
जनाब प्रभाकरजी उस मंडल के अधीक्षक थे, जहाँ उन दिनों
काफ़ी गड़बड़ी थी। आज डाकघर में चोरी, तो कल डाक थैलों की छीना-झपटी होती थी। अधीक्षकजी बहुत
परेशान रहते थे। उनका विचार था कि अगर वे ज़्यादा से ज़्यादा गश्त करेंगे, तो स्थिति में
सुधार ज़रूर आएगा। वे कहते थे, 'रोकड़ संदूक़ में हो या दराज़ में, इन्हें हमेशा ताले में बंदकर रखें। अपने डाकघर
में फ़ालतू लोगों को घुसने न दें, चाहे वे लोग आपके रिश्तेदार या जानने वाले ही क्यों न हो’ वग़ैरह, वग़ैरह।
एक दिन की घटना है। अधीक्षक प्रभाकरजी अपनी
गश्त निपटाकर लौट रहे थे। रास्ते में एक डाकख़ाना आया। डाकख़ाना बंद होने का समय बीत
चुका था, फिर भी वह खुला
था। प्रभाकरजी चकित हुए। वे मन-ही-मन सोचने लगे, 'क्या यहाँ जाना ज़रूरी है? हो सकता है कि
कर्मचारी अपना बचा हुआ काम निपटा रहे हों।’
'नहीं, फिर कभी, आज मैं सचमुच थक चुका हूँ,’ अधीक्षकजी गाड़ी
में चुपचाप बैठने की कोशिश कर रहे थे।
सिर्फ़ दो पल के उपरांत प्रभाकरजी फिर सोचने लगे।
अब वे अपने पहले निर्णय पर टिक नहीं सके। उन्हें यह आभास होने लगा कि कुछ अनहोनी
हो गई होगी, अन्यथा लोग लाइट जलाकर क्यों काम कर रहे हैं?
आख़िरकार, प्रभाकरजी अधीक्षक थे। रास्ते में दुर्घटना
देखकर भाग जाना उन्हें मंज़ूर था, पर अपने डाकघर में कुछ गड़बड़-घोटाला की भनक पाकर पलायन करना
उन्हें कतई मंज़ूर न था। हो सकता है, यहाँ भी कुछ गड़बड़ी हो। अधीक्षक ने तुरंत गाड़ी
रुकवाई।
डाकख़ाने के अंदर जाते ही सभी कर्मचारी खड़े हो
गए। डाक परिवार का तो यह संस्कार है कि वे लोग बड़े अधिकारियों को बहुत इज़्ज़त देते
हैं। बिल्कुल एक परिवार की तरह, कभी-कभी झगड़ भी लेते हैं। अपनी माँग मनवाने में, सुनने-सुनाने का
सिलसिला जारी रहता है।
उस दिन जब प्रभाकरजी पहुँचे तो पोस्टमास्टरजी
ने तुरंत घटना के बारे में खुलासा कर दिया।
'जी, महाराजपुर के पोस्टमास्टर ने लिखा है कि उसने 500
रुपये भेजे हैं, लेकिन रोकड़ थैला तो बिल्कुल खुला है। हमलोग बहुत परेशान हैं, आख़िर रुपये गए
कहाँ?’
पोस्टमास्टर सचमुच परेशान थे। उन्हें यह बात
हैरान कर रही थी कि कैसे ऐन मौक़े पर डाक अधीक्षक आ पहुँचे। आख़िर, किसने ख़बर दी
उन्हें?
अधीक्षकजी बोले, 'बलवंतजी, ज़रा डाक थैला मेरे सामने तो खोलिए।’ वे बिना बताए
तहक़ीक़ात शुरू कर चुके थे।
जितना भी वे डाक थैले को अंदर बाहर कराते गए, उससे कुछ सुराग़ न
मिला। काग़ज़ातों का मुआयना किया, पर उन्होंने भी वही पढ़ा जो पोस्टमास्टर बलवंतजी पढ़ रहे थे: 'Remitted Five Hundred Rupees’। इनके साथ अन्य औपचारिकताएँ पूरा करने में समय
लग गया। काफ़ी समय तो लगना ही था। बयान लिखवाने में दो-तीन घंटे बीत गए। फिर
इन्वेट्री बनानी थी। रोकड़ और टिकटों को गिनने में और ढेर सारे काग़ज़ातों को इकट्ठा
करने में रात के दस बज गए।
इतने सारे काम करने-कराने के बाद याद आया कि
शाखा पोस्टमास्टर से भी पूछताछ करना बाक़ी है। महाराजपुर शाखा डाकघर 15 किलोमीटर की
दूरी पर स्थित था। कठिनाई की बात यह थी कि उस गाँव तक जीप नहीं जा सकती थी। लगभग
पाँच किलोमीटर पैदल चलना था। इसके बावजूद अधीक्षक प्रभाकरजी तय कर चुके थे कि वे
महाराजपुर अवश्य जाएँगे। कोई तहक़ीक़ात घटनास्थल पर गए बिना अधूरी रहती है और
प्रभाकरजी को अधूरा काम करना ज़रा भी पसंद न था।
अधीक्षक जब जीप तक पहुँचे, तो उन्होंने देखा
कि चालक सोया हुआ था। सच बोला जाए, तो वह खर्राटे ही ले रहा था। चालक को अपने अधीक्षक के जिस्म
की महक ऐसे मालूम थी कि वह सोते हुए भी उनके आगमन की भनक पा गया और तुरंत नींद से
उठकर गाड़ी चलाने लगा।
रात के साढ़े दस बजे थे। दूरदराज के गाँव में उन
दिनों रास्ता शाम आठ बजते ही सुनसान हो जाता था। आमतौर पर इस रास्ते में सिर्फ़ दिन
के समय ही सप्ताह में एक-दो जीप देखने को मिलती थी। परंतु आज इतनी रात गए एक जीप
महाराजपुर की ओर बढ़ी जा रही थी।
रास्ते में एक छोटा-सा नाला आया, जिसे गाँव के लोग
टूटी नदी कहकर पुकारते थे। इसमें पानी नाममात्र का था, पर यह कीचड़ से भरा पड़ा था। नतीजन जीप को आगे
बढ़ना मुश्किल हो गया। वह आगे बढ़ती, तो कीचड़ में फँस जाती। आख़िरकार चालक को वहाँ रुकना पड़ा।
अधीक्षक प्रभाकरजी जीप से तुरंत कूद पड़े और आगे
बढ़ने लगे। रात ग्यारह बजे वह पैदल चल रहे थे और साथ में बलवंतजी थे। अधीक्षक और
पोस्टमास्टर दोनों एक ही उम्र यानी पचास के आसपास थे। जिस तरह दोनों आगे बढ़ रहे थे, लग नहीं रहा था
कि वे उम्र में अधेड़ थे। तहक़ीक़ात होती ही है ऐसी कि करने वालों में अतिरिक्त जोश
भर देती है। रास्ते में अधीक्षकजी तो एक बार गिरते-गिरते बचे।
जब वे दोनों महाराजपुर पहुँचे तो रात के दो बज
चुके थे। शाखा पोस्टमास्टर मलिया माझी का घर गाँव के बीच में था। वह गहरी नींद में
सो रहा था। जब बलवंतजी ने उसका दरवाज़ा खटखटाया, तो वह तुरंत जग गया और पड़ोसी भी जग गए।
ग़ुस्से में चूर बलवंतजी सोच रहे थे कि वे मलिया
माझी को क्या करें, लेकिन अधीक्षक के सामने वे कैसे एक शाखा पोस्टमास्टर के ऊपर
अपना ग़ुस्सा उतार सकते थे।
'मलियाजी, सच बोलो आज आपने कितने रुपये लेखा डाकघर को
भेजे थे?’ अधीक्षक
प्रभाकरजी ने बेरोकटोक पूछताछ शुरू कर दी। उन्हें पूरा भरोसा था कि जनजाति के लोग
सच बोलने में पीछे नहीं हटते, पर सवाल सीधा होना चाहिए।
'सर् जी, आज तो मैंने कोई रुपया-पैसा नहीं भेजा था,’ शाखा पोस्टमास्टर
ने तुरंत जवाब दिया।
बलवंतजी को होश आया। एक गहरी साँस लेने के बाद
वे बोल पड़े, 'अगर आपने
रोकड़ नहीं भेजी, तो फिर क्यों ऐसा लिखा, “Remitted Five Hundred Rupees”?’
'मैंने तो पाँच सौ रुपये भिजवाने के लिए लिखा था।
दो लोग अपने पास बुक से पैसे निकालने के लिए फ़ार्म भर गए हैं, देखिए।’ मलिया माझी घर के अंदर गया और झट से दो फ़ॉर्म लाकर अधीक्षक
के सामने रख दिया।
सचमुच दोनों ही फ़ॉर्म असली थे। इसका मतलब सही
भुगतान हेतु शाखा पोस्टमास्टर ने राशि अपने लेखा डाकघर से मँगवायी थी और उनका ऐसा
करना नियमों के दायरे में ही था।
'तो फिर अड़चन क्या
है?’ अधीक्षक ने झट से
शाखा डाकपाल द्वारा भेजे गए काग़्ज़ा को निकाला और मलिया माझी के सामने रखा। मलिया
माझी ने उसे देखा।
शाखा पोस्टमास्टर अनपढ़ नहीं था। वह अपने ज़माने
का मैट्रिक्युलेट था। अँग्रेज़ी सही लिखना आता नहीं था, पर अँग्रेज़ी लिखकर अपने यार दोस्तों को
प्रभावित करना उसे ख़ूब आता था। फिर लेखा डाकघर को वह क्यों अँग्रेज़ी में न लिखता?
मलिया ने जब लिखा, उसने ठीक ही सोचा था और यदि उसने ठीक-ठीक लिखा
होता, उसका वाक्य होता, “Remit Five Hundred Rupees”। लेकिन सोचने और लिखने में हमेशा फ़र्क़ होता
है--न केवल मलिया जैसे शाखा पोस्टमास्टर को, बल्कि यह तो बड़े-बड़े लेखकों को भी मार गिराता
है।
कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मलिया ने लिखा: “Remitted Five Hundred Rupees”।
इस प्रकार अधीक्षक प्रभाकरजी और डाकपाल बलवंतजी
ख़ुश होकर लौटे। जब वे लौट रहे थे, बलवंतजी ने अपने मलिया दोस्त को नसीहत दी, 'अरे भाई, अपनी अँग्रेज़ी तो
तनिक सुधार लो।’
भुबनेश्वर, दिनांक 19-07-2007
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By
A N Nanda
Bhubaneswar
16-02-2013
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Labels: Virasat
6 Comments:
Very true,Sir.Being in Post Office,really enjoyed the story. You write in such a way as if everythng is being picturised before the readers.We are lucky that you have taken over as CPMG, HP.we hope, our lives will also be enriched now and we will learn a lot from u. May God bless u with more and more wisdom to spread further,Sir.
Respected sir, the story draws a true picture of Post office work culture and u write so well that it seems like whole incident is being picturised before the readers. Being in Post office, enjoyed the story to the full. We are lucky that u have joined as CPMG HP.
Reading this story was amazing. I believe there might be thousands of stories going around in the mysterious Postal network connecting unknown parts of a secular counntry like ours. Some of them take the form of words , yet another pass on over the generations that join that Postal family. Being a part of these stories i found this one ultimately thrilling. But i did not expected that end. It was superb.
Thanks Rajeshwari, your comments inspire me a lot.
Thanx Nanya. I'm happy that you read. And more so, as you read the version in Hindi and identified yourself as someone "being a part of these stories". Keep visiting the blog and making me happy too.
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