प्रेम का अवशेष
प्रेम का अवशेष
कुछ लोग
मानते हैं कि सच्चा प्रेम और असली ज्ञान शरीर के बाद भी जीवित रहते हैं—वे अमर हो
जाते हैं,
जन्म और मृत्यु के चक्र को पार कर जाते हैं। परंतु किशोर इस रोमानी
अध्यात्म पर कभी विश्वास नहीं करता था। उसके अनुसार, ऐसी
धारणाएँ प्रायः हर राम, श्याम और ग़नी जैसे लोग
फैलाते हैं—जिनके पास न तर्क है, न प्रमाण, फिर भी वे अपने भ्रमों को ही सनातन सत्य घोषित करते फिरते हैं।
“हाँ, ज्ञान किसी
व्यक्ति के बाद भी जीवित रह सकता है,” किशोर
तर्क देता था, “पर केवल पुस्तकों, विरासत और विद्यार्थियों के माध्यम से। जिस तरह धन उत्तराधिकार या
परोपकार से बचा रह सकता है, वैसे ही ज्ञान भी
आगे बढ़ सकता है। पर उसे रहस्यमय मत कहो, और मत कहो
कि लोग पुनर्जन्म लेकर वही ज्ञान या प्रेम लेकर आते हैं। यह सब छल है! कुछ तो इतने
सफ़ाई से अपनी पिछली ज़िंदगियों को याद करने का दावा करते हैं कि जैसे कोई
परिष्कृत टेड टॉक (TED Talk) दे रहे हों—न विरोधाभास, न झिझक—बस
शुद्ध कल्पना, जिसे अध्यात्म के नाम पर बेचा जा रहा
है!”
किशोर
बचपन से ही हर बात पर सवाल उठाता था—इतना कि पुजारियों, ज्योतिषियों और बुज़ुर्ग पड़ोसियों तक की नींद हराम हो जाती। कॉलेज
में उसने फ़्रीथिंकर्स
सर्कल, यानी आज़ाद विचारक मंडली बनाई, जो अध्यापकों से असहज प्रश्न पूछने के लिए कुख्यात हो गई।
एक दिन
क्लास में अध्यापक ने कहा, “हमारी हैसियत
अपने-अपने चुनावों का परिणाम है—यही कर्म का सिद्धांत है।”
किशोर ने
आपत्ति की। उसका तर्क था—हर किसी के पास चुनाव की सुविधा नहीं होती।
उसने पूछा, “सर, आप आज कॉलेज कैसे आए?”
“रिक्शा से,” अध्यापक ने उत्तर
दिया।
“और रिक्शा कौन खींच रहा था?”
“रिक्शावाला, जाहिर है।”
“और वह रिक्शा खींच रहा था, आप क्यों
नहीं?”
अध्यापक
ने कहा,
“यह उसका चुनाव है।”
किशोर ने
पूछा,
“क्या यह सच में चुनाव है—या विकल्पों की कमी?”
क्लास में
सन्नाटा छा गया।
“जहाँ चुनने का ही मौक़ा न हो, वहाँ
चुनाव की बात करना बेमानी है,” किशोर ने कहा।
“बेमानी” शब्द अध्यापक को “बेईमान” सुनाई दिया। नाराज़ होकर वह
प्रिंसिपल के पास पहुँच गए।
प्रिंसिपल
ने किशोर को समझाया, “तुम्हें
दुनियादारी की समझ कम है, और बुद्धि उम्र के
साथ आती है। सही समय का इंतज़ार करो।”
किशोर के
लिए यह वही पुराना धार्मिक तरीका था, जिसके
ज़रिए जिज्ञासु दिमाग़ों को हाशिए पर डाल दिया जाता है—जहाँ युवाओं को ‘अपरिपक्व’, जिज्ञासा को ‘अवज्ञा’ और स्वतंत्रता को ‘अनुशासनहीनता’ का तमगा दे
दिया जाता है। उसके अनुसार, समाज सोचने वालों
से ज़्यादा आज्ञाकारी अनुयायियों को पसंद करता है।
ऐसे
लड़कों के माता-पिता छुट्टियों से डरते थे। जब ये आज़ाद विचारक घर लौटते, तो पंडितों और ज्योतिषियों से बहस छेड़ देते—इतनी कि माता-पिता उन्हें
फिर हॉस्टल भेजने में ही भलाई समझते।
एक बार
किसी ने पूछा कि ‘आज़ाद
विचारक मंडली’ में कोई महिला
सदस्य क्यों नहीं है—और यह सवाल उसने समालोचना के तौर पर छेड़ दिया था।
किशोर
हँसकर बोला, “वे ग़ौर से देख रही हैं कि कितनी
ईमानदारी से हम स्त्री–पुरुष समानता का समर्थन और पुरुष वर्चस्व का विरोध कर रहे
हैं। बस इंतज़ार कीजिए, जल्द ही वही
अगुवाई करेंगी।”
सबने
भविष्यवाणी की कि इन युवाओं का भविष्य अंधकारमय है—“सबकी राय थी, ऐसे संशयवादी लोगों को कौन नौकरी देगा!”
लेकिन
वक़्त ने सबको चौंका दिया—सभी दस आज़ाद विचारकों को अच्छी नौकरियाँ मिल गईं।
उन्होंने बस “थोड़ी देर के लिए प्रश्न करने की आदत टाल दी थी।” किशोर, जो उनका नेता था, एक उच्च सरकारी पद
तक पहुँच गया। उसका रहस्य क्या था?
“मैंने तर्क करना नहीं छोड़ा, बस लहजा
बदल लिया—जैसे, ‘हो सकता है मैं ग़लत हूँ… आदरपूर्वक कहना
चाहूँगा… माफ़ कीजिए, जनाब, मतभेद है… इस पर एक और दृष्टिकोण भी है…।’ लोग हमारे तेवरों से पहले
तो भयभीत हो जाते थे, लेकिन थोड़ी वाचिक
नरमी दिखाने पर सब शांत हो जाते।”
पर विवाह
वह रेखा थी जिसे किशोर ने ठान लिया था कि पार नहीं करेगा। उसका मानना था कि शादी
ऊर्जावान दिमाग़ों को आज्ञाकारी अनुयायी बना देती है।
आठ लोग अंततः शादीशुदा हो गए (कुछ ने तो दहेज भी स्वीकार कर लिया), पर किशोर और उसका एक साथी अडिग रहे। परिवारों में हाहाकार मच गया—
- “हम बहू और
पोते का मुँह देखे बिना मर जाएँगे!”
- “जो पोता देखे
बिना मरेगा, नरक जाएगा!”
- “कुंवारे
मर्दों को अजीब बीमारियाँ घेर लेती हैं—माइग्रेन, डरावने सपने—यहाँ तक कि चुड़ैल भी सपनों में पत्नी बनकर आती है, ख़ून चूसती है, और
ऐसी बीमारियाँ दे जाती है जिन्हें कोई डॉक्टर नहीं पहचान सकता!”
आख़िर एक
दिन एक बुज़ुर्ग व्यक्ति किशोर के घर आया। उसने कहा कि आज़ाद विचारकों के दसवें
साथी की माँ गंभीर रूप से बीमार है—डॉक्टरों ने बताया है कि मानसिक तनाव से वह छह
महीने में मर जाएगी। किशोर ही उसे शादी के लिए मना सकता था।
किशोर
राज़ी हुआ, पर जब उसने मित्र को समझाने की कोशिश की, तो मित्र ने शर्त रखी—“तू भी
शादी करेगा, तभी मैं करूँगा।”
और इस तरह, चालीस की उम्र में, किशोर और उसका
मित्र दो शिक्षित बहनों (अठतीस और छत्तीस वर्ष की) से विवाह के लिए तैयार हो गए। आज़ाद
विचारकों ने न रूप देखा, न कुंडली, न दहेज। दुल्हनों ने बस एक वचन लिया—
“हम विवाह के बाद भी आज़ाद विचारक रहेंगे।”
वचन कोई
धार्मिक संस्कार नहीं था; किशोर ने अपनी
दुल्हन को वह रजिस्टर सौंपा जिसमें वर्षों की बहसों और विचारों का ब्यौरा था—आज़ाद
विचारकों की वैचारिक धरोहर। वही उनकी औपचारिक दीक्षा थी।
शादी वाली
शाम किशोर, उसके पिता और बहन बारात के साथ कार में
बैठे थे। कार किराए की थी। मुश्किल से एक चौथाई मील चले होंगे कि किशोर ने ड्राइवर
से लाइसेंस माँगा। पता चला—उसका लाइसेंस एक साल पहले ही समाप्त हो चुका था। यह
सोचकर कि कहीं पकड़े जाने पर रिश्वत देकर मामला निपटाना पड़े—जो ग़ैरक़ानूनी और
अनैतिक दोनों है—किशोर पैदल ही घर लौट पड़ा ताकि अपना लाइसेंस ले आए। बुज़ुर्गों
ने मना किया—बारात शुरू होने के बाद लौटना अपशकुन माना जाता है—पर किशोर ने
अंधविश्वास को नकार दिया।
करीब आठ
बजे रात थी। सड़कें अंधेरी थीं। एक पुराने बरगद के पेड़ के पास, सफ़ेद साड़ी में एक बुज़ुर्ग औरत सामने आई और धीरे से बोली—“बेटा, क्या तुम मुझे साथ
ले चलोगे?”
किशोर ने
कहा,
“गाड़ी भरी हुई है।”
वह
मुस्कराई,
“कोई बात नहीं, मैं छत पर
बैठ जाऊँगी।”
किशोर हँस
पड़ा,
“ये बस नहीं है, माताजी, कार है!” उसकी आँखों में अजीब अपनापन झलक रहा था। उसने कहा, “मैं बरसों से इस अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी।”
जब किशोर
ने पूछा,
“आप कौन हैं?”, तो उसने
नाम नहीं बताया—सिर्फ़ इतना कहा, “मैं तुम्हारी सबसे बड़ी शुभचिंतक हूँ।”
और अगले
ही पल वह अंधेरे में विलीन हो गई।
रात
गहराने लगी थी। थकान बढ़ रही थी। ड्राइवर—जिसका लाइसेंस और ज़मीर, दोनों, एक्सपायर हो चुके
थे—बगल में खर्राटे ले रहा था। किशोर की आँखें भी झपकने लगीं; हेडलाइटों में सड़क धुँधली रेखा-सी दिखने लगी। तभी—नींद और जाग के बीच
की उस क्षणिक दरार में—वही सफ़ेद साड़ी वाली औरत सड़क पार करती हुई, सीधी कार की ओर दौड़ती नज़र आई।
किशोर ने
झटके से ब्रेक लगाया। कार चीखी। यात्री चौंककर आगे की ओर उछले।
किशोर का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा, पर उसने
मुँह नहीं खोला। जो आदमी ज़िंदगी भर भूतों का मज़ाक उड़ाता रहा, वह अब ख़ुद भूत देखने की बात करे तो उसकी पूरी तर्कवादी साख ध्वस्त हो
जाएगी।
उसने शांत
रहकर थर्मस खोला और चाय का प्याला भर लिया। गरम घूँट ने उसकी थकान और नींद दोनों
जला दीं। यह शादी की रात का व्रत तोड़ना था—जिसमें हथेली बाँधने की रस्म से पहले
भोजन या पेय वर्जित था—पर उसने सोचा,
“बेहतर है व्रत तोड़ दूँ, गर्दन न
तुड़वाऊँ।”
वह सकुशल
दुल्हन के यहाँ पहुँचा, विवाह संपन्न हुआ, और अगली सुबह दुल्हन को लेकर घर लौट आया।
भोज के
समय एक रिश्तेदार ने हँसते हुए कहा, “पहले किशोर की बुआ को खाना परोसो—अगर उनकी आत्मा को न खिलाया, तो वह जवाब माँगने आ जाएगी! भूतों की दुनिया में भी दबंग हैं!”
यह बात
सबके लिए मज़ाक थी—पर किशोर के लिए बिजली का झटका। वही बुआ, जिसने उसे माँ से भी अधिक स्नेह दिया था, जब वह पाँचवीं कक्षा में था, तभी साँप
के डँसने से चल बसी थीं। उनका एक ही सपना था—किशोर की शादी की बारात का नेतृत्व
करना। नियति निर्दयी निकली—वह दिन देखे बिना चली गईं।
उस दिन
किशोर रसोइए के साथ उस नारियल बाग़ान गया, जहाँ हर
शुभ अवसर पर पितरों को भोजन अर्पित किया जाता था। हमेशा की तरह वहाँ केवल आवारा
कुत्ते और कौए आए और खा गए। पर अब पिछली रात की घटनाएँ जुड़ने लगीं।
क्या वह
सफ़ेद साड़ी वाली वही बुआ थी? अगर उसने जगाया न
होता… क्या कार पलट जाती? क्या उसकी दुल्हन
उसी रात विधवा बन जाती?
किशोर ने
यह बात किसी से कभी साझा नहीं की—न अपनी पत्नी से, न अपने
आज़ाद विचारक दोस्तों से। आने वाले बीस वर्षों तक, यानी आज
तक,
उसने अपने भीतर एक बग़ावती विचार दबाए रखा—
शायद
प्रेम शरीर के बाद भी बचा रहता है—अध्यात्म की तरह नहीं, बल्कि चिंता की तरह; हवा में बसा कोई
अवशेष,
जो ज़रूरत पड़ने पर लौट आता है।
आज़ाद
विचारक आज़ाद विचारक ही रहा, पर उस एक रात, स्नेह ने तर्क को परास्त कर दिया।
-------------------------------------------
By
अनन्त नारायण नन्द
भुवनेश्वर दिनांक - 7-11-2025
--------------------------------------------
***Please get your copy of विरासत ebook
visiting amazon portal at https://amzn.in/d/7I9URfS
***Please get your copy of एक साल बाद visiting
amazon portal at https://amzn.in/d/bus6vBa
Labels: Hindi stories, short story, Translation

0 Comments:
Post a Comment
<< Home