घन बनाम श्याम और उनकी अवगुण
घन बनाम
श्याम और उनकी अवगुण
घन और
श्याम अब पचास पार कर चुके हैं। उनके बाल सफ़ेद हो चले हैं और घुटने चरमराने लगे
हैं, फिर भी उनका आपसी मुकाबला आज भी उतना ही जीवंत है जितना उनके बचपन में था। बचपन
में वे एक हास्यास्पद प्रतियोगिता में उलझे रहते थे, जिसमें
उनकी सबसे क़ीमती वस्तुएँ होती थीं—चीनी मिट्टी के कंचे, लकड़ी का लट्टू या चमकता हुआ लाल गुब्बारा।
शुरुआत
बिल्कुल मासूमियत भरी थी। अगर किसी के पास नई चमकदार कलम होती, तो दूसरा उससे बेहतर दिखाने की जुगत लगाता। यदि किसी ने लट्टू का नया
करतब सीख लिया, तो दूसरा उसे मात देने की ठान लेता। और
मज़े की बात तो यह थी कि अगर एक लड़का खरोंच पर बैंड-एड लगाता, तो दूसरा बिना किसी चोट के भी दो पट्टियां चिपका लेता।
लेकिन
कहानी ने मोड़ लिया, जिस दिन दोनों
‘बड़े’ हो गए—और एक ही पड़ोस की लड़की, मूसी, से प्रेम कर बैठे। वह सुंदर थी, चालाक भी, और बेहिचक अवसरवादी। दोनों में से हर एक दूसरे से बढ़-चढ़कर उसे फूल, चॉकलेट और हेयर क्लिप जैसी चीज़ें चोरी-छिपे देता, और वह सब स्वीकार कर हर एक को अपने ‘विशेष’ प्रेम का आश्वासन देती।
फिर आया
ट्विस्ट—उनमें से एक ने दूसरे की चीज़ें चुराकर मूसी को दे दीं, ताकि उसका दिल जीत सके। पीछे नहीं रहने के लिए दूसरे ने भी वही किया—प्रतिद्वंद्वी
की चीज़ें चुराकर उसे उपहार में दे डालीं। योजना बुरी तरह उलटी पड़ गई, जब खुद लड़की पर चोरी का आरोप लग गया। चोरी की वस्तुएँ—जैसे माउथ
ऑर्गन और खिलौने का बॉयोस्कोप—मूसी के पास से बरामद हुईं, और बुज़ुर्गों ने खुद तलाशी और ज़ब्ती की कमान संभाली। सज़ा के डर से
दोनों लड़कों ने कभी कुछ देने से इनकार कर दिया और मूसी को लालची झूठी बताकर अपनी
जान बचाई। वह बेचारी लड़की उम्र भर उस कलंक को ढोती रही, जबकि जो लड़के कुछ क्षण पहले तक दुश्मन थे, अचानक आत्म-रक्षा के नाम पर एकजुट हो गए।
उनका
नाज़ुक युद्धविराम मुश्किल से दो हफ्ते चला। फिर अगला मोर्चा खुल गया: किसी ने
सामाजिक अध्ययन की अध्यापिका के आने से ठीक पहले ब्लैकबोर्ड पर एक शरारती कार्टून
बना दिया। अध्यापिका ऐन व्यक्त पर पहुँच गई और रंगे (सफेद) हाथ दोषी यानी घन को
पकड़ लिया गया… और फिर उसे सज़ा मिली।
श्याम
झूठी सहानुभूति का ताज पहनकर आया और घन को दिलासा देने के लिए एक टॉफ़ी—लॉज़ेंज—दी।
घन ने उसे खा लिया। कुछ ही देर में श्याम खुशी से नाचने लगा और ऐलान किया कि वह
टॉफ़ी उसने गंदी नाली से निकालकर दी थी।
अध्यापिका
ने सब सुन लिया। दोनों को सज़ा मिली—घन को कार्टून बनाने के लिए और श्याम को उस
घृणित शरारत के लिए। लेकिन श्याम यह जताता रहा कि उसे ज़्यादा सख़्त सज़ा दी गई—“मैं
तीस मिनट तक घुटनों के नीचे कंकड़ रखकर घुटनों के बल बैठा रहा, और तुम सिर्फ़ पंद्रह मिनट तक एक पैर पर खड़े रहे!” घन ने उसे बुरी
तरह चिढ़ाया, जिससे उसका गुस्सा और भड़क उठा।
श्याम ने
बदले का नया पैंतरा सोच डाला। उसने घन को समझाया कि किताब रटने से अच्छे अंक नहीं मिलेंगे। उसने पेशकश
की कि वह दूसरे स्कूल की किताब से उत्तर देगा, और घन ने
उस पर भरोसा करके सब रट लिया।
परीक्षा
के दौरान श्याम ने घन पर नकल करने का आरोप लगाया। जब अध्यापक ने जाँच की, तो घन के उत्तर उस दूसरी किताब से शब्दशः मिलते थे। “यह तो बस एक
कक्षा-परीक्षा थी,” अध्यापक ने कहा, “और फिर भी घन ने इतनी बेशर्मी से नकल की। अगर वह सिर्फ़ दस अंकों के
लिए ऐसा कर सकता है, तो वार्षिक
परीक्षा में क्या करेगा?” घन को “सुधारने”
के लिए सज़ा दी गई, जबकि श्याम को
सतर्क मुखबिर के रूप में सराहा गया।
पर उनकी
प्रतिद्वंद्विता की गिनती अब भी अधूरी थी।
साल बीतते
गए। दोनों की शादी हो गई—और जैसे किसी दिव्य शरारत से, दोनों की पत्नियाँ समान रूप से सुंदर निकलीं: घन की गंगा और श्याम की
यमुना। दोनों स्त्रियाँ जल्दी ही अच्छी सहेलियाँ बन गईं, जिससे किसी एक पुरुष को सुंदरता के क्षेत्र में कोई बढ़त नहीं मिल
सकी।
इस बीच, घन और श्याम गाँव छोड़कर शहर आ गए और अलग-अलग दफ़्तरों में सफ़ेदपोश
नौकरियाँ करने लगे। लेकिन जब घर ख़रीदने की बारी आई, तो अजीब
बात हुई। यह संयोग था या कोई गुप्त सलाह-मशविरा, यह तो
भगवान ही जानें—पर दोनों ने एक ही इमारत में, एक ही
मंज़िल पर, एक ही विंग में अपना-अपना फ़्लैट ले
लिया। हालात देखकर तो यही लगता था कि यह फ़ैसला घन और श्याम ने नहीं बल्कि गंगा और
यमुना ने लिया था।
पुरानी
प्रेम-प्रतिस्पर्धा इस नए दौर में भड़क ही नहीं पाई क्योंकि दो सुंदर औरतों की सहज
मित्रता ने उसे शुरू होने से पहले ही बुझा दिया। तब तक जो देवता घन-श्याम की
एक-दूसरे को पछाड़ने की गाथा देख रहे थे, वे भी
निराश हो गए। और तो और, दोनों पुरुष खुद
भी मायूस थे—जैसे उनकी सबसे प्रिय बाज़ी, चालाकियों
और छोटी-छोटी जीतों का खेल, उनसे छिन गया हो।
फिर अगला
मैदान आया: बच्चों के बीच प्रतिस्पर्धा। पर यहाँ भी किस्मत ने साथ नहीं दिया। घन
की पत्नी ने दो प्यारी बेटियों को जन्म दिया और श्याम की पत्नी के घर दो सुंदर
बेटे हुए। प्रतिस्पर्धा की जगह वे ऐसे घुलमिल गए मानो एक ही परिवार के भाई-बहन हों—कभी
कॉमिक किताब या बिंदी को लेकर झगड़ते, तो कभी आम
को फाँक-फाँक कर बाँट खाते। वे एक-दूसरे के घरों में इतने सहजता से आते-जाते थे कि
पड़ोसी भी कई बार भूल जाते कि कौन-सा बच्चा किसका है। लगता था कि घन-श्याम की
मशहूर प्रतिद्वंद्विता की ज़मीन अब बंजर हो गई है। परंपरा जैसे ख़त्म होने को थी।
फिर भी, उनकी प्रतिद्वंद्विता को एक और अप्रत्याशित मोड़ लेना था। ज़िंदगी ने
करवट बदली, जब दोनों अपने बुज़ुर्ग माताओं को गाँव
से शहर ले आए।
तभी
किस्मत ने हस्तक्षेप किया। दो वर्ष के भीतर घन की माताजी का निधन हो गया, जिससे उसके परिवार को भारी देखभाल के बोझ से राहत मिली। परंतु श्याम
की माँ,
गाँव से शहर आते ही, लकवे की शिकार हो
गईं और अब उन्हें निरंतर देखभाल की आवश्यकता थी।
अक्सर मन ही मन श्याम सोचता रहता—पता नहीं यह मनहूस बीमारी कब ठीक
होगी, और हमें इस सतत
सेवा से कब मुक्ति मिलेगी!
घन ने
श्याम को अपनी माँ के अंतिम संस्कार में बुलाया—यह एक परंपरागत अनिवार्यता थी।
जैसा कि चाणक्य ने कहा है, “सच्ची मित्रता की
कसौटी यह है कि क्या मित्र श्मशान में आपके साथ खड़ा होता है।” लेकिन श्याम नहीं
गया। वह अंतिम संस्कार से दूर रहा, फिर भी
रोया… कितने सच्चे और
अनियंत्रित थे वे आँसू!
यह वाक़ई
अजीब था। घन, जो मातृवियोग झेल रहा था, शांत बना रहा, जबकि श्याम—जिसकी
माँ अभी जीवित थी—बुरी तरह बिलख रहा था।
“तू मुझसे ज़्यादा भाग्यशाली है रे,” उसने घन
से कहा। “तेरी माँ चली गई। मेरी अब भी जी रही है… और दिन-रात हमें दुख दे रही है।
अच्छी किस्मत के सहारे तू मुझसे एक क़दम आगे निकल गया है।”
क्या? एक दूसरे से आगे निकलने की कोशिश—और वह भी अपनी-अपनी माताओं के निधन
को लेकर? हद है।
यह सबसे
विचित्र क्षण था—हारने वाला जीतने वाले के लिए रो रहा था। मृत्यु भी उनकी
प्रतिस्पर्धा को ख़त्म नहीं कर सकी; उसने बस
मैदान बदल दिया।
उपसंहार
और यूँ ही
चलता रहा यह सिलसिला—चीनी मिट्टी की कंचे से माताओं तक, नाली में भीगी टॉफ़ी से लेकर अपने प्रिय जन को खोने (या नहीं खोने) से
मिली गहरी पीड़ा तक—घन और श्याम की प्रतिद्वंद्विता कभी सचमुच ख़त्म नहीं होती।
शायद नफ़रत नहीं, बल्कि एक साझा जिद
ही है जो उन्हें बाँधती है—दूसरे को चैन से न जीने देने की… बेशक, रूपक में ही सही।
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By
अनन्त नारायण नन्द
भुवनेश्वर
दिनांक- 27-10-2025
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Labels: Hindi stories

4 Comments:
सामाजिक परिदृश्य को प्रकट करता बहुत सुन्दर सामयिक पंक्तिबद्ध विश्लेषण युक्त लेख सर
आपने कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया साझा की, अतः आपकी शुक्रिया। आगे भी ऐसे प्रोत्साहित करते रहिएगा।🙏
V engaging story, your style of story telling is novel & engrossing .Enjoyed thouroughly
Thanks a lot for your encouraging words.
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