उधार की पहचानें
उधार की
पहचानें
अजीब है न? ज़िंदगी कभी-कभी हमें ऐसी पहचानें थमा देती है, जिनके लिए हमने कभी आवेदन ही नहीं किया। अधिकतर लोग पहचान बनाने के
लिए उम्र भर संघर्ष करते हैं; और हम जैसे कुछ
गिने-चुने लोग गलत वजहों से पहचाने जाते हैं—मेरे साथ तो यह कमाल दो-दो बार हुआ, हालांकि सालों के फ़ासले पर, वह भी दो अलग-अलग महाद्वीपों में।
यह कहानी 1980 के दशक के कटक से शुरू होती है और पैंतीस साल बाद रूस के टूला में फिर से मेरा
पीछा पकड़ लेती है। इन दोनों घटनाओं के बीच एक हास्य-रस से बुना धागा है—जिसमें एक
अनोखी,
लगभग अलौकिक-सी संयोगवादी झनझनाहट छिपी है।
तब मैं
युवा था। एक मित्र से किताब लेकर YMCA लौट रहा
था। वह ज़माना कुछ और था—इंटरनेट नहीं, ई-बुक्स
नहीं,
न सोशल मीडिया। पढ़ना एक वास्तविक, स्पर्श-योग्य
दुनिया में घटने वाला अनुभव था। रास्ते में एक छोटे से ढाबेनुमा चाय-नाश्ते की
दुकान पर रुका। दुकान लगभग खाली थी—बस दरवाज़े के पास एक आदमी आराम से बैठा था।
मैंने नाश्ता मँगाया, किताब खोली और
दिमाग़ में सप्ताह भर का ‘पढ़ाई का कार्यक्रम’ बनाने लगा।
इतने में
दो आदमी अंदर आए। एक ने विनम्रता से पूछा कि क्या वह मेरी बेंच पर बैठ सकता है; दूसरा मेरे सामने वाली सीट पर बैठ गया। मैंने सोचा कुछ पल आराम करेंगे
और फिर चले जाएंगे। पर हुआ इसका उल्टा।
उनमें से
एक ज़रा झुककर बोला, “हम पहले कहीं मिले
हैं क्या?”
एक
साधारण-सा ‘नहीं’ जवाब के लिए काफ़ी था, लेकिन
शिष्टाचारवश मैंने याददाश्त को खँगाला—कुछ हाथ नहीं लगा। जवाब देने से पहले ही
दोनों ने एक-दूसरे को ऐसे देखा, मानो कोई रहस्य
सुलझ गया हो।
मेरे
सामने बैठा आदमी पुलिस-इंस्पेक्टर जैसे गम्भीर स्वर में बोला—
“क्या तुम कूऩा नहीं हो, कालन्दीपुर गाँव वाला?”
मुझसे
ज़ोर की हँसी छूट गई—सच के कारण नहीं, बल्कि उस
बेहूदा सवाल की वजह से। दुर्भाग्य से, मेरी हँसी
ने उनकी शंका और भी बढ़ा दी।
“देखा! यही तो सबूत है! यही है कूऩा! सौ फ़ीसदी!” वे विजयी भाव से
बोले।
वे इस बात
पर अड़े रहे कि मैं वही ‘कूऩा’ हूँ, जो घर से
भागा था। मेरी अविश्वासी नज़र भी मानो उनके तर्क को और बल दे रही हो। मैं अगर
साफ़-साफ़ ‘नहीं’ भी कह देता, तो भी वे अपने
फ़ैसले पर अडिग रहते—कहते, “बिल्ली आँख मूँदकर
दूध पी ले, तो क्या दुनिया उसे नहीं देख लेती?” उन्हें तो बस साबित करना था—और तरीका भी उन्हें अच्छी तरह आता था।
दुकानदार
भी 10,000 रुपये का पुरस्कार की ख़बर से लालायित होकर उनके पक्ष में शामिल हो गया।
उसने मुझे बड़े प्रेम से समझाया कि ऐसे में घर लौट जाना चाहिए—“जवान लौंडे यूँ ही
भावुक होकर घर छोड़ देते हैं, पर कुछ ही दिन में
अकल ठिकाने आ जाती है।”
मैंने कहा, “इस कमरे में यदि किसी की कोई गलती हुई है, तो वह सिर्फ़ मेरी है—मुझे आपकी दुकान में चाय पीने हरगिज नहीं आना
चाहिए था।”
उनकी
‘पक्की यक़ीनदारी’ की परीक्षा लेने के लिए मैंने उनसे मेरा पूरा नाम और मेरा कथित
‘पिछला धंधा’ पूछ लिया। नाम तो नहीं बता पाए, पर गर्व
से बोले—
“तू हाई स्कूल में पढ़ता था। तीन साल पहले अपने बाप का पैसा लेकर भाग
गया था!”
मैंने आराम
से कप मेज़ पर रखा और कहा, “आपकी जानकारी के
लिए बता दूँ, मैं एम.ए. कर चुका हूँ और आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा
हूँ—आई.ए.एस. अभ्यर्थी हूँ।”
माहौल में
परिवर्तन तत्काल और जादुई था। ‘आई.ए.एस. अभ्यर्थी’ शब्द जैसे किसी तांत्रिक मंत्र
की तरह था, जो भूत-प्रेत भगा देता है। दोनों के तेवर
ढीले पड़ गए, आँखों की चमक मद्धम, आवाज़ नरम। दुकानदार ने भी तुरंत अपना व्यवहार बदल लिया।
परन्तु उसने आख़िरी दाँव चला—“अगर तू वही लापता लड़का नहीं है, तो पेट
दिखा दे। कूऩा के नाभि के ऊपर निशान था।”
मैंने
अविश्वास की नजर से उसकी ओर देखा।
“मतलब, आपकी नज़र में
दुनिया में सिर्फ़ एक इंसान है जिसके पेट पर कोई निशान हो सकता है? और मुझे यहाँ आपकी दुकान में कपड़े उतारकर साबित करना पड़े कि मैं वही
नहीं हूँ?
ये चाय की दुकान है या किसी इंजीनियरिंग हॉस्टल की रैगिंग? या फिर किसी महाशक्ति देश के एयरपोर्ट का आव्रजन विभाग है जहाँ ‘थर्ड-वर्ल्ड’ यात्रियों की गुप्तांग भी तलाशी तक हो जाती है?”
सन्नाटा
छा गया। बिल्कुल शर्मसार-सा सन्नाटा।
मैंने बिल
चुकाया और निकल आया—दुकानदार ने उल्टा मुझे ज़्यादा पैसे लौटा दिए; शायद पहली बार ग़लती से उसने खुद
का ही घाटा करा दिया!
कमरे में
लौटकर नहाया, नाभि के ऊपर वाले उस तथाकथित
“स्वर्ग-स्पर्श” जन्म-चिह्न को देखा और एक गहरी बात समझ में आई: सम्मान पाने के
लिए आई.ए.एस. बनना ज़रूरी नहीं; कई बार सिर्फ़
आई.ए.एस. का अभ्यर्थी होना ही काफ़ी है।
यह घटना
वर्षों तक मेरी जिंदगी का मजेदार किस्सा बनकर रही। फिर साढ़े तीन दशक बाद, किस्मत ने मेरी पहचान का दूसरा हिस्सा रूस में परोसकर मुझे चौंका
दिया।
*** *** *** *** ***
दूसरी
घटना 2017
में घटी। तब मैं एक कॉन्फ़्रेंस के सिलसिले में मॉस्को गया था। बीच
में मिला एक दिन का अवकाश मुझे शहर की चौड़ी सड़कों और प्याज़नुमा गुम्बदों से आगे
की दुनिया देखने को उकसा रहा था। मेरी एस्कॉर्ट ने तीन घंटे दूर अवस्थित टुला शहर
का सुझाव दिया—ऐतिहासिक शहर, सुंदर चर्च, संग्रहालय और—सबसे अनोखा—वहाँ का मशहूर जिंजरब्रेड।
धार्मिक
पर्यटन तो समझ में आता था—मथुरा में बांके बिहारी, पुरी में
जगन्नाथ—पर जिंजरब्रेड किसी शहर का पर्यटन आकर्षण? क्या
रूसियों का जिंजरब्रेड से वही लगाव है जो हैदराबाद को बिरयानी से या उड़ीसा को
अपने छेना-पोड़ से? पर मैंने मान लिया—भोजन भी सांस्कृतिक
विरासत का हिस्सा हो सकता है।
टूला
तस्वीर-पोस्टकार्ड जैसी खूबसूरती वाला शहर निकला—साफ़-सुथरे चौक, आकर्षक चर्च, और इतना नीला
आसमान कि फोटोशॉप-सा लगे। चर्च भव्य थे, पर भारतीय
मंदिरों जैसी विद्युत-सी आध्यात्मिक अनुभूति नहीं जगा पाए। जिंजरब्रेड में से मुझे
खाने वाला ब्रेड नहीं, बल्कि एक टेराकोटा
रंग का फ़्रिज-मैग्नेट ही पसंद आया।
अंत में
हम समोवार, यानी चाय बनाने का बर्तन वाला संग्रहालय
गए। सजावटी गलियों में रखे ये समोवार कभी ज़ारों के महलों में, तो कभी आम रूसी घरों में चाय उबालने के लिए इस्तेमाल होते थे, और अब ये अपने में इतिहास समेटे खड़े थे। तभी कुछ ऐसा हुआ जिसकी
कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
करीब
साठ-पैंसठ वर्ष के एक रूसी सज्जन ने मुझे देखा, हाँफते-से
उत्साहित हुए, और बाँहें फैलाए मेरी ओर दौड़े—
“राज कपूर! राज कपूर! ऑटोग्राफ, प्लीज़!”
मैं सँभल
पाता,
उससे पहले वह मुझे इतनी ताक़त से गले लगा चुका था कि लगा पसलियाँ चटक
जाएंगी। जैसे सालों से किसी बॉलीवुड सितारे को गले लगाने का सपना संजोए बैठा हो या
कभी रेसलिंग की ट्रेनिंग ली हो। मैं साँस भी ठीक से नहीं ले पा रहा था, यह बताना तो दूर कि राज कपूर तो वर्षों पहले गुजर चुके हैं—और मैं
उनसे लंबा भी हूँ!
किसी तरह
उसने मुझे छोड़ा, और छोड़ा भी तो
इसलिए कि उसे गाना सूझ गया—
“मेरा जूता है जापानी…”
शब्द आधे
गलत,
पर सुर एकदम सही! वह नाचने लगा, मुझे भी
घसीटकर नचाने लगा। कुछ क्षणों के लिए संग्रहालय एक बॉलीवुड फ्लैश मॉब—यानी अचानक
जुटी नाचती-गाती भीड़ में बदल गया। तभी सुरक्षा कर्मी और उसके संबंधी आए और प्यार
से उसे पीछे ले जाने लगे। जाते-जाते वह मुड़कर उदास स्वर में बोला—
“मैंने सिर्फ राज कपूर जी का हस्ताक्षर मांगा था।”
मॉस्को
लौटकर मैंने सोचा—क्या मुझे इस बात से सम्मानित महसूस करना चाहिए कि किसी ने मुझे
राज कपूर समझ लिया? क्या मुझे गर्व
होना चाहिए कि मैं एक महान अभिनेता जैसा दिखता हूँ—या राहत कि उसने शशि कपूर को
नहीं याद किया, वरना मुझसे कहवा देता—“मेरे पास माँ है!”?
और तभी एक
झनझनाती-सी बात दिमाग़ में कौंधी—यह दृश्य बिलकुल उसी कटक वाली दोपहर की
प्रतिध्वनि था!
*** *** *** *** ***
दो
बार—सात समुद्रों और तीन दशकों के फ़ासले पर—अजनबियों ने मुझे पूरे विश्वास के साथ
किसी और के रूप में पहचाना। न तो तर्क, न तथ्य, न परिचय—बस अडिग यक़ीन।
कटक में
दो आदमी जानते थे कि मेरी नाभि के ऊपर एक गोल जन्म-चिह्न है।
रूस में एक आदमी ने दूरी, भाषा, संस्कृति, और समय की सीमाएँ
पार कर मुझमें राज कपूर को देख लिया।
विज्ञान
कहता है—दो असंबंधित व्यक्तियों का हूबहू एक जैसा दिखना लगभग एक ट्रिलियन में एक संभावना
है। एक-अंडे वाले जुड़वाँ भी व्यक्तित्व में भिन्न होते हैं।
फिर भी
साहित्य डोप्पलगैंगर यानी हमशक्लों पर फलता-फूलता है—शेक्सपियर, दोस्तोयेव्स्की, और हमारे बॉलीवुड
के दोहरे किरदार—गोलमाल, राम और
श्याम, सीता और गीता—कहानियाँ इस रहस्य से खेलती हैं कि मानो एक ही चेहरे में दो
जिंदगियाँ छिपी होती हैं।
शायद
ज़िंदगी भी कभी-कभी साहित्य से उधार ले लेती है।
शायद पहचान
कोई संपत्ति नहीं, बल्कि एक
वेशभूषा-सी है—कभी-कभी बिना
रियाज़ कराए ही हमारे कंधों पर डाल दी जाती है।
जहाँ तक
मेरी समझ है: एक बार मैं कूऩा था—एक लापता लड़का। एक बार मैं टूला में राज कपूर
बन गया। और इन दोनों के बीच कहीं—मैं वही हूँ, जो आज तक
नहीं समझ पाया कि दुनिया बार-बार मुझे किसी और के रूप में क्यों पहचान लेती है।
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By
अनन्त नारायण नन्द
भुवनेश्वर, दिनांक 3-11-2025
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Labels: Hindi stories, short story, Translation, travel

2 Comments:
Nice narration n presentation😀
Thanks.
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