अमरूद की तरकारी
अमरूद की तरकारी
सेब की
तरकारी,
खजूर की चटनी और आम का
पकवान—इन सबके बारे में तो सबने सुना है। पर अमरूद की तरकारी? यह तो सचमुच दुनिया से परे की चीज़ होगी। जब मैंने पहली बार इसका नाम
सुना,
तो लगा कोई मेरे साथ मज़ाक कर रहा है। मगर जिसने यह कहानी सुनाई, वह झूठ बोलने वाली औरत नहीं थी—बेहद ईमानदार और प्रतिष्ठित। और यह
कहानी उसने अपनी तारीफ़ में नहीं, बल्कि अपने बचपन
की एक भूल बताने के लिए सुनाई थी—वह भूल, जो बाद
में उसके परिवार की अमर कथा बन गई।
तो आइए, मैं आपको वही सीधी-सादी, बिना
रंग-रोगन की कहानी सुनाता हूँ, जो कोई साठ साल
पहले घटी थी। फिर आप ख़ुद तय कीजिए कि यह जानबूझकर रचा गया हास्य है या दया के
क़ाबिल एक मासूम भूल।
उसका नाम
था सुमा—एक ग़रीब किसान की बेटी, जो सुदूर देहात
में रहती थी। उसने तीसरी कक्षा तक ही पढ़ाई की थी, क्योंकि
वहाँ की प्राथमिक पाठशाला में बस उतना ही प्रबंध था। हँसी की बात है कि उसकी कुछ
सहेलियाँ जानबूझकर फेल हो जाती थीं ताकि उन्हें सरकार से मिलने वाला मुफ़्त दूध
पाउडर और टूटा गेहूँ (बुलगर) मिलता रहे। पर सुमा ने सोचा—अच्छी पढ़ाई की इज़्ज़त
गँवाकर मुफ़्त का खाना क्यों लूँ? बस, स्कूल छोड़ दिया और शादी के दिन गिनने लगी।
उतनी ही
पढ़ाई ने उसे इतना समर्थ बना दिया था कि वह चिट्ठियाँ लिख सकती थी, छोटी कहानियाँ पढ़ लेती थी और जोड़-घटाना भी कर सकती थी। औसत बच्चों
से कुछ ज़्यादा तेज़ थी वह।
अगर सुमा
का ब्याह किसी ग़रीब घर में हुआ होता, तो शायद
वह उस गरीबी के माहौल का पूरा लाभ उठाकर अपनी मौलिकता बनाए रखती, और साथ ही जुगाड़ू भी बन जाती। तब वह खुद एक समझदार, आत्मनिर्भर और हुनरमंद औरत बन जाती। चौदह बरस की उम्र कोई उम्र नहीं
होती—वह तो समझने और सीखने की शुरुआत होती है।
पर किस्मत
को कुछ और ही मंज़ूर था।
उसकी
ख़ूबसूरती की चर्चा सुनकर एक अमीर घराने ने शादी का प्रस्ताव भेजा। सुमा का बाप
दंग रह गया। रिश्ता लाने वाला घटक बताता था कि वर का बाप बीस एकड़ ज़मीन का मालिक
है,
चार जोड़ी बैलों और बैलगाड़ी का स्वामी है, और गाँव के लोगों को अनाज और रुपया सूद पर देता है। उनका घर पक्का तो
नहीं,
मगर टिन की छत वाला था—आग से सुरक्षित, जबकि बाकी
सबके घर फूस के थे, जिन्हें ज़रा-सी
चिंगारी से भी ख़तरा रहता।
सुमा के
बाप ने भगवान को धन्यवाद दिया—बेटी के अच्छे दिन आ गए! पर वह यह भी जानता था कि इस
सौभाग्य की क़ीमत चुकानी पड़ेगी। दहेज वह दे नहीं सकता था, तीज-त्योहार पर उपहार भेज नहीं सकता था, और अब उसे
हमेशा झुककर रहना होगा। उसकी जमा पूँजी बस उसका आत्मसम्मान था, जिसे अब गिरवी रख देना था।
उसने मन
ही मन ठान लिया—“लड़कियों का घर तो आख़िर पराया ही होता है।” और उसने रिश्ता
स्वीकार कर लिया।
लड़के का
नाम था डमरू, उपनाम दामु।
शादी से
पहले कई दिनों तक सुमा के पिता, माँ और बुआ
बारी-बारी से उसे समझाते रहे—
“कभी पलटकर जवाब मत देना,” बुआ
बोलीं।
“जब तक बुलाएँ नहीं, खाना मत खाना।
रसोई में चौबीसों घंटे रहोगी, पर इसका यह मतलब
नहीं कि जब भूख लगे, खुद से खा लोगी,” माँ ने जोड़ा।
“नहाने के बाद वह पानी लेना जिसमें किसी बड़े-बुज़ुर्ग ने अपना अँगूठा
डुबोया हो, और उसकी एक घूँट पीना—वह पवित्र होता है,” पिता ने कहा। फिर आगे जोड़ा, “सबसे पहले
बिस्तर छोड़ना, सबसे बाद में सोना, सिर ढँके रखना और सास-ससुर के सामने कम दिखना।”
बुआ ने
जैसे परीक्षा ली—
“नहाने के बाद क्या करोगी, सुमा?”
“पैर धोए पानी की एक चुस्की लूँगी,” सुमा ने
धीरे से कहा।
सब
संतुष्ट हुए—लड़की तैयार थी।
जब तारीख़
नज़दीक आई, तो सुमा के पिता ने लड़के के पिता से कहा, “मैं बड़ी बारात की मेजबानी नहीं कर सकता।”
लड़के के
पिता बोले, “ठीक है। मुझे, लड़के को, पंडितजी और साथ
में नाई को बुला लो। शादी के बाद दामाद-बेटी को पालकी में भेज देना।”
और शादी
ऐसे ही सादे ढंग से संपन्न हुई—न बैंड, न बाजा; बस शंख की आवाज़ और कुछ पड़ोसियों की मौजूदगी। सबके मन में हल्की-सी
थरथराती खुशी थी। भोजन में था—चावल, दाल, साग और अंबाडा की चटनी—जिसका स्वाद नाई ने बुढ़ापे तक याद रखा।
सप्ताहभर
सुमा ससुराल में रही, रीति-रिवाज सीखती
रही। फिर,
क्योंकि वह अभी पत्नी की भूमिका निभाने के लिए शारीरिक रूप से परिपक्व
नहीं थी,
उसे मायके भेज दिया गया।
एक साल
बाद जब वह तैयार हुई, तो उसे फिर से ससुराल
भेजा गया। इस बार उसने सारे संस्कार और हिदायतें जेब में लेकर, एक परिपूर्ण बहू बनने की ठान के साथ ससुराल में कदम रखा।
उसने सब
कुछ याद रखा—चुप रहना, आज्ञाकारी बनना, सेवा करना। बस एक चीज़ वह सीख नहीं पाई—वह क्या पकाए कि सबकी पसंद
बने।
अब रसोई
की पूरी ज़िम्मेदारी उसी की थी। सुबह का नाश्ता, दोपहर का
खाना,
चाय, शाम का नाश्ता, रात का भोजन—हर चीज़ समय पर, बिना गलती
के। क्या करेगी और कैसे? पंद्रह साल की एक
लड़की के पास कितना दिमाग और कितनी ताक़त होगी!
चूल्हा
मिट्टी का था—न बिजली, न गैस। लकड़ी की
टेढ़ी-मेढ़ी, काँटेदार टहनियाँ जलानी पड़ती थीं; समय-समय पर फूँक मारकर आग को भड़काना पड़ता था। वह उस अँधेरे, बिना बिजली वाले रसोईघर में बस आग और धुएँ के बीच दिन काटती थी।
बाहर जाने
की मनाही थी—यहाँ तक कि सब्जियों की क्यारी तक भी नहीं। कहा गया, “बहू जितनी सुंदर है, उतना ही नज़र लगने
का डर है।” इसलिए उसे जो भी सब्ज़ियाँ मिलतीं, उन्हीं से
काम चलाना पड़ता।
हर दिन
कुछ न कुछ बिगड़ता। कभी नमक ज़्यादा, कभी
हल्दी। कभी मिर्च कम, तो कभी सब्ज़ी
अधपकी। हर दिन एक नई गलती, और हर दिन झिड़की।
“बहू डाँट खाने से ही सीखती है,” बड़े
कहते। बच्चे भी चिढ़ाते, रोकने वाला कोई
नहीं।
लेकिन
सुमा चुप रही—उसकी खामोशी ही उसका कवच थी।
एक सुबह, सास ने टोकरी में कुछ सब्ज़ियाँ लाकर रखीं—नेनुआ, जिमीकंद की डंठल, कुंदरू और...
अमरूद। अमरूद देखकर सुमा सोच में पड़ गई।
“जिमीकंद की डंठल उबालकर या भूनकर बनेगी, कुंदरू तो
तला जाता है... लेकिन अमरूद?” वह बुदबुदाई।
“शायद सास मुझे परखना चाहती हैं। उन्होंने कहा था दाल मत बनाना, तो चावल के लिए कोई झोलदार तरकारी तो चाहिए। हाँ, अमरूद की तरकारी ही बनाऊँगी।”
उसने
अमरूद को आलू की तरह काटा, हल्दी और नमक
डालकर उबाला, फिर मिर्च और राई का तड़का लगाया। खुशबू
फैल गई। उसे लगा—इस बार सब खुश होंगे।
उसने
दोपहर का खाना सबको परोसा—चावल, जिमीकंद की डंठल
और कुंदरू मिलाकर बनी तली हुई सब्ज़ी, और अमरूद
की तरकारी।
पहला
निवाला मुँह में जाते ही घर हँसी से गूँज उठा—तेज़, बेहिसाब, जैसे सब किसी इशारे पर ही एक साथ हँस पड़े हों। सुमा सकपका गई—क्या
हुआ?
सास ने
ठंडी आवाज़ में बेटे से कहा, “देख दामु, अब मैं तंग आ चुकी हूँ। आज से तू अपनी बीवी को रसोई सिखा।”
डमरू बोला, “माँ, मुझे भी बनाना
नहीं आता। अगर कहो तो इसे मायके भेज दूँ, वहीं सीख
ले।”
और यह तय
हो गया।
अगली सुबह
डमरू साइकिल पर बैठा, पीछे बीवी को
बिठाया,
पूरे रास्ते पैडल मारता हुआ सुमा को मायके छोड़ आया। ससुराल में उसने
पानी तक नहीं पिया—जैसे अपनी नाराज़गी का ऐलान करना चाहता हो।
सुमा रोती
हुई बोली,
“मैंने अमरूद की तरकारी बना दी। माँ, तुमने कभी बताया क्यों नहीं कि अमरूद से तरकारी नहीं बनती?”
घर में
सन्नाटा छा गया। सात दिन बाद, पिता उसे फिर
ससुराल ले गए, हाथ जोड़कर माफ़ी माँगी—
“अब यह अमरूद की तरकारी कभी नहीं बनाएगी,” उन्होंने
कहा। “इसकी माँ और बुआ ने इसे फिर से रसोई सिखा दी है।”
ससुराल वालों
ने माफ़ कर दिया। सुमा फिर अपनी रसोई में लौट आई।
लेकिन इस
बार उसने एक और बात सीख ली: जब दिल दुखे और कोई सुनने वाला न हो, तो रो लो। आँसू सबसे सच्चा मरहम होते हैं।
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By
अनन्त नारायण नन्द
बालासोर, दिनांक - 13/11/2025
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Labels: Hindi stories, short story

2 Comments:
बहुत सुंदर प्राचीन ग्रामीण परिवेश के सामाजिक आचरण व्यवहार और भोजन व्यवस्था को प्रकट करता लेख सर
ब्लॉग में आपका स्वागत। कहानी पर आपके विचार साझा करने हेतु अशेष धन्यवाद।🙏
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