एक हाउसिंग सोसाइटी का जन्म
एक
हाउसिंग सोसाइटी का जन्म
कभी एक
ऐसा परिवार था जिसकी गणितीय सटीकता देखकर कोई सांख्यिकी-शास्त्री भी दंग रह जाए।
दो भाई एक ही छत के नीचे अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ रहते थे—हर जोड़े के एक
बेटा और एक बेटी थी। इस तरह घर में कुल दो पुरुष, दो
स्त्रियाँ, दो लड़के और दो लड़कियाँ थीं—एकदम
संतुलित अंकगणित।
यह संतुलन
कोई संयोग नहीं था। यह उनके दिवंगत पिता की अंतिम सीख का विस्तार था—“साथ रहना, चाहे कुछ भी हो।” और सचमुच, वे साथ
रहे—एक संयुक्त परिवार बनकर, जो दूध, सब्ज़ियाँ, मिठाई, यहाँ तक कि खाने-पीने का भी हिसाब-किताब इतनी सख्ती से रखता था कि
किसी सरकारी योजनाकार को भी हीनभावना
आ जाए। वे अमीर नहीं थे, पर इतना
अवश्य था कि परिवार की ज़रूरतें पूरी हो जातीं और चेहरों पर मुस्कान बनी रहती।
उनकी छोटी-सी किराने की दुकान न आर्थिक उछाल में झूमती, न मंदी में डगमगाती।
दोनों
परिवार मांसाहारी थे, पर दोनों पत्नियों
ने शादी के बाद मटन और चिकन से परहेज़ का ऐलान कर दिया था—शायद नवविवाहिता श्रद्धा
के आवेग में उन्होंने ऐसा किया हो। वह संकल्प मुश्किल से दो साल चला। फिर पतियों
ने,
जो मांस पकाने से ऊब चुके थे, नम्रता से
आग्रह किया कि वे पुरानी आदतों पर लौट आएँ। अनुरोध सुनते ही पत्नियाँ इस कदर
प्रसन्न हो उठीं—मानो वे बस इसी निमंत्रण की प्रतीक्षा में हों।
और इस तरह
स्वाद का यह छोटा-सा मतभेद भी सहजता से सुलझ गया—मानो संयुक्त परिवार की रसोई में
पहली बार वास्तविक सामंजस्य की सुगंध उठी हो।
बच्चे अभी
काफ़ी छोटे थे—सबसे छोटी बेटी तो सिर्फ़ पाँच साल की। उन्हें बढ़ते देख कभी-कभी
लगता मानो अच्छे व्यवहार के नियम उन्होंने जन्म लेने से पहले ही सीख लिए हों, क्योंकि उनमें अनुशासन तो जैसे पहले से
ही इंस्टॉल था। सबसे बड़ी
बेटी,
पंद्रह वर्ष की, आत्मविश्वासी और
सुसंस्कृत युवती के रूप में खिल रही थी। वह एक सर्वगुणसंपन्न लड़की के रूप में
पहचान बना रही थी, विशेषकर खाना
बनाने और पेंटिंग में उसकी प्रतिभा देखते ही बनती थी।
सब कुछ
संतुलित गति से चल रहा था—पर थोड़ा गहराई से देखने पर पता चलता कि वहाँ भी कुछ ऐसे
बीज बोए जा चुके थे जो आगे चलकर भीषण बवाल खड़ा कर सकते थे।
बड़े भाई सुशांत स्वभाव से अलग
हटकर सोचने वाले थे। वे पुरानी परंपराओं पर सवाल उठाते, अंधविश्वासों को चुनौती देते, और
कर्मकांड से अधिक तर्क को महत्व देते। छोटे भाई सुमंत अधिक शांत और
समझौतापरक थे। घरेलू शांति का श्रेय प्रायः बीनू, सुशांत की धर्मपरायण पत्नी, को दिया
जाता था—जो अपने पति के तर्कवादी तेवर को अपनी भक्ति से संतुलित कर देती थी; और सहज शब्दों में कहें तो, कई बार
उसे निरस्त भी कर देती थी।
फिर भी, सुशांत दो अटल सिद्धांतों पर अडिग थे—(1) परिवार में वही देवी-देवता
पूजे जाएँगे जिन्हें पिता पूजते थे—न कोई नया बाबा, न कोई
स्वघोषित गुरुजी। (2) पिता की पैतृक ज़मीन किसी बिल्डर या डेवलपर को कभी नहीं बेची
जाएगी।
सुशांत को
लगता था कि एक विचित्र सिलसिला चल पड़ा है—पहले नए देवताओं का उदय, फिर संयुक्त परिवारों का विघटन, और इन
दोनों के बीच कहीं बुलडोज़र का आगमन—जो पुरानी हवेलियों को तोड़कर माच-बॉक्स जैसे
फ्लैट खड़े कर रहा था। जैसा कि आगे हुआ, उनके
दोनों प्रिय सिद्धांत जल्द ही परीक्षा में पड़ने वाले थे—और डगमगा भी गए।
जब सुशांत
ने ये नियम बनाए थे, तब सबने सहमति में
सिर हिलाया था। वे सिद्धांत इतने निष्कपट लगे जैसे बुरी नज़र से बचाने को कोई
दरवाज़े पर नींबू-मिर्च या सफ़ेद पेठा टाँग दे।
परंतु कुछ
ही समय बाद, मीनू, यानी
सुमंत की पत्नी, सुशांत के उपदेशों की अनदेखी कर घर में
एक नया आध्यात्मिक स्वाद लेकर आई। इसकी शुरुआत उन्होंने श्री श्री गुरुजी बाबाजी
का कैलेंडर दीवार पर टाँगकर की—वे ही बाबाजी, जिनकी
तस्वीरें उन दिनों पड़ोसियों के ड्रॉइंगरूम और पूजा-कक्षों की दीवारों पर
जल्दी-जल्दी जगह बनाने लगी थीं।
मीनू के
पिता श्री श्री गुरुजी बाबाजी के कट्टर अनुयायी थे—और गुरुजी ऐसा प्रख्यात शख्स थे जिनका
सामाजिक-आध्यात्मिक साम्राज्य नेटवर्किंग और सरकारी ज़मीन पर “कब्ज़ा-योग” दोनों
के बल पर तेज़ी से फैल रहा था। मीनू का दावा था कि उसके पिता का दमा उसी क्षण गायब
हो गया जब उन्हें बाबाजी का मंत्र और “जादुई जल” की शीशी मिली। स्वाभाविक था कि वह
चाहती थी उसका पति भी उसी दिव्य मार्ग पर चले—ताकि परिवार और व्यापार, दोनों, उन्नति करें।
सुमंत
हिचकिचाया। “मैं बड़े भैया की अनुमति के वग़ैर किसी का शिष्य
नहीं बन सकता,” उसने कहा।
तब मीनू
सीधे सुशांत के पास पहुँची। वह जानती थी, सुशांत
उसे “छोटी बहू” कहकर पुकारते और स्नेह करते हैं; शायद उसकी
विनती उनका मन पिघला दे। उसने आँसुओं की नमी मिलाकर अपने पिता के चमत्कारिक उपचार
की कथा सुनाई।
सुशांत
मुस्कराए। “देखो, छोटी बहू,” उन्होंने प्रेम से कहा, “हमारे
पिताजी की कृपा से हमारे परिवार में किसी को दमा की शिकायत नहीं है। इसलिए गुरुजी
बाबाजी के लिए यहाँ कोई काम नहीं।”
कुछ दिन
बाद सुमंत नए प्रमाण लेकर आया—किसी भक्त ने लॉटरी जीती, किसी को निलंबन के बाद नौकरी वापस मिली। सुशांत हँस पड़े—“हम न तो
जुआरी हैं, न सरकारी मुलाज़िम। हम तो किराने की
दुकान चलाते हैं। अपने गुरुजी से कहो, वे उन्हीं
पर कृपा बरसाएँ जो लॉटरी टिकट खरीदते हैं या जिन पर विभागीय जाँच चल रही है।”
कितनी भी
कोशिश की गई, बाबाजी घर की चौखट पार न कर सके।
फिर आया
एक नया प्रलोभन—बिल्डर। उसने घर की औरतों से कहा कि पड़ोसी ने अपनी ज़मीन बेच दी
है और बदले में दो फ्लैट पा रहा है। “सोचिए,” वह बोला, “अपना अलग किचन, अपनी बालकनी—अपना
निजी संसार!” यह विचार आग की तरह फैल गया।
सुशांत ने
जब ये फुसफुसाहटें सुनीं, तो वे अडिग रहे।
“जब आठ लोगों के लिए छह कमरे पर्याप्त हैं तो दो घरों की क्या ज़रूरत?” उन्होंने तर्क दिया। “देखो, एक घर
सँभालते-सँभालते ही दो-दो स्त्रियाँ थक जाती हैं—दो घर हों तो क्या हाल होगा!”
आख़िर
बिल्डर स्वयं आया, मगर सुशांत ने उसे
दरवाज़े से ही लौटा दिया। माहौल बोझिल हो गया। अब सबको लगने लगा कि परिवार की
तरक़्क़ी में सबसे बड़ा रोड़ा यही “बड़े भैया” हैं।
कुछ ही
समय बाद,
एक और आगंतुक आया—जो स्वयं को गुरुजी बाबाजी का वरिष्ठ शिष्य और कई
ताकतवर नेताओं का “मुख्य ज्योतिषाचार्य” बता रहा था। उसने धीमे और गंभीर स्वर में
कहा—
“आपके घर में शांति नहीं है, और यह हाल
ही में शुरू हुआ संकट है। एक अदृश्य दुष्ट शक्ति इस घर पर रेंग रही है। वह बेहद
खतरनाक है—पहले कलह लाती है, फिर आर्थिक हानि, और अंततः बीमारी। पर हमारे गुरुजी बाबाजी इसे रोक सकते हैं।”
सुशांत ने
उपहास किया तो वह बोला—“गुरुजी क्या सचमुच माइग्रेन जैसी तकलीफ़ भी ठीक कर सकते
हैं।” विडंबना यह कि सुशांत को सचमुच कभी-कभी माइग्रेन का दौरा पड़ता था।
शिष्टाचारवश—या शायद जिज्ञासा से—उन्होंने उस “जादुई जल” की एक छोटी शीशी सँभाल
ली।
एक हफ़्ते
बाद वह व्यक्ति फिर आया और सुशांत से पूछा—
“कुछ असर हुआ है क्या?” सुशांत ने
सकारात्मक संकेत दिया, ताकि वह सुनकर चला
जाए और बात वहीं समाप्त हो जाए।
“तो फिर,” वह उत्साहित होकर
बोला,
“गुरुजी बाबाजी को अपना गुरु मान लीजिए। उनका
दिव्य आभामंडल सब रोग मिटा देगा—और फिर आप सदा सुखी रहेंगे!”
इस बार
सुशांत भड़क उठे—“तुम लोग हमारे परिवार को अपने पंथ में फँसाना चाहते हो। यह चाल
नहीं चलेगी!”
पर
जाते-जाते वह व्यक्ति बम गिरा गया—
“आपके छोटे भाई सुमंत तो पहले ही गुरुजी बाबाजी के शिष्य बन चुके हैं।
वे गुरुजी की आध्यात्मिक संस्था में तरक्की करते-करते दो-तीन पायदान ऊपर पहुँच गए
हैं—और नए भक्तों की चढ़ावे से मिलने वाला भत्ता भी पा रहे हैं!”
यह सुनते
ही घर में भूचाल आ गया। सुमंत कब व्यापार से फुरसत निकालकर शिष्यत्व और कमाई—दोनों
साधने लगा? पूछने पर उसने अपराध-भाव से सच्चाई
स्वीकार की। तनाव बढ़ता गया।
अगले ही
दिन बिल्डर फिर आया—उसी प्रस्ताव के साथ: दो फ्लैट, बिना
पूँजी लगाए। संघर्ष से थके और दूसरों की साज़िशों से ऊबे सुशांत ने इस बार हार मान
ली। पैतृक ज़मीन सौंप दी गई। बिल्डर ने परिवार को अपने खर्च पर किराए के मकान में
रखा,
पुश्तैनी घर को बुलडोज़र से धराशायी किया और अठारह महीनों में निर्माण
पूरा कर बीनू-मीनू को दो चमचमाते फ्लैटों की चाबियाँ थमा दीं।
कुछ ही
महीनों में एक हैरान-परेशान कर देने वाली सच्चाई सामने आई—कहा जाने लगा कि वही
“वरिष्ठ शिष्य” ज्योतिषी, जिसने भाइयों को
राज़ी कराया था, मेहनताने में एक फ्लैट ले गया। असल में
वह मीनू के पिता का ही एजेंट था—पर यह भेद फिलहाल परिवार के भीतर दफ़्न रहा।
संयुक्त
परिवार अब भी “साथ” था—पर अब दीवारों से बँटा हुआ। एक रसोई की जगह दो रसोइयाँ जलने
लगीं। खाने के लिए वे भले ही एक साथ बैठते रहे, पर यह
व्यवस्था कितने दिन टिक पाएगी—इस पर संदेह था। बिल्डर ने करोड़ों कमाए, शिष्य को फ्लैट मिला, और गुरुजी बाबाजी
को मिले दो नए भक्त—और मोटा दान।
जब परिवार
नए फ्लैटों में बसने लगा, बीनू और मीनू ने
सामान सँभाला, जबकि सुशांत दो पवित्र वस्तुओं के
पुनर्स्थापन में लगे थे—परिवार के आराध्य देवता और पिताजी की तस्वीर। दोनों को
अपने फ्लैट में लाकर उन्होंने स्थान दिया—भगवान को बीनू की देखरेख में और पिताजी
की तस्वीर को अपने शयनकक्ष की दीवार पर।
सुमंत ने
इस बीच अपने नए “पूजाघर” में श्री श्री
गुरुजी बाबाजी का कीमती तैलचित्र
स्थापित किया। विधिवत पूजन और आरती हुई, और बाबाजी
ने वीडियो संदेश भेजकर समारोह को “आशीष” दिया। वही संदेश सोशल मीडिया पर अपलोड
हुआ—जहाँ लाखों व्यूज़ मिले।
मीनू ने
कैप्शन में लिखा—
“देखिए, हमारे पूज्य
गुरुजी के चित्र से निकली पवित्र विभूति। कितना सौभाग्य!”
सौभाग्यवश, उसी दिन सुशांत बीमार पड़ गए—और उन्हें श्री श्री गुरुजी बाबाजी के
प्रतिष्ठान समारोह में शामिल होने से छुटकारा मिल गया। बिस्तर में पड़े-पड़े
उन्होंने आने वाले समय में कैसी दशा होगी, कोशिश
करके भी तसव्वुर करने में असमर्थ थे।
कुछ
सप्ताह बाद, अपने नए आलीशान ड्रॉइंगरूम में बैठे
सुशांत व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ बोले—“तो बाबाजी
ने सचमुच एक चमत्कार किया—संयुक्त परिवार को हाउसिंग सोसाइटी में बदल दिया।”
अब वे सब
मिलकर सोसाइटी के नाम पर विचार कर रहे थे—इच्छा यह थी कि नाम की शुरुआत गुरुजी बाबाजी से हो।
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By
अनन्त नारायण नन्द
भुवनेश्वर, दिनांक - 2/11/2025
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Labels: Hindi stories

4 Comments:
नमस्कार सर। कहानी बहुत ही रोचक है। पढ़ कर बहुत आनंद आया। आपकी लेखन शेली बहुत ही सरल, संतुलित, ज्ञान वर्धक और सार गर्भित है। आज के खोखले वैज्ञानिक युग जिससे सुख चैन एक सपना बनता जा रहा है का हमारे समय के साथ तुलनात्मक विश्लेषण सच्चा चित्रण है।
आगामी कहानी के इंतजार में।
शुक्रिया शर्मा जी। यह जानकार कि आपको कहानी अच्छी लगी, मुझे संतुष्टि हो रही है। और खुशी हुई कि आप आगामी कहानी के इंतजार में हैं। मैं प्रयासरत हूं और एक नई कहानी बहुत जल्द ही ब्लॉग में शामिल होगी। पुनः धन्यवाद।
वर्तमान सामाजिक, सामयिक परिदृश्य को विश्लेषित करता बहुत सुन्दर लेख सर
प्रोत्साहन हेतु धन्यवाद।
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