भोला और गौरैयाँ
भोला और गौरैयाँ
हम, जो पचास और साठ के दशक में जन्मे, अपनी
आँखों से बहुत कुछ बदलते हुए देख चुके हैं। उन तमाम परिवर्तनों में दो दृश्य सबसे
अलग और गहरे याद रहते हैं—अस्सी और नब्बे के दशक में गरीबी का अचानक घट जाना, और आँगन-आँगन की साथी वह छोटी चिड़िया, जिसे
हिन्दी भाषी घराने गौरैया कहते हैं, का चुपचाप ग़ायब
हो जाना। अर्थशास्त्री पहले प्रसंग के पीछे अपनी-अपनी दलीलें देंगे, मगर हम जैसे साधारण लोगों के लिए ये दोनों स्मृतियाँ एक-दूसरे से
गुँथी हुई हैं—जैसे-जैसे गरीबी घटती गई, वैसे-वैसे
गौरैया भी लुप्त होती चली गई।
बाद में
लोगों ने तीसरा कारण भी जोड़ा। कहा गया कि मिट्टी और फूस के कच्चे घरों की जगह जब
ईंट-सीमेंट के पक्के मकान बनने लगे, तो
गौरैयों का बसेरा उजड़ गया। किसी ने यह भी राय दी कि मोबाइल टावरों ने आख़िरी चोट
की। जो भी कारण रहा हो, हमने तो अपनी
आँखों से यह अजीब संयोग देखा—समृद्धि चढ़ान पर थी और गौरैया ढलान पर।
सन 1962
में प्रकाशित मशहूर किताब “साइलेंट स्प्रिंग” पढ़ चुके लोग शायद और भी बड़े
तर्क जोड़ें, पर मेरे पास तो बस एक छोटी-सी कहानी है।
मेरा
दोस्त भोला अपनी मनमानी के लिए मशहूर था। पिता की सजाएँ भी उस नटखट को सुधार नहीं
सकीं,
क्योंकि वह हमेशा वही करता था जिस पर उसे विश्वास था—बल्कि कहिए, जिसमें उसे मज़ा आता था। एक बार उसके पिता ने उसे एक आसान काम सौंपा:
धूप में सुखाने के लिए फैले धान की रखवाली करना।
बरसात का
मौसम था। बीच-बीच में जब कुछ दिन बरसात नहीं होती, तो घर-घर
में लोग महीनों से रखे हुए, उबाले गए धान को
पुआल की चटाइयों पर फैलाकर सुखाते थे। यही धान बाद में घर के बने एक जुगाड़ू यंत्र, जिसे ढेंकी कहते हैं, से कूटा जाता था।
ढेंकी एक
देसी जुगाड़ थी—साधारण-सी मगर असरदार उत्तोलक (लीवर)। यह करीब छह फ़ुट लंबा लकड़ी का कुन्दा होता, जिसके एक सिरे पर जड़ी रहती थी लगभग ढाई फ़ुट ऊँची लोहे से मढ़ी खड़ी
लकड़ी। दोनों मिलकर अंग्रेज़ी अंक “7” का आकार
बना देते थे। दूसरे सिरे से लगभग एक फ़ुट पहले, एक
क्षैतिज डंडा घुसाकर क्रॉस की शक्ल दी जाती, जिसके
सहारे ढेंकी ज़मीन से एक फ़ुट ऊपर, दो टेकों
पर टिकाई जाती।
जब कोई
औरत या आदमी पीछे के सपाट सिरे पर पैर रखकर दबाता, तो सामने
का सिरा ऊपर उठता और जैसे ही दबाव हटता, लोहे का
मुँह धान से भरे गड्ढे पर धप्प से गिरता। यह क्रिया सैकड़ों बार दोहराई जाती और
करीब दो घंटे की मेहनत के बाद आठ-दस किलो चावल निकल आते। फिर औरतें उन्हें फटकनी
और छलनी से साफ़ करतीं।
उस दिन
भोला का काम था बस यह देखना कि कौए, गौरैयाँ
और झुंड में आने वाली सात बहनों का धान की चटाई पर मुँह न लगे।
यहाँ, भले ही मैं विषयांतर कर रहा हूँ, मुझे उस
चिड़िया के बारे में कहना ही पड़ेगा जिसे “सात बहनें” कहा जाता है। अंग्रेज़ी ने
इनके साथ भाषाई अन्याय किया है। पहले इन्हें “बेब्लर्स” कह दिया
गया—मानो उनकी लगातार चहचहाहट सिर्फ़ शोर हो, जो
वातावरण को बिगाड़ती है। बाद में इन्हें “सेवन सिस्टर्स” कहा गया, पर यह भी कोई न्याय नहीं था। यह नाम भी बस उनके शोरगुल वाले साथ को ही
रेखांकित करता है—मानो सात सगी बहनें इकट्ठा होकर कोलाहल मचा रही हों। जबकि सच यह
है कि वे न तो अशिष्ट हैं और न ही कर्कश; वे तो
मोहक चिड़ियाँ हैं, जिन्होंने मानो
साथ जीने-मरने की क़सम खा ली हो। असली ख़ुशी तो इन्हीं से सीखनी चाहिए!
रचनात्मक
अवज्ञा में यक़ीन रखने वाले भोला की सोच ही कुछ अलग थी। पिता के आदेश का पालन करते
हुए पहरा देने के बजाय वह तालाब की ओर निकल पड़ा और पानी में डूबे पड़े कुमुदिनी
के पके हुए फल तोड़ने लगा। इन फलों का रूप किसी ड्रैगन फ्रूट-सा लगता था। उन्हीं
से उसे राई जैसे छोटे-छोटे बीज निकालने थे, जिन्हें
बाद में धूप में सुखाकर और गरम रेत पर भूनकर बड़ा लज़ीज़ नाश्ता बनाया जाता—ऐसा
नाश्ता कि उसके आगे पोहा और मखाना भी फीके पड़ जाएँ। भोला को पूरा यक़ीन था कि ऐसा साहसी कारनामा देखकर
पिता उसकी पीठ थपथपाएँगे—चाहे इस दौरान उसने उनके आदेश की अवहेलना ही क्यों न की
हो!
करीब
साढ़े ग्यारह बजे पिता धान उलटने आए ताकि नीचे की परत भी सूख सके। उन्होंने क्या
देखा?
कौए, कांव-कांव करते
हुए दावत उड़ा रहे थे।
गौरैया, बीसियों की तादाद
में, धीमे स्वर में
चहचहा रही थीं।
सात बहनें, जिनकी
आवाज़ कौओं जितनी ही ऊँची थी।
पूरा
माहौल शोर-शराबे और उल्लास से भर गया था।
भोला के
पिता ने तो कौए-गौरैया और सात बहनों को फटकार कर उड़ा दिया, मगर उनके मन में अपने कामचोर लौंडे के लिए दंड पहले ही ठन चुका था।
उनके लिए धान सिर्फ़ अनाज नहीं था, बल्कि खुद
लक्ष्मी जी का स्वरूप था—अन्न, जिसे मिट्टी में
बिखर जाने देना घोर अपमान माना जाता था। गाँव की परंपरा में अन्न व्यर्थ करना पाप
समझा जाता था; और जब वही बेटा रखवाली के बजाय मौज-मस्ती
करता मिला, तो पिता के सीने में आग लगना स्वाभाविक
ही था।
इसलिए
उन्होंने भोला को दण्डित किया—डंडे से नहीं, बल्कि एक
और कठोर आदेश से। भोला को धूप में बिठा दिया गया और कहा गया कि ज़मीन पर गिरे हर
एक दाने को वह हाथ से बीनकर उठाए। आगे घंटों की थकाऊ मेहनत, बिना छाँव, बिना विश्राम। अगर
यह दण्ड नहीं था, तो फिर क्या था?
उसने दाने
बीनने का काम शुरू ही किया था कि कुछ अनोखा घटा। गौरैयाँ लौट आईं—मानो भोला की
दैवी सहचरियाँ बनकर। चालाक कौओं के विपरीत, उन्होंने
ज़रा भी भय नहीं दिखाया। वे उसके इर्द-गिर्द फुदक-फुदक कर घूमतीं और बड़ी चपलता व
उल्लास से दाने चुगने लगीं। उधर सात बहनें कहीं दूर, किसी और
ठिकाने पर अपनी दावत रचा रही थीं।
भोला ने
उनसे सौदा किया—
“तुम मेरी सखियाँ हो न, चिड़ियों!
तो मेरा हक़ मानोगी। चटाई पर रखा धान मेरा है—उसे मत छुओ। बाहर जो बिखरा है, सब तुम्हारा। साफ़ करने में मेरी मदद करो, हम दोनों का फ़ायदा होगा।”
और सचमुच, गौरैयों ने यह वादा निभाया। उन्होंने केवल ज़मीन पर बिखरे दाने चुगे
और चटाई पर रखा धान अछूता छोड़ दिया।
जब पिता
लौटे तो दंग रह गए। गौरैयाँ, जो आमतौर पर चंचल
और डरपोक होती हैं, भोला के साथ निडर
होकर ऐसे काम कर रही थीं मानो उसके मित्र हों।
धरती पर
बिखरा धान साफ़ हो चुका था। दाने व्यर्थ नहीं गए थे—गौरैयों ने उन्हें उपयोग में
ला दिया था। और इस तरह लक्ष्मी जी का अपमान नहीं हुआ।
पिता ने
भोला को माफ़ कर दिया। इसलिए नहीं कि उसने दाने बीन लिए, बल्कि इसलिए कि उन्होंने देखा कि दण्ड कैसे साझेदारी में बदल
गया—मनमौजी बेटे और नन्हीं गौरैयों की दोस्ती में। इस दोस्ती में उन्हें दैवी कृपा
की झलक मिली।
उपसंहार
वह सत्तर का
दशक था। आज न गौरैया हैं, न गरीबी उसी रूप
में। कारण गिनाने और सिद्धांत बुनने के लिए लोग तैयार मिलेंगे। मगर मेरी स्मृति
में वह दिन अब भी जीवित है—एक मनमौजी लड़का दण्डित हुआ, गौरैयों से उसने सौदा किया, और एक
पिता ने समझा कि कभी-कभी दण्ड स्वयं दोस्ती, आस्था और
मितव्ययिता का पाठ बन जाता है।
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By
अनन्त नारायण नन्द
भुवनेश्वर
दिनांक - 26-09-2025
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Labels: Hindi stories, short story
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