भीमा: गणित वाला डाकू
भीमा:
गणित वाला डाकू
लगभग हर
समाज में एक रॉबिन हुड जैसे किरदार की कहानियाँ मिलती हैं—हर पीढ़ी उसे थोड़ा
सँवारती है और आगे बढ़ाती है। ऐसा किरदार अमीरों के लिए सख़्त लेकिन ग़रीबों के
लिए दरियादिल होता है—अमीरों से लूटकर ग़रीबों को राहत पहुँचाता है।
मेरे
इलाके़ में भी ऐसी ही एक कथा है: भीमा।
उसकी कहानियाँ आज भी मुँहज़बानी चलती हैं। उनमें से एक कथा मैं यहाँ सुना रहा हूँ, जैसा कि मैंने उसे एक सीधे लाभान्वित व्यक्ति से सुना था।
वह ग़रीब
आदमी बाबाजी कहलाता था। दस साल पहले उसने साहूकार से पचास रुपए क़र्ज़ लिया था और
आधा एकड़ ज़मीन गिरवी रख दी थी। शर्त सीधी लेकिन बेरहम थी: जब तक बाबाजी हर साल
पाँच रुपए ब्याज देगा—यानी सालाना दस फ़ीसदी दर से—तभी उसे अपनी ज़मीन जोतने की
इजाज़त मिलेगी।
लेकिन
साहूकार का अपना ही अजीब गणित था। यह उस महान भारतीय खोज—‘शून्य’—जैसा नहीं था
जिसने मानवता के ज्ञान की सीमाएँ बढ़ा दी थीं। उसका गणित तो बस अपने धंधे को मोटा
करने और पकड़ मज़बूत करने का था। वह कहा करता:
“तुमने पचास रुपए लिए। ब्याज हुआ पाँच रुपए। तुमने मुझे पाँच रुपए
लौटाए?
और मैंने पाँच रुपये लिए । अच्छा। तो अब कुल
बाक़ी हुआ पचास + पाँच + पाँच = सत्तर। अगले साल फिर से हिसाब होगा।”
इस तरह
बाबाजी जो भी भुगतान करता—चाहे ब्याज हो या मूलधन का कुछ हिस्सा—सब उल्टे बक़ाया
में जोड़ दिया जाता। दस साल में बाबाजी सौ रुपए चुका चुका था, फिर भी साहूकार अब एक सौ पचास रुपए और माँग रहा था।
बाबाजी इस
अंतहीन जाल से निकलना चाहता था। उसने सोचा कि अपना बड़ा पीतल का बर्तन बेच देगा, जो गाय को खिलाने के लिए इस्तेमाल होता था। एक रविवार को वह अठारह
किलोमीटर दूर साप्ताहिक हाट में पैदल जाकर पहुँचा, पक्का
इरादा किए कि वह इसे डेढ़ सौ रुपए से कम में नहीं बेचेगा।
उस दिन
पूर्णिमा की रात थी, इसलिए व्यापार देर
तक चलता रहा। मगर किसी ने पचास से ज़्यादा की बोली नहीं लगाई। आख़िरकार, बाबाजी ने बर्तन पचास रुपए में बेचा और घर की ओर पैदल लौट पड़ा—चिंतित
रहा कि बाक़ी सौ रुपए कहाँ से जुटाए। ऊपर से उसे डर था कि कहीं भीमा न रास्ता रोक ले, वही ख़ूंख़ार डाकू जिसके बारे में कहा जाता था कि वह चाँदनी रातों में
भी घूमता है।
आधी रात
के क़रीब बाबाजी भीमा के गाँव के पास बड़े बरगद तक पहुँचा। और जैसे उसने सोचा था, वहाँ ख़ुद भीमा खड़ा था। बाबाजी डर से लगभग गिर ही पड़ा।
लेकिन
भीमा ने उसका पैसा नहीं छीना। बल्कि, उसने
बाबाजी के पैर छुए—बड़ों के प्रति सम्मान का चिह्न। फिर पूछा कि वह कहाँ से आ रहा
है और इतनी देर क्यों हो गई।
गाँव
वालों के पास हमेशा दुखभरी कहानियाँ होती थीं, और बाबाजी
ने भी सब उगल दिया—पीतल का बर्तन, क़र्ज़ का जाल, और एक आज़ाद नागरिक की तरह साँस लेने की तड़प।
भीमा ने
सुना,
तुरंत हिसाब लगाया और कहा: “मेरे
हिसाब से,
तुमने इन दस सालों में पहले ही पाँच सौ रुपए चुका दिए हैं।”
हमारे
इलाके़ के कहानीकार आज भी भीमा की गणित की समझ की उतनी ही तारीफ़ करते हैं जितनी
उसकी ब्रिटिश ख़ज़ाने पर साहसिक लूट की। सच कहें तो वह कल्पनाशील था—ज़रूरत पड़ते
ही उपयुक्त फ़ॉर्मूला गढ़ लेता था। बाबाजी के मामले में भी वह साहूकार के
फ़ॉर्मूले को मात देने वाला अपना नया गणित लगाने वाला था।
उसी रात, भीमा बाबाजी को लेकर साहूकार के घर पहुँचा। साहूकार काँप रहा था, सोचकर कि लूट होगी। लेकिन भीमा ने भरोसा दिलाया: “मैं लूटने नहीं आया। मैं तुम्हें गणित सिखाने आया हूँ।”
भीमा की
तेज़ नज़रों के सामने साहूकार ने अपने हर टेढ़े-मेढ़े हिसाब को मान लिया। आख़िरकार, बहुत अनिच्छा से उसने तीन सौ पचास रुपए लौटाने पर हामी भर दी—जो उसने
सालाना दस फ़ीसदी ब्याज से कहीं ज़्यादा अन्यायपूर्वक वसूल लिए थे।
फिर भी, अपनी चालाकी स्वीकार करने के बावजूद, साहूकार
ने बहस की:
“लेकिन भीमा, शर्त
सालाना दस फ़ीसदी की नहीं, बल्कि मासिक दस
फ़ीसदी की थी।”
अब भीमा
की आवाज़ गरजी:
“पाँच मिनट में तुम देख लोगे कि अगर बाबाजी को उसके रुपए नहीं मिले, तो आगे क्या होगा।”
सबसे बुरा
सोचकर साहूकार झुक गया। बाबाजी आख़िरकार अपने दस साल पुराने क़र्ज़ से मुक्त हुआ।
और साथ ही उसे तीन सौ पचास रुपए भी मिले—सब भीमा की अद्भुत गणित-विद्या के कारण।
जाते-जाते
भीमा मुस्कराया और बोला: “मैं आम तौर पर
पूर्णिमा की रात को अपना धंधा नहीं करता। मगर तुम्हारे लिए, बाबाजी, मैंने अपवाद
बनाया।”
इस तरह
ज़िंदा है भीमा डाकू की दास्तान—एक ऐसा आदमी जो साहसी था, बड़ों का
आदर करता था, और जिसके पास था अनोखा गणित—जिसने
ग़रीबों को फिर से खुली हवा में साँस लेने का मौक़ा दिया।
कहानी ख़त्म करने के बाद भी दिल चाहता है कि एक पंक्ति और जोड़ दूँ:
किवदंतियाँ महज़ कहानियाँ नहीं होतीं; वे उम्मीद
का गणित होती हैं—जहाँ अन्याय बढ़ता है, वहाँ वे
न्याय की नई गणना करती हैं।
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By
अनन्त नारायण नन्द
भुवनेश्वर
10-09-2025
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Labels: Hindi stories, short story
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