The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

Saturday, May 16, 2009

My Speech


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It was the desire of Mr Arun Kamal that I should also speak on the occasion of release of my book "विरासत" and that was conveyed to me just a day in advance. Honestly I was only waiting to listen to what people had to say about my book, not the other way round. Whatever I had to tell I had already written in the book and what more was there for me to tell? Anyway I took it as a formality and prepared a small speech. And I was the third, or maybe the fourth speaker. As I could observe from the attention of the audience, my speech was not all that bad. In fact after the function there were a few words praise for my speech. I thought I'd reproduce that in my blog.
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ट्रेन बिहार होकर गुजर रही है और यह आकर किसी एक स्टेशन पर खडी हो गई मैं ठहरा एक भूखा सवारी खिड़की से झांक कर देखा, कचौड़ीवाला कचौड़ी बेच रहा था मै तुंरत अपनी डिब्बे से नीचे उतरा और कचौड़ीवाले से कहा, 'भाई कचौड़ीवाले, मुझे दो कचौड़ी दो ' बस, मुझे कचौड़ी मिल गई और साथ ही मिल गया भूख से छुटकारा

क्या इतनी हिन्दी कहानी लिखने के लिए काफी नहीं है ?

इस बात को जरा आगे बढ़ाता हूँ मान लीजिए हिन्दी के एक प्रकांड विद्वान् ने मुझे अशुद्ध हिन्दी बोलते हुए सुना और मेरे पास आकर कहने लगा, 'देखो हिन्दी बिगाड़ने वाले नालायक "दो कचौड़ी" ऐसे कह कर बात को बिगाड़ो मत कहो "दो कचौड़ियाँ" दीजिए ' और मैंने ऐसे कहने हेतु प्रयास किया, करते गया ऐसे ही मेरी गाड़ी छूट गई।

अब क्या हुआ ? मैं कचौड़ी खा पाया, आगे जा पाया कहानी लिखने की बात तो पूछो मत जब मैं भूखा ही रह गया, कहानी भी भला कैसी बनती ? जैसे पंडित कालिदास ने कहा, "अन्न चिंता चमत्कारा कातरे कविता कुतः ?"

अगर इसे मैं सचमुच कहानी बना दूँ, तो क्या होगा इसका शीर्षक ? "पंडित से मुठभेड़" या "कचौड़ी या गाड़ी" ?

अब रही बात कि "विरासत" में सारी की सारी कहानियाँ सिर्फ़ डाकघर पर क्यों ? देखिए, अंग्रेजी में कहाबत है, "All work no play makes jack a dull boy." जब तक सच को कहानी जैसी रोचक और कहानियों को सच जैसा जीबंत नहीं बनाएँगे, तब तक जिंदगी में रूखापन ही रूखापन बरकरार रहेगा कहते हैं साधारण को असाधारण और असाधारण को साधारण कर प्रस्तुत करना कवि-लेखकों का काम होता है डाकखानों में तो साधारण लोगोंका आवागमन होता ही है फिर कहानी लिखने हेतु डाकघरों के अलाबा क्या बेहतर जगह और कहीं हो सकती है, भाई ?

अब मेरे मन में और एक बात उठती है क्या बजह है की आजकल लोगों की पढ़ने के प्रति दिलचस्पी सचमुच कम हो गई है ? टी वी, इंटरनेट पर दोष देकर क्या बात को ऐसे टाला जा सकता है ? मेरे ख्याल में कहानी सुनाना बड़े-बुजुर्गों का काम होता है और कहानी सुनना बच्चों का आज के माहौल में बड़े-बुजुर्ग होते ही हैं कहाँ ? सब जगह तो एकल परिवार माता-पिता भी कहानी सुनाने का काम कर पाते, पर उन लोगों के पास समय कहाँ है ? आजकल लोगों के पास समय कम और पैसे ज्यादा होने लगे हैं

दूसरी बजह है हमारा साइंस और इंजीनियरिंग पर जरुरत से ज्यादा ध्यान देना मुझे सुनने को मिली है कि आजकल इतिहास और राजनीति विज्ञानं जैसे विषयों में कॉलेज-विशवविद्यालयों में छात्रों का अभाब होता है इसे दुर्दशा नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे ? भाई, liberal arts का अपना महत्व होता है, जिसे टाला नहीं जा सकता है उदहारण के तौर पर मशहूर वैज्ञानिक Leonard Da Vinci की बात पर विचार करें वे केवल एक बैज्ञानिक थे, वे तो विश्वविख्यात चित्रकार भी थे और एक उदाहरण भी आधुनिक युग से लेते हैं नाम है Steve Job, जिन्होंने Apple Mac Computer, iPod जैसे युगांतकारी यन्त्र दुनिया के सामने रखा है वे तो वैज्ञानिक होने के साथ साथ एक कालिग्रफिस्त (calligraphist) भी थे इसलिए ज्ञान के क्षेत्र में संतुलन बनाए रखने हेतु हमें कहानी लिखना, पढ़ना, सुनना और सुनाना नितांत आवश्यक लगता है अगर मुझे अपना उदहारण देने की इजाज़त है, तो मैं कहूँगा Software Engineering और कहानी लिखना दोनों में सृजनशीलता की अभिव्यक्ति हो सकती है, लेकिन जहाँ तक आनंद लेने की बात है, कहानी लिखना और सुनाना सबसे ज़्यादा आनंददायक होता है

अब मेरे मन में और एक बात कौंध रही है लोग साहित्य साधना करते-करते गरीब हो जाते हैं या गरीब जनों को साहित्य साधना करने का सौभाग्य प्राप्त होता है ? जब गरीब लड़की ससुराल जाती है, वह रोती है और रोते-रोते वह मार्मिक कविता सुना कर चली जाती है दूसरी और जब शहर में पली अमीर लड़की शादी करती है, वह बिदाई के समय सिर्फ़ "bye" कहकर चली जाती है

तो सवाल है, क्या तरक्की की रास्ते चलते हुए हम साहित्य की देखभाल कर पाएँगे ? या साहित्य की देखभाल करने हेतु हमें गरीब रहना पड़ेगा ? कहीं कहीं हमें जवाब ढूंढ़ लेना चाहिए अभी, तुंरत बरना, साहित्य मरने ही वाला है
?"
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By
A. N. Nanda
मुजफ्फरपुर
17-05-2009
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