गहनों का डिब्बा
गहनों का डिब्बा
अब पचास
साल के हो चुके विमल ने हाल ही में इंटरनेट पर अस्तित्ववाद (Existentialism)
की एक परिभाषा पढ़ी: “मनुष्य
जन्म से किसी स्वाभाविक उद्देश्य के साथ नहीं आता; उसे अपने
कर्मों के द्वारा अपने जीवन का अर्थ स्वयं गढ़ना होता है।”
दुनिया की
हर दूसरी चीज़ का कोई न कोई उद्देश्य पहले से तय होता है—या तो मनुष्य ने उसे किसी
वजह से बनाया है, या वह प्रकृति में
अपने नियत कार्य के लिए मौजूद है। लेकिन यह शर्त मनुष्य पर लागू नहीं होती।
यह विचार
उसे गहराई से छू गया, क्योंकि यह किसी
ऐसी बात को प्रतिबिंबित करता था जो उसने बहुत पहले की थी—एक ऐसा काम जो उस समय बिल्कुल निरर्थक लगा था, फिर भी वह वर्षों तक चुपचाप उसकी सार्थकता के इंतज़ार में रहा।
विमल पाँच
बच्चों में सबसे बड़ा था, और गरीब माता-पिता
के घर जन्मा था। उसका पिता नाममात्र किसान और खेत मज़दूर था, जो रोज़ की कमाई से परिवार का पेट किसी तरह भरता था। एक एकड़ ज़मीन वह
बटाई पर जोता था और घर के पास छोटे से आँगन में वह और उसकी पत्नी सब्ज़ियाँ उगाते
थे—अधिकतर घर के इस्तेमाल के लिए।
फिर भी
गरीबी उनके स्थायी मेहमान बनी रही। बच्चे आधे पेट खाने को मजबूर रहते, फटे कपड़े पहने लगातार उन वस्तुओं की कमी से जूझ रहे थे, जो उनके पास नहीं थीं—वहीं चीजें जो पड़ोस के बच्चों के दिखाने से
उनके मन में हीनता का अनुभव जाग्रत कर देती थीं।
सबसे बड़ा
होने के नाते, विमल को बार-बार यही समझाया जाता कि
“बिना साधनों के जीना सीखो, इच्छाओं पर क़ाबू
रखो,
भूख को दबाओ, और दूसरों से
तुलना मत करो।“ उसकी माँ भी उसी दर्शन में पली-बढ़ी थी—फटे साड़ियों को सीकर पहनती, रिसते बर्तनों को बार-बार जोड़ती और घर की दीवारों में दीमक के टीले
उखाड़ती रहती। छत कई जगह से टपकती थी, सामुदायिक
कुएँ से पानी निकालने वाली बाल्टी की रस्सी घिस चुकी थी, और घर की हर चीज़ हमेशा “मरम्मत के दौर” में रहती थी।
कमी ने
बच्चों को समायोजन की कला सिखा दी थी। खाने के समय हर बच्चा दूसरे की थाली पर नज़र
रखता कि कहीं ज़्यादा हिस्सा तो नहीं मिल गया। माँ बिना तराजू और नाप-जोख के भी
पाँचों थालियों में बराबर बाँट देती थी। “अनवरत चौकसी ही हमारी आज़ादी की क़ीमत थी,” विमल बाद में कहा करता।
जेब ख़र्च
जैसी कोई चीज़ नहीं थी, लेकिन माता-पिता
उन्हें गाँव के मेलों में जाने को प्रोत्साहित करते थे—कुछ खरीदने या चुराने के
लिए नहीं,
बल्कि यह देखने के लिए कि दुकानदार कैसे मोल-भाव करते हैं और ग्राहक
कैसे एक रुपया कम करवाने की कोशिश करते हैं। वही मेले उनके पहले अर्थशास्त्र के
पाठशाला बने।
दस साल की
उम्र तक विमल के भीतर उद्यमी स्वभाव जाग चुका था। एक होली पर उसने तय किया कि वह
मेले में कुछ बेचकर कमाई करेगा। उसने अपने दोस्त के पिता से पाँच रुपये उधार लिए—शर्त
यह थी कि अगले दिन उसे दो रुपये ब्याज समेत लौटाने होंगे। थोड़ी बातचीत के बाद वह
ब्याज को घटाकर डेढ़ रुपये तक ले आया।
इस पूँजी
से उसने सौ गुब्बारों का एक पैकेट खरीदा। हर गुब्बारा दस पैसे में बिक सकता था—यानी
पूरे पैकेट से दस रुपये मिल सकते थे। उसने एक लंबी बाँस की डंडी ली और उसके सिरे
पर तीन क्रॉस-छड़ें बाँध दीं, बिलकुल पुराने
ज़माने के छत पर लगने वाले टीवी ऐन्टेना जैसी। उसी पर गुब्बारे सजाकर वह मेले की
ओर निकल पड़ा।
पंप न
होने के कारण उसने गुब्बारे मुँह से ही फुलाए और उन्हें दस-दस के गुच्छों में बाँध
दिया। फिर एक स्वाभाविक विक्रेता की तरह वह बच्चों के पास जा पहुँचा। वह जानता था
कि अगर वह बच्चों के मन में गुब्बारा लेने की तीव्र इच्छा जगा दे, तो माता-पिता उन्हें टाल नहीं पाएँगे। और सचमुच, उसका यह तरीका ज़्यादातर जगहों पर असरदार साबित हुआ।
लेकिन
उसने फूटे और रिसते गुब्बारों का अनुमान नहीं लगाया था। बारह गुब्बारे व्यर्थ हो
गए। आधी रात तक, बीस गुब्बारे बिना बिके रह गए। अड़सठ
गुब्बारों से उसे ₹6.80 रुपये की आमदनी
हुई। पाँच रुपये मूलधन और ₹1.50 ब्याज चुकाने के
बाद उसके पास 30 पैसे का लाभ बचा।
यह उसकी
कमाई थी—उसकी ज़िंदगी का पहला स्वउपार्जित मुनाफ़ा! और अब वह उसे अपनी मर्ज़ी से
ख़र्च कर सकता था।
तीस पैसे
में वह तीन पकौड़ियाँ खा सकता था, लेकिन रात गहरा
चुकी थी और बिना मंजन किए कुछ खाना नियम के ख़िलाफ़ था। उतने पैसों में वह कंचे भी
ले सकता था, पर तीन कंचे बहुत कम थे—गाँव में बराबरी के खेल के लिए कम से कम दस कंचे ज़रूरी माने जाते थे।
उसने
इधर-उधर नज़र दौड़ाई। मेले के एक कोने में राधा-कृष्ण की मूर्तियों से सजे
पालकियाँ सजी थीं—कुल दस जोड़े। पूरा मेला उन्हीं के दिव्य प्रेम को समर्पित था।
यह एक धार्मिक आयोजन था और पूजा-पाठ भी चल रहा था। विमल ने देखा कि लोग पीतल की
थाली पर सिक्के चढ़ाकर झुककर प्रार्थना कर रहे थे।
लेकिन वह
अपने परिश्रम से कमाए तीस पैसे वहाँ चढ़ाने को बिल्कुल तैयार नहीं था। मेले में
किसी उपयोगी वस्तु पर उन्हें ख़र्च करना, केवल
प्रार्थना के नाम पर मूर्तियों के आगे अर्पित कर देने से कहीं अधिक समझदारी भरा
लगा। वैसे भी, वह बिना नहा-धोकर और भीतर से शुद्ध हुए
व्यापारिक संसार से आध्यात्मिक लोक की ओर कदम रखने के मूड में नहीं था। कंजूस
पुजारी उसे बदले में कुछ नहीं देगा—बस होली
की याद दिलाने के लिए रंगीन अबीर की एक चुटकी थमा देगा, प्रसाद का एक कण तक नहीं।
फिर उसे
एक छोटी-सी ‘हर-एक-माल’ दुकान दिखी, जहाँ हर वस्तु तीस
पैसे की थी। उसने सामान पर नज़र दौड़ाई—एल्युमिनियम
का कान साफ़ करने वाला डंडा (बेमतलब—बाँस की
पतली टहनियाँ मुफ़्त में मिल जाती थीं), बिंदी के
पैकेट (माँ सिंदूर लगाती थी, और बहनें थीं
नहीं)।
तभी उसकी
नज़र एक छोटे, पारदर्शी पॉलीकार्बोनेट के गहनों के
डिब्बे पर पड़ी—समुंदर-नीले रंग का, टिकाऊ और
अंदर इतनी ही जगह कि दो अंगूठियाँ या एक जोड़ी बालियाँ आ सकें। “माँ इसका इस्तेमाल कर सकती है,” उसने सोचा, हालाँकि उसके पास
कोई गहना नहीं था, न नथुनी, न बालियाँ।
यह एक
आवेगपूर्ण ख़रीद थी, जिसे उसके पिता ने
व्यर्थ बताया। लेकिन माँ ने उसका बचाव किया—“यह उसकी कमाई है। इसे वह अपनी इच्छा
से ख़र्च कर सकता है।” उसने उस छोटे डिब्बे को संजोकर रख लिया—अपने बड़े बेटे की
कमाई से ख़रीदी पहली भेंट। और शायद उसने सोचा भी, काश मेरे
पास बालियाँ या नथ होतीं, तो मैं
इन्हें यहीं रखती।
बारह साल
बाद…
ज़िंदगी
कभी आसान नहीं रही, लेकिन विमल ने हर
सबक कठिन रास्ते से सीखा। उसने पढ़ाई में कमाल किया, हर बोर्ड
परीक्षा पास की और बाईस साल की उम्र में बैंक में नौकरी पा ली। अपनी तनख्वाह से
उसने सबसे पहले माँ के लिए सोने की एक जोड़ी बालियाँ ख़रीदीं। माँ ने उन्हें उसी
पुराने डिब्बे में सँभालकर रखा।
कितनी भी
मिन्नतें कर लो, वह उन्हें तुरंत पहनने को तैयार नहीं
हुईं। “मैं इन्हें मार्गशीर्ष महीने के पहले गुरुवार को पहनूँगी,” उन्होंने कहा, “जब माँ लक्ष्मी आएंगी
और इस घर को आशीर्वाद देंगी। वह मेरे गहनों के डिब्बे और बालियाँ देखेंगी और हमारे
परिवार को आशीर्वाद देंगी।”
और ऐसा ही
हुआ,
जैसे उन्होंने सोचा था।
सालों बाद
जब विमल ने अस्तित्ववाद का वह सूत्र—“अस्तित्व
सार से पहले आता है”—पढ़ा, तो उसके
चेहरे पर मुस्कान खिल उठी। दार्शनिक इस पर बहस करते रहे कि पहले गहने आने चाहिए या
गहनों का डिब्बा। लेकिन विमल उत्तर जानता था। वह उत्तर आकांक्षा, बुद्धिमत्ता, योजना, भावना, धैर्य, प्रेम और कृतज्ञता के मिश्रण में छिपा था। उस डिब्बे का आविर्भाव किसी
भूल या संयोग से नहीं हुआ था—उसमें उद्देश्य पहले से ही निहित था। बालियाँ उसी में
आकर बसने के लिए नियत थीं।
अगर आप
अपने आँगन में एक घोंसला बना दें, तो एक दिन कोई
पक्षी उसमें आकर बसेगा।
हम अक्सर
अपने कर्मों को उनके तत्काल परिणामों से आँकते हैं, और जो
क्षणभर के लिए निरर्थक लगते हैं, उन्हें व्यर्थ मान
लेते हैं। लेकिन जीवन, जैसा कि विमल ने
जाना,
तुरंत हिसाब बराबर करने की किताब नहीं है। अर्थ धीरे-धीरे पकता है, अक्सर उन तरीक़ों से जिन्हें हम पहले से नहीं जान सकते।
वही
छोटा-सा डिब्बा—जिसे दस साल के एक बच्चे ने बिना किसी कारण ख़रीदा था—वर्षों तक
अपने उद्देश्य की प्रतीक्षा करता रहा। बाद में वही उसकी माँ की पहली बालियों का
ठिकाना बना, और परिवार की यात्रा को अभाव से गरिमा तक
पहुँचते हुए मौन साक्षी की तरह देखता रहा।
विमल ने
समझ लिया कि अस्तित्ववाद केवल कोई ऊँचा दार्शनिक विचार नहीं है; यह उन छोटे, पहली नज़र में
निरर्थक लगने वाले कामों में भी जीया जाता है, जो समय के
साथ अर्थ से परिपूर्ण हो जाते हैं। हम घोंसला बना देते हैं—कभी-कभी बिना यह जाने
क्यों—और जीवन, देर-सबेर, उसमें
पक्षी ले आता है।
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By
अनन्त नारायण नन्द
भुवनेश्वर
दिनांक- 22/10/2025
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Labels: Hindi stories, short story
2 Comments:
बहुत सुन्दर ग्रामीण परिवेश और अर्थ-व्यवस्था को वर्णित करता लेख सर
धन्यवाद।
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