एवजी-लौंडा और बाग़ी
एवजी-लौंडा और बाग़ी
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कहानी बहुत पुरानी है, जब पराधीन भारत में ज़मींदारी प्रथा अपने चरम पर
थी। ज़मींदार—न सेना, न सरकारी ओहदा—फिर
भी असीमित सत्ता का प्रयोग करते थे। उनका काम सीधा था: किसानों से लगान वसूलना और
अंग्रेज़ सरकार को सौंप देना। बदले में उन्हें भोली-भाली ग्रामीण जनता पर लगभग
निरंकुश अधिकार मिल जाते। कानून मौजूद था, पर सरकंडे की तरह
झुकता—ग़रीबों पर कठोर, अमीरों के लिए
लचीला। ज़मींदार और किसान के बीच विवाद में अदालत लगभग हमेशा किसान को ही दंड देती, और ज़मींदार बनाम ज़मींदार में वही कानून केवल
मध्यस्थ बनकर रह जाता।
इन्हीं ज़मींदारों के बीच एक वारिस
था—ज्ञान वर्धन राय बहादुर, जिसने कभी स्कूल का
मुँह तक नहीं देखा। कलकत्ता, रायपुर, शिमला या देहरादून जैसे उच्च विद्यालय सिर्फ़
उन्हीं के लिए थे जिनके पास योग्यता और धन दोनों हों। जिनके पास न यह था, न वह—वे स्थानीय गुरुजी के भरोसे रहते, जो ज़मींदार के घर पर संस्कृत, गणित और धर्मग्रंथ पढ़ाते।
पर ऐसे शिष्य प्रायः नासमझ, आलसी और घमंडी निकलते। अध्यापक उनकी नालायकी से
भीतर ही भीतर कुढ़ते, पर ग़ुस्सा निकालें
कहाँ? ज़मींदार का बेटा,
जैसे कि ज्ञान
वर्धन, सज़ा से परे था। तब निकला एक उपाय—एवजी-लौंडा, यानी बलि का बकरा।
गाँव का कोई ग़रीब अनाथ लड़का ज़मींदार के
बेटे के साथ बैठा दिया जाता। उसका काम पढ़ना नहीं,
बल्कि मार खाना
होता। जब भी ज़मींदार का बेटा श्लोक न दोहरा पाता या सवाल न हल कर पाता, डंडे-थप्पड़ एवजी-लौंडे की पीठ पर
बरसते। रोना मना था—आँसू दिखे तो सज़ा और बढ़ जाती। धीरे-धीरे उसकी चमड़ी मोटी हो
गई, आत्मा सुस्त पड़ गई। फिर भी रोज़ मार पड़ती, क्योंकि ज़मींदार का बेटा सुधरता ही न था।
ज़मींदार का वारिस लंबा-चौड़ा, घुँघराले बालों वाला और गोरे रंग का था—मानो
नाट्य-मंडली में शोभा पाता, गणित की यातनाओं
में नहीं। दूसरी ओर ऐवजी-लौंडा दुबला-पतला, असहाय बच्चा था, जिसके कोई परिजन न थे। तन पर बस एक गमछा, सीना नंगा—सर्दियों में भी। उसका नाम था सुखराम दास—विडंबना यह कि अर्थ
हुआ “सुख में सेवा करने वाला।” मानो नाम रखने वाले ने भविष्य देख लिया हो। सुखराम
ने अपना बचपन गँवा दिया—अमीरों की सज़ा का ठिकाना बनकर।
साल बीतते गए। आठ की उम्र में भर्ती हुआ
सुखराम अब चौदह का हो चुका था। उसने गणेश-सरस्वती की प्रार्थनाएँ कंठस्थ कर लीं, पहाड़े याद कर लिए,
वर्णमाला सीख
ली—हालाँकि किसी ने सिखाया न था। ज़मींदार का बेटा,
अब अठारह का, उतना ही नासमझ बना रहा, पर और गुस्सैल हो गया।
एक दिन पढ़ाई से ऊबकर ज्ञान वर्धन दूर
कस्बे भाग निकला। न कोई योजना, न भविष्य की
दृष्टि। संयोग से वह सफेद धोती-कुर्ते में झंडे थामे लोगों की टोली पर जा टकराया, जो समुद्र की ओर कूच कर रही थी। औरतें भी जुलूस के
आगे थीं। उसने उत्सुक होकर पूछा, “कहाँ जा रहे हो?” उत्तर मिला—“नमक बनाने।”
ज्ञान वर्धन हक्का-बक्का रह गया। उसके लिए
नमक तो बस खाने का ज़रा-सा ज़ायक़ा था—उसके लिए सैकड़ों लोग क्यों निकलेंगे? पर जिज्ञासा उसे किनारे तक खींच लाई। वहाँ लोग
ड्रम में पानी भर रहे थे, लकड़ियाँ जमा कर
रहे थे, और मिट्टी के घड़ों में खारा पानी भरकर चूल्हों पर
चढ़ा रहे थे। वह शाम तक देखता रहा। तभी पुलिस की पलटन आ पहुँची और लाठीचार्ज हुआ।
भीड़ तितर-बितर हो गई, मगर ज्ञान वर्धन
पकड़ा गया और जेल पहुँचा दिया गया। बाद में ही उसे पता चला कि यह महात्मा गांधी के
नेतृत्व में हुआ असहयोग आंदोलन का ‘नमक सत्याग्रह’ था।
वह एक साल जेल में रहा। जब लौटा, तो पिता की ज़मींदारी ढह चुकी थी। अवैध आंदोलन में
शामिल होने के दंडस्वरूप ज़मींदारी के विशेषाधिकार छिन गए थे। परिवार बस कुछ एकड़
ज़मीन तक सीमित रह गया। ऐश्वर्य का वैभव उसके लौटने से पहले ही मिट चुका था।
सालों बाद,
जब भारत आज़ाद हुआ, ज्ञान वर्धन स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन का हकदार
बना। विडंबना यह कि पढ़ाई में फिसड्डी होने के बावजूद अब वह देशभक्त कहलाया। बिना
किसी शिक्षा या हुनर के, पेंशन से आराम से
जीने लगा।
और सुखराम?
ज्ञान वर्धन के चले
जाने से वह छोटा-सा “शिक्षा केंद्र” बंद हो गया। सुखराम को राहत मिली, रोज़ का मार खाना बंद हुआ। तब तक वह इतना सीख चुका
था कि गाँव में बरामदे का शिक्षक बन सके। वह बच्चों को वर्णमाला, पहाड़े, पाठ्यपुस्तकें, प्रार्थनाएँ और संस्कृत श्लोक पढ़ाने लगा। इसके
अलावा, वह गाँववालों को नाट्य-कला भी सिखाने लगा ताकि
खुले मैदान में नाटक हो सके। उस अभिनय कला को स्थानीय लोग जात्रा
कहते थे। जात्रा के
निर्देशन के लिए उसे कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता,
मगर आनंद अवश्य
मिलता।
1972 में, स्वतंत्रता की रजत
जयंती पर, किसी ने एवजी-लौंडा और बाग़ी की
आय की तुलना की। नतीजा व्यंग्यात्मक था। कभी बिगड़ा लाड़ला ज्ञान वर्धन स्वतंत्रता
सेनानी की पेंशन के रूप में 500 रुपये मासिक पा रहा
था। वहीं सुखराम, जिसने वर्षों तक
दूसरों की सज़ा सही थी, अब महज़ 40 रुपये महीने कमाता था—हर बच्चे से पाँच रुपये।
गाँव की नाट्य-मंडली में उसका सांस्कृतिक योगदान तो नितांत निःशुल्क ही था।
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By
अनंत नारायण नंद
भुवनेश्वर
05-09-2025
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Labels: Hindi stories, short story
2 Comments:
बहुत सुंदर सामयिक पंक्तिबद्ध विश्लेषण युक्त पुरानी व्यवस्था को वर्णित करता लेख सर
कहानी आपको अच्छी लगी जानकार अच्छा लगा। धन्यवाद।
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