स्पर्श और सत्य
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Here I'm going to post another chapter from my novel "Ivory Imprint" which I'm translating into Hindi. The work is fast approaching completion, and as soon as it is completed, it will be published as an ebook initially, and after some time, if it is well-received, as a paperback. The English version of "Ivory Imprint" is available on Amazon's website. The links are as follows:-
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स्पर्श
और सत्य
यह सुबह के
लगभग ग्यारह बजे का समय था जब मालोविका हैवलॉक पहुँची। जेट्टी से बाहर निकलते ही
उसने वांडूर बीच रिसॉर्ट तक पहुँचने के लिए किसी सवारी की तलाश की। एक ऑटो-रिक्शा, जो सवारियों की
प्रतीक्षा में खड़ा था, उसे
वहाँ तक ले जाने को सहर्ष राज़ी हो गया।
मालोविका राजन
से मिलने को अत्यंत उत्सुक थी — एक एशियाई नर हाथी, जिसकी उम्र साठ पार कर चुकी थी, वज़न तीन टन, और जिसे समुद्र
में तैरने की असाधारण ख्याति प्राप्त थी। वह अब संरक्षण का प्रतीक बन चुका था, और रोमांचक
पर्यटन का पोस्टर-बॉय! यहाँ तक कि 2006 की हॉलीवुड फ़िल्म ‘द फॉल’ में भी उसने
अभिनय किया था।
वैज्ञानिक
दृष्टि से देखें, तो
हाथी के लिए तैराकी कोई असंभव कार्य नहीं है। उनके शरीर में नेफ्रोस्टोम्स की उपस्थिति यह
दर्शाती है कि उनके पूर्वजों का संबंध मछलियों और उभयचरों से रहा होगा। यानी
तैराकी उसकी विरासत में है। लोककथाएँ भी कहती हैं कि प्राचीन काल में हाथी भारत और
श्रीलंका के बीच समुद्र पार किया करते थे। जैसे इस परंपरा को जीवित रखने की
ज़िम्मेदारी अब राजन के कंधों पर आ गई हो।
सत्तर के दशक
में, जब
अंडमान के वनों का तीव्र दोहन हो रहा था और वहाँ से अंडमानी पादुक (Pterocarpus dalbergioides) लकड़ी
मुख्यभूमि भेजी जाती थी, उसी
समय राजन को लकड़ी लाने ले जाने के कार्यों के लिए वहाँ लाया गया था। समुद्र के भय
को दूर करने के लिए उसे कठोर प्रशिक्षण से गुज़ारा गया, और उसने इस
चुनौती को पार कर तैराकी में निपुणता प्राप्त की। शुरुआती दौर कठिन और थकाऊ था, परंतु उसकी
मादा साथी उसे निरंतर प्रेरणा देती रही। वह एक द्वीप से दूसरे द्वीप तक, सँकरी खाड़ियों को पार करते
हुए, कभी-कभी
तीन किलोमीटर तक तैर लेता था। उसके साथ मज़दूरों की नावें चलतीं — उन पर सवार
ठेकेदार हुक्म चिल्लाते और उसके साथी उसे निर्दयता से अंकुश से उकसाते।
अस्सी के दशक
तक अंडमान में हाथियों के साथ मानवीय व्यवहार की माँग उठने लगी थी। 2002 में भारत के
सर्वोच्च न्यायालय ने वहाँ की लॉगिंग गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। इसके
परिणामस्वरूप, कुछ
हाथियों को मुख्यभूमि के खंडित और असंगत जंगलों में भेजा गया, जहाँ उन्हें न
तो पर्याप्त चारा मिला, न ही
कोई स्थायित्व। वे खेतों पर टूट पड़े, और अंततः या तो मारे गए या भूख-प्यास से मर-खप
गए।
उनका हाल और भी
दयनीय था जिन्हें दक्षिण भारत के मंदिरों में स्थानांतरित किया गया — वहाँ उन्हें
फिर से कठोर प्रशिक्षण, परंपरागत
अनुकूलन और शहरी धार्मिक जीवन की नई यातनाओं से गुजरना पड़ा। शांत द्वीपीय जीवन से
बेदखल होकर जब उन्हें मंदिरों की लगातार बजती घंटियों और भीड़भाड़ वाले जुलूसों
में चलना पड़ा, तो कई
बार वे मानसिक असंतुलन के शिकार हो जाते और उन्मत्त होकर श्रद्धालुओं को कुचल
देते।
पर राजन के
मामले में विस्थापन में विलंब हुआ — जो उसके लिए किसी सांत्वना से कम नहीं था। वह
अपनी मादा साथी को साँप के डसने से खो चुका था, और अब अकेला था। कम-से-कम उसे उस शांत द्वीप से
तत्काल निष्कासित नहीं किया गया। 2008 में जब उसके मालिक ने उसे एक केरल के मंदिर को
बेचने की बातचीत शुरू की,
तब
वांडूर रिसॉर्ट ने हस्तक्षेप कर उसे द्वीप पर ही बनाए रखने का निर्णय लिया।
रिसॉर्ट ही उसका नया घर बन गया — जहाँ स्कूबा डाइविंग प्रेमियों को एक शुल्क के
साथ उसके साथ गोता लगाने का विशेष अवसर प्रदान किया जाने लगा। अब वह द्वीप
पर एक सुकूनभरा, सुसज्जित
सेवानिवृत्त जीवन जी रहा था।
यही वह विवरण
था जो इस अनोखे प्राणी — इस द्वीप की सबसे मनमोहक परीकथा के नायक — के
जीवन-वृत्तांत के रूप में यात्रा-साहित्य में दर्ज है।
“राजन के साथ गोता
लगाने का इरादा
है, मैडम?” — ऑटो-चालक ने
मालोविका से पूछा।
वह कुछ अधिक ही
जिज्ञासु जान पड़ा।
मालोविका ने जवाब दिया, “हाँ, मुझे इसमें
दिलचस्पी है।” सच तो यह था कि वह राजन की उपलब्धियों से परिचित होना चाहती थी। अतः
उसने बात आगे बढ़ाई — “क्या आपने राजन को देखा है?” उस आदमी ने सहमति में सिर हिलाया और
ज़ोर देकर कहा, “राजन
सिर्फ रिसॉर्ट का नहीं, पूरे
द्वीप का है।”
क्या गहरी बात
कह दी उस ऑटो चालक ने! मालोविका को एक पुरानी कहावत याद आ गई — "हाथी जंगल का
होता है, और
जंगल सबका।" फिर स्वामित्व किसका? और स्वामित्व का अर्थ भी क्या — संरक्षण या शोषण? यह कहावत जैसे
स्पष्ट संकेत दे रही थी कि हाथी जैसे विराट प्राणी पर स्वामित्व जताना मानो किसी
पहाड़ को अपनी निजी संपत्ति समझना हो। क्या यह एक प्रकार का अहंकार नहीं है? अनजाने में ही
सही, उस ऑटो
चालक ने वन्यजीव संरक्षण के मूलभूत सिद्धांत को जैसे शब्द दे दिए थे।
मालोविका
रिसॉर्ट पहुँची, कमरा
लिया और राजन के साथ स्नॉर्कलिंग के लिए मैनेजर से संपर्क किया।
रिसेप्शन पर एक
सूचना चिपकी थी — राजन ने सप्ताह की अपनी स्नॉर्कलिंग की सीमा पूरी कर ली है, अतः वह इस
गतिविधि के लिए उपलब्ध नहीं है। इस पर मैनेजर को यह अचरज हुआ कि कोई यूँ ही
अनौपचारिक ढंग से स्नॉर्कलिंग की माँग कर रहा है — जैसे सिगरेट की दुकान से सिगरेट
माँग रहा हो। फिर भी उसने पेशेवर लहजे में विनम्रता से मना कर दिया। उनका नियम था
— राजन को सप्ताह में एक बार से अधिक तैरने को बाध्य नहीं किया जाता।
पर मालोविका
इतनी जल्दी हार मानने वाली नहीं थी। उसने स्वयं को भारत की एक प्रख्यात ‘हाथी
प्रेमी’ के रूप में प्रस्तुत किया और सुझाव दिया कि यदि आवश्यक हो, तो वह इस अवसर
के लिए अतिरिक्त शुल्क देने को भी तैयार है।
“मैडम,” — मैनेजर ने
शालीन स्वर में उत्तर दिया,
पर
उसका निहितार्थ तीखा था: “आप जैसे हाथियों की हितैषी से हम यह अपेक्षा नहीं करते
कि वह राजन को सर्कस का जानवर बना दें।”
उदास और
आत्मग्लानि से भरी मालोविका अपने कॉटेज लौट आई। देश की शीर्षस्थ हाथी-प्रेमी होने
का दावा करना, और
अपनी क्रय-शक्ति के बल पर विशेष सुविधा प्राप्त करने की ज़िद ठान लेना — यह सब
उसके आत्म-अहं की चरम अभिव्यक्ति थी। अब उसे यही उचित लगा कि जब तक उसका क्रम न आए, वह यहीं द्वीप
पर ठहरी रहे।
वह दोबारा
मैनेजर के पास गई — “मैंने तय कर लिया है, मैनेजर साहब। मैं यहीं प्रतीक्षा करूँगी। क्या आप
मेरा स्लॉट अग्रिम रूप से बुक कर सकते हैं?”
मैनेजर ने
विनम्रता से, किंतु
नकारात्मक उत्तर दिया — “माफ़ कीजिए, मैडम! अगले कुछ सप्ताह के सभी स्लॉट पहले ही बुक
हो चुके हैं। आपको मार्च के तीसरे सप्ताह तक प्रतीक्षा करनी होगी।”
इसका अर्थ था
कि मालोविका को लगभग एक महीने तक बिना किसी गतिविधि के यहीं रुकना पड़ेगा। उसने
सहमति में सिर हिला दिया।
इसके बाद
मैनेजर ने बताया कि उन्हें चार व्यक्तियों का शुल्क देना होगा — क्योंकि उनकी नीति
है कि स्नॉर्कलिंग की बुकिंग व्यक्तिगत नहीं, चार के समूह के लिए की जाती है। कुल लागत, विस्तारित
प्रवास सहित, एक
बड़ी राशि थी — परंतु मालोविका ने निश्चितता के लिए यह व्यय स्वीकार कर लिया।
वह अपने कॉटेज
लौटी, एक
आसान कुर्सी पर बैठी और बाबर द एलिफ़न्ट नामक अपनी
प्रिय चित्र-पुस्तक पलटने लगी। वर्षों पहले उसने ब्रूनहॉफ की यह सात-खंडीय
चित्र-श्रृंखला पेरिस के विख्यात शेक्सपीयर एंड कंपनी पुस्तकालय से
खरीदी थी, जिसे सिल्विया
व्हिटमैन ने
संचालित किया था। वह सिन नदी के किनारे बसा हुआ वही ऐतिहासिक स्थल था, जहाँ साहित्य
को धर्म की तरह पूजा जाता था। उस रात उसने उसी दुकान में रुककर न केवल किताबें
पढ़ीं, बल्कि
अपनी आत्मकथा का एक पन्ना भी वहाँ की रचनात्मक दीवारों के बीच लिखा था।
आज भी वह अनुभव
उसके लिए किसी तीर्थ-स्मृति जैसा पवित्र और मूल्यवान था।
शेक्सपीयर एंड कंपनी — वह जीवित किंवदंती — जहाँ अर्नेस्ट हेमिंग्वे, एज्रा पाउंड, फिज़्जेराल्ड, और जेम्स जॉयस
जैसे दिग्गज लेखक कभी रचते,
बहस
करते और विचारों की मशालें जलाया करते थे — उसी जगह एक रात बिताना, और अपनी लेखकीय
उपस्थिति वहाँ अंकित करना,
वैज्ञानिक
मालोविका
के लिए किसी अंतरंग साहित्यिक दीक्षा से कम न था।
अगले दिन दोपहर
ठीक बारह बजे, राजन
मंथर गति से रिसॉर्ट में प्रविष्ट हुआ — पीछे-पीछे उसका महावत कदम से कदम मिलाते
हुए समभाव से चलता आ रहा था।
“वाह, राजन!” —
मालोविका जैसे विस्मय में डूब गई। उसे लगा, मानो उसकी साँसें थम गई हों! वह गजराज उसे
अप्रत्याशित रूप से युवा और गरिमामयी प्रतीत हुआ — जैसे कोई आत्मसंपन्न दार्शनिक, जिसे अपने जीवन
का उद्देश्य पता हो। उसका मात्र होना ही इस संसार को सुंदर बना देने के लिए
पर्याप्त था। उसकी गरिमा किसी मैग्नोलिया पुष्प की तरह थी — जो नींबू-सी हल्की सुगंध
बिखेरते हुए, समूचे
परिदृश्य को सुरभित कर रही थी। आह! यह उस प्रकाशमान आकाशगंगा जैसा था, जो निष्प्रभ
गगन को चुपचाप सजाती है।
“देखो! ओ मेरे
प्रिय! कैसी सुरम्य लय है तुम्हारी चाल में — कितने विलक्षण हो तुम, कितने सुंदर, कितने ज्ञानी, कितने उदार!” —
वह विस्मित होकर चिल्ला उठी, जैसे उसकी सारी चेतना राजन को संबोधित कर रही हो।
और फिर, वह तुरत-फुरत
एक कवि बन गई — एक गीतकार,
जो
मौके पर ही एक कविता रच और गा रही थी:
“आसमान की
नीलिमा / जब धूसरित धरती में घुलने को हो / वहाँ तुम ठिठकते हो एक क्षण / और मुझे
स्वर्ग का दीदार करा जाते हो / हे दिव्य प्राणी, एक बार तो मुझे देखो / कितने रोंगटे
खड़े हो गए हैं यहाँ / और कैसा हलकापन भर गया है तन में / देखो उधर — वह नन्हा फूल
/ कैसे किसी अलौकिक लय में झूम रहा है / तुम मेरे स्वप्न हो, एक साकार
स्वप्न / राजन, तुम
करोड़ों के स्वप्न / हे राजन, हे राजन...”
अपने को अब तक
एक सख़्त, तर्कशील
हाथी-विशेषज्ञ के रूप में स्थापित कर चुकी मालोविका, इस प्रथम प्रेम-ज्वार में पूरी तरह
बह गई। यह कोई सामान्य भाव नहीं था — यह उल्लास, विस्मय और आत्म-विलयन की बहुरंगी लहर
थी, जो
किसी भी पूर्व प्रेमानुभूति — यहाँ तक कि आरोहण के प्रति पुराने आकर्षण को भी पीछे
छोड़ रही थी।
वह निर्भीक
होकर राजन के सामने जा पहुँची और हल्की झिड़की के स्वर में बोली — “ओ प्रिय! क्या
तुम्हारे पास अपनी समर्पिता के लिए एक पल भी नहीं? तुम्हारे मैनेजर ने तो ऐसा ही कहा
था!”
फिर वह और समीप
गई और लयबद्ध स्वर में गुनगुनाई — “हे राजन, मैं स्वप्न देखती हूँ तुम्हारे संग समुद्र में
तैरने का। तुम उदार हो, गरिमामय
हो, बुद्धिमान
हो, साहसी
और कुलीन भी। सब जानने वाले, तुम ज़रूर मेरे दिल की बात भाँप सकते हो। कृपा
करो, प्रिय!
चलो, साथ
तैरें क्या?”
महावत स्तब्ध
रह गया। उसके मन में भय उभरा — “हे
भगवान! यह औरत नशे में लगती है... और इतनी लापरवाही से इस प्यासे हाथी के पास
पहुँच गई! अब क्या होगा?”
राजन धीरे-धीरे
मालोविका की ओर बढ़ा और बस कुछ ही फ़ीट की दूरी पर आकर ठहर गया। “हे राम! कितनी
निकट आ गई है यह! कहीं यह गजराज उसे रौंद न डाले!” — महावत का कलेजा
काँपने लगा।
“अह, राजन! तुम
कितने दयालु हो, कितने
सहनशील! तुम जानते हो, तुम्हारी
उपासिका को क्या चाहिए। तुम नहीं चाहोगे कि मैं तुम्हारे द्वार से यूँ ही लौट
जाऊँ।” — मालोविका ने हाथ उठाते हुए कहा, मानो एक और क़दम आगे बढ़ने को तत्पर हो।
राजन ने अपनी
सूँड लगभग तीस डिग्री ऊपर उठाई। फिर, अपनी ग्राही सूँड को हरकत में लाते हुए, हवा को सूँघा —
शायद यह जाँचने के लिए कि कोई ख़तरा तो नहीं। हो सकता है, वह तय नहीं कर
पा रहा हो — क्या इस सीमा-लांघन के लिए मालोविका को दंड दिया जाए?
धीरे से उसने
अपनी सूँड का सिरा मालोविका के कंधे से स्पर्श किया — महावत सन्न रह गया। यह
अभिवादन था या चेतावनी? उसका
पेशेवर विवेक जैसे कुंद पड़ गया।
राजन की लार की
एक भारी धार मालोविका के कंधे से बहती हुई उसकी गर्दन और वक्ष पर फैल गई — मानो वह
अभी-अभी किसी ठंडी, चमत्कारी
जलधारा से निकलकर आई हो। यह स्पर्श ठंडा था, सुन्न कर देने वाला। अब वह स्वयं को लार, पसीने और किसी
अनाम स्राव से भीगा हुआ महसूस कर रही थी। राजन की सूँड उसके शरीर की ऊपरी बनावट पर
ऐसे घूमी जैसे वह कोई भावुक अंगुली हो — मानवीय, चपल, शरारती।
अभूतपूर्व! पर
क्या यह जानबूझकर था? क्या
यह किसी और गहरे संवाद की शुरुआत थी?
महावत का मुँह
खुला का खुला रह गया — बस एक हल्की सी सिसकी निकल पाई।
मालोविका ने
आँखें मूँद लीं। ऐसा लगा जैसे शरीर के केंद्र से होकर बिजली की लहरें गुज़र रही
हों। उसकी त्वचा सिहर उठी,
असंख्य
रोंगटे खड़े हो गए; हर
संवेदनशील बिंदु जैसे जाग उठा। ये अनुभव तीव्र और पागल कर देने वाले थे। गालों पर
आँसू बहने लगे — किसी विशेष भाव के नहीं, बस यूँ ही।
धीरे-धीरे उसे
महसूस हुआ कि उसने अपने शरीर पर नियंत्रण खो दिया है — जैसे कोई अथाह बल उसके भीतर
प्रवेश कर गया हो। और फिर वह धीरे-धीरे धरती पर पसर गई — सुख की धीमी लहरों में
डूबती हुई, जैसे
कोई मंद दीप्ति उसके भीतर टिक गई हो।
अपनी प्रशंसिका
को ज़मीन पर पड़ा देख, राजन
मंथर गति से आगे बढ़ गया।
मालोविका अब भी
पीठ के बल लेटी हुई थी — शांत, स्थिर। गालों पर बहकर सूखती आँसुओं की ठंडक उसे
स्पर्श कर रही थी। वह जानती थी — यह कोई सामान्य अनुभव नहीं था। यह तो जीवन का वह
द्वार था, जो
मृत्यु की ओर जाता था —पर बिना जीवन को छोड़े। यदि मृत्यु का स्वाद ऐसा हो, तो वह उसे
बार-बार चखना चाहेगी — बार-बार उसी देह में, बिना जीवन त्यागे।
अहा! यह तो
परमानंद था!
कभी जब वह
छात्रा थी, तो
चतुर मित्र उसे कामुक ज्ञान देने की चेष्टा करते थे — वह उन्हें मूर्खतापूर्ण
कल्पनाएँ समझकर खारिज कर देती। और अब? यह था उसका आकस्मिक
आत्मबोध — जो
जीवन के उन निहितार्थों को अनावृत्त कर रहा था, जिन्हें कहा नहीं जा सकता — जिन्हें केवल मौन में
जिया जा सकता है, और वह
भी केवल इसी जीवन में।
वास्तव में, अब जाकर उसे
समझ आया — वह किस अनुभव से अब तक वंचित रही थी।
महावत ने चैन
की साँस ली। राजन ने कोई "ग़लत हरकत" नहीं की — उसकी नौकरी बच गई। लेकिन
जब उसने यह बात मैनेजर को बताई, तो वह दौड़ा-दौड़ा उस स्थल पर पहुँचा जहाँ यह सब
घटा था।
मालोविका तब तक
वहाँ से हटकर अपने कॉटेज लौट चुकी थी। एक आसान कुर्सी पर बैठी, आँखें मूँदे वह
उस अनुभव पर चिंतन कर रही थी जिसने उसे भीतर तक झकझोर दिया था। जैसे ही मैनेजर
पहुँचा, उसने
आँखें खोलीं।
“माफ़ कीजिए, मैडम,” — मैनेजर ने कहा।
यह माफ़ी राजन की कथित हरकतों के लिए नहीं थी — बल्कि उसके वाक्य के असली प्रयोजन
से पहले की औपचारिक भूमिका थी।
“पर क्यों? क्या यह राजन
की वजह से है?” — मालोविका
ने पूछा।
“हाँ, राजन की मनोवृत्ति अब आपके प्रति
अनुकूल नहीं है। मेरा सुझाव है कि आप उसके साथ स्नॉर्कलिंग का विचार रद्द कर दें।
हम खुशी-खुशी आपकी राशि लौटा देंगे,” — मैनेजर ने कहा।
“जैसी आपकी
मर्ज़ी,” — मालोविका
ने मद्धिम स्वर में उत्तर दिया। वह उस अनुभव की धीमी, गूढ़ तरंगों को
अभी कुछ और देर जीना चाहती थी।
“क्या मैं एक और
सुझाव दे सकता हूँ, मैडम?” — मैनेजर अब पूरी
चतुराई से बोला —
“सुबह छह बजे कैटामारैन हैवलॉक से रवाना होती है। यदि आप चाहें, तो हम आपके लिए
टिकट की व्यवस्था कर सकते हैं।”
मालोविका समझ
गई — मैनेजर उसे यथाशीघ्र विदा करना चाहता था।
अब जब यह
स्पष्ट हो गया था कि वह कहाँ की है और उसे क्या चाहिए, तो अब और वहाँ
रुकना निरर्थक था। उस तपस्विनी जीवन की अभ्यस्त स्त्री के लिए भी अब यह संभव न था कि
वह अपने शरीर की पुकार से आँख चुरा सके।
खुश होकर, मैनेजर दौड़
पड़ा — उस निर्णय को अमल में लाने, जिसे वह रिसॉर्ट के हित में सबसे उचित मानता था।
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By
Ananta Narayan Nanda
Bhubaneswar
29/07/2025
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Labels: Hindi stories, Ivory Imprint, Novel inHindi
4 Comments:
बहुत ही हृदय-स्पर्शी और जादूभरी गाथा है. अनुवाद अनुपम और सटीक है.मुबारक हो,श्रीमान नंद जी !
धन्यवाद, महोदय। आपने अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा उत्साह वर्धन किया है। मैं आभारी हूं ।🙏🙏
Very interesting and enchanting narrations Sir💐🙏
I'm happy that you went through the chapter and favoured me with your considered assessment. This will definitely encourage me to see that readability of the novel is enriched. Thanks a lot.
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