दरिद्र नारायण
हर
टेढ़ी-मेढ़ी बात की अपनी ढंग-तरकीब होती है। मेरा मानना है कि इस कहावत को गाँधीजी
से बढ़कर कौन समझता? उन्होंने तो समाज
की सबसे नीची पायदान पर खड़े गरीब-गुरबों को ही दरिद्र नारायण कह
दिया—यानी दिव्य निर्धन। गाँधीजी के मन में चाहे जो बड़ा मक़सद रहा हो, पर मैंने अपने गाँव की एक विधवा के बारे में सुना था, जिसने बिना जाने-समझे इस नाम का मर्म जी लिया।
बड़ा
मक़सद?
कौन जाने। मेरे ख़याल से तो छोटा-सा भला काम भी उतना ही भारी है जितना
कोई बड़ा पुण्य। वरना, श्रीराम उस
नन्ही-सी गिलहरी की क्यों तारीफ़ करते, जिसने
सेतु-निर्माण में बस रेत के कण ही सही, पर अपना
हिस्सा निभाया था?
गाँव भर
में जिसे शिबु मइया कहकर पुकारा जाता था, उसका नाम उसके मर
चुके बेटे शिबु पर पड़ा। न वह बहुत अमीर थी, न एकदम
फटेहाल। अजीब बात ये कि पति के मरने के बाद ही उसके अच्छे दिन फिरे। जब तक वह
जिंदा रहा, ताश-पत्ता, जुआ और
रंगरेलियों में पैसा-कौड़ी डुबोता रहा। घर तो गरीबी में ही डूबा रहा। पति के जाने
के बाद,
शिबु मइया ने अपनी दो एकड़ ज़मीन का भरसक सँभाल लिया। खाद डाली, खेत में जी-जान लगाई, फसल खूब हुई। पीछे
का पोखरा भी खुदवा लिया। तभी अफ़वाह फैली कि उसे दो मटके मिले—एक कौड़ियों का, दूसरा शायद सोना-चाँदी का। अब असलियत कौन जाने! कभी तो लगता बस
हवा-हवाई है, पर जब गाँव के इर्द-गिर्द में बिखरे
बड़े-बड़े पोखरे देखता, तो सोचता—कौन जाने, कोई पूर्वज सचमुच धन गाड़कर चला गया हो।
हमारे
गाँव में अमीरी का पैमाना सीधा था—जिसके घर बारहों महीना अपने खेत का चावल पके, वही अमीर। उस हिसाब से, शिबु मइया
अब अमीरों में गिनी जाने लगी।
उसकी
अमीरी का सबूत और भी था—गाँव का सालाना भागवत पाठ। सात दिन तक पुरोहित झोंपड़ी में बैठकर जगन्नाथ दास का ओड़िया भागवत सुनाता—अठारह
हज़ार श्लोकों में श्रीकृष्ण की कथा। कुछेक गाँव वाले जाकर सुनते। आख़िर में
सामूहिक भोज होता, जात-बिरादरी का
भेद मिटाकर सब खाते। शिबु मइया न केवल श्रोताओं में आगे रहती, बल्कि ख़ूब चढ़ावा भी देती। कई श्लोक तो उसने रटे रखे थे।
एक गरमी
की रात थी। रोज़ की तरह, शिबु मइया आठ बजे
सो गई,
चार बजे उठने का इरादा था। पिछला दिन शुक्ल पक्ष की एकादशी था। व्रत
के कारण उसने बस दो गेहूँ की रोटियाँ खाई थीं—तब हमारे धान-खोर इलाके में गेहूँ
किसी चमत्कार से कम न था। भूख से तड़पती, वह भोर के
इंतज़ार में पड़ी थी, जब पखाल भात (पानी-भात) अचार और
हरी मिर्च के साथ खाएगी।
उसी रात, बाउली और बाया नाम के दो चोर दबे पाँव घुसे। पिछली बरामदे से लगी रसोई
ही सबसे आसान रास्ता था। बाँस की टट्टी और बेतुका दरवाज़ा, ऊपर से बाहर से बस एक कुंडी। जैसे ही अंदर का दरवाज़ा बंद हो, रसोई तो कुत्ते-बिल्लियों का भी खेल बन जाती।
संयोग
देखिए,
चोर जब पहुँचे तो बहुत जल्द सवेरा होने ही वाला था।
अचार की
सुगंध बिस्तर तक पहुँची। मइया ने करवट बदली और सोचा—“कुत्ता होगा।” फिर ठिठकी—“न, कुत्ता अचार का मर्तबान थोड़े खोलेगा!” खिड़की से झाँका तो देखा
बाउली-बाया उसके पखाल भात पर टूटे पड़े हैं। मन-ही-मन हँसी—“भूखे हैं, तभी तो! नहीं तो इस बखत कोई खाता है क्या?”
धुंधली
चाँदनी में उन्हें पहचान भी लिया। गर्व हुआ अपनी गुपचुप खोज पर, पर चिल्लाई नहीं। बस देखती रही, जब तक
दोनों खाना चट कर निकल न गए।
दोनों चोर
तृप्त होकर, अचार की तारीफ़ करते-करते दबे पाँव भाग
लिए। ठान लिया—“अगली दफ़ा चावल-भात नहीं, खज़ाना
उठाएँगे।”
दूसरे दिन
द्वादशी थी। व्रत तोड़ने के लिए शिबु मइया को ब्राह्मण को भोजन कराना था। पर उसने
दो गठरियाँ बाँधी—चावल, आलू, सब्ज़ी और हर गठरी में पाँच-पाँच रुपया ठूंस दिया। पाँच रुपया उस बखत
बड़ा माल था! इन्हें भेजवा दिया सीधे उन्हीं चोरों के घर।
बाउली-बाया
का कलेजा काँप उठा। जिन्हें लूटने गए थे, उसी मइया
ने खाना और रुपया भिजवा दिया! उन्हें पता था गाँव में चोर का क्या हश्र होता
है—चेहरे पर चुना-कोयले की लकीरें, गले में
बैंगन-आलू की माला, एक को दूसरे की
पीठ पर चढ़ाकर सरे गाँव में हँसी-ठट्ठा।
उस अपमान
से बचने को दोनों दौड़ते हुए पहुँचे, मइया के
पाँव पकड़ गिर पड़े। “माफ़ कर दो!” गिड़गिड़ाने लगे।
मगर शिबु
मइया ने अनजान बनते हुए कहा—“अरे, किसने कहा मेरे घर
चोरी हुई है? कुछ हुआ ही नहीं।”
उसने न तो
पड़ोस में बात फैलाई, न पंच के कानों
में डाली। अगर डाल देती, तो चोरों का हाल
और भी बुरा होता—क्योंकि तब तक मइया की ख्याति पूरे गाँव में गूँज रही थी।
और इस तरह, बस वही और वे दोनों चोर सच्चाई जानते रहे। गाँव भर में यह किस्सा
रहस्य बनकर रह गया—ठीक वैसे ही जैसे उसके पोखरे से निकले खज़ाने का किस्सा।
पत्ते की बात
गाँव भर
में यह कथा आज भी कही-सुनी जाती है—एक विधवा जिसने चोरों को पकड़वाने के बजाय
उन्हें दया का प्रसाद दिया। उसने किसी ग्रंथ की बड़ी व्याख्या नहीं पढ़ी, सिवाय भागवत के, पर “दरिद्र
नारायण” की महिमा को जीकर दिखा दिया।
गाँधीजी
ने कहा था—गरीब में ही ईश्वर का वास है। शिबु मइया ने इसे और आगे बढ़ाया—“भूखे में
ही भगवान बसता है।”
चोर उसके
घर से अचार-भात चुराने आए थे, पर लौटे उसके
चरणों में सिर झुकाकर। यही दिव्य
निर्धन की असली ताक़त
है—जहाँ दया, न्याय से भी ऊँची हो जाती है।
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By
अनन्त नारायण नन्द
01-10-2025
बालासोर
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भारतीय ग्रामीण परिवेश को प्रदर्शित करता बहुत सुन्दर लेख सर
ReplyDeleteकहानी पढ़कर अपने विचार साझा करने हेतु अशेष धन्यवाद।🙏
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